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ये भी एक ज़िंदगी - 9

अध्याय 9

किसी की चुगली करना या बुराई करना उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था। आप किसी के बारे में बोलो तो भी कह देंगे अरे हमें किसी से क्या लेना देना। तुम अपना काम करो।

कोई आकर घंटों बैठकर उनसे बातें करता। उसके जाने के बाद मैं पूछती क्या कह रहा था? तो उनका जवाब होता "मैंने तो सुना ही नहीं। पता नहीं क्या बक रहा था। फालतू बातों पर मैं ध्यान नहीं देता।"

ऐसी बहुत सारी खूबियां मुकेश जी में थी। जिससे मैं उनकी ओर आकर्षित होती चली गई।

मुझे तो अफसर की चाह थी वह मुझे मिल चुका था। उसके लिए मुझे बहुत कुछ चुकाना पड़ा। राजस्थान यूनिवर्सिटी से एडल्ट एजुकेशन में B-ed किया। मुझे नौकरी तो बड़ी अच्छी मिली। जीप वगैरह भी मिली पर रात को जाना पड़ता यह कैसे संभव होता? बच्चे छोटे थे। पति का ट्रांसफर दूर हो गया था। मैं बच्चों को अकेले कैसे छोड़कर जाती? मैंने ज्वाइन नहीं किया।

फिर से टीचर ट्रेनिंग (B.ed) किया। एक साल दो-दो बच्चों को रखकर फिर कठोर परिश्रम किया। नौकरी बहुत मिली पर बाहर मिली। गवर्नमेंट की नौकरी थी पर मैंने नहीं किया। यहां बच्चों को कौन देखता। मैंने एक प्राइवेट स्कूल में ज्वाइन कर लिया।

बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाया। लड़की चौथी में थी लड़का तीसरी में तभी मुकेश जी रिटायर हो गए।

मकान अपना था अतः हमेशा किराएदार रखा। ज्यादातर किराएदार अच्छे ही थे।

पहले मुझे अपनी चिंता थी अब बच्चों की भी चिंता होने लगी । बच्चे अच्छी तरह पढ़ें, सेटिल हो, उनकी नौकरियां लगे और उनकी शादी हो इसकी चिंता मुझे खाए जा रही थी।

इसी बीच पति के आंख का ऑपरेशन हुआ। वह खराब हो गया। वे दो महीने हॉस्पिटल में रहे ‌।

बेटी बहुत होशियार थी। एम.ए में पहुंच गई थी। एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज में भाग लेती थी। उसका टीवी में रेडियो में दोनों में न्यूज़ रीडर में भी सिलेक्शन हो गया था । उसका रेडियो आर्टिस्ट और टीवी आर्टिस्ट में भी सिलेक्शन हो गया। कॉलेज में, टीवी में और रेडियो में नाटक करती थी। ऑल राउंडर थी। पढ़ने में भी बहुत होशियार। हिंदी, अंग्रेजी दोनों में होशियार थी। जयपुर में ही एक परिवार में जो बहुत पारंपरिक परिवार था बेटी को लेने को तैयार थे। लड़का गोरमेंट में लेक्चरर था। पारंपरिक और पिछड़ा परिवार तो था पर मुझे लगा लड़का इतना होशियार है और जयपुर में गवर्नमेंट कॉलेज नहीं है बाहर ही बाहर रहेगा फॉरवर्ड हो जाएगा। मेरे पति तैयार नहीं थे। उनके मन में शंकाए थी पर मुझे कुछ नहीं लगा। क्योंकि अभी भी मैं सीधी-सादी ऐसी की ऐसी थी। इतने धक्के खाने के बाद भी मुझे अक्ल नहीं आई। लड़का एकदम हैंडसम, गोरा चिट्टा था। गोल्ड मेडलिस्ट। अंग्रेजी मीडियम में पढ़ा हुआ यह तो मुझे चाहिए था क्योंकि बेटी भी अंग्रेजी मीडियम की पढ़ी हुई थी। मुझे तो लगा सब सही है। उन लोगों ने कहा एक महीने के अंदर ही शादी करनी है। मेरे पतिदेव को यह बात पसंद नहीं आई। शादी करनी है तो जल्दी कर दो। उन्होंने कहा हम एम.ए पूरा करने देंगे।

मुझे भी उसकी शादी की बड़ी चिंता हो रही थी। पति ने तो जल्दबाजी करने को मना किया। पर मुझे लगा पति की उम्र हो रही है वैसे ही वे कुछ नहीं करते कैसी बिटिया की शादी होगी? मैंने अपने घर वालों को भी कहा था। यहां वहां भी कहती रहती थी। अपने आप ही आकर कोई लड़की मांग रहा है क्यों नहीं करना चाहिए।

चलो शादी की मैंने ही जिंद्द की। पहले तो लड़की ने हां कह दी बाद में जब सगाई हो चुकी और शादी की तैयारियां हो रही थी तब बेटी ने मना किया। तब मैंने कहा ऐसा कैसे हो सकता है। और कुछ समझ में भी नहीं आया और शादी भी हो गई। वे बड़े पुरातन्त्री और पारंपरिक लोग थे। जबकि मैं राजस्थान के परंपराओं से बिल्कुल वाकिफ नहीं थी। मेरे पतिदेव को यह परंपराएं बिल्कुल पसंद नहीं थी। इसीलिए मैंने कभी ध्यान ही नहीं दिया। लड़की की शादी इस तरह पारंपरिक परिवार में करने के पहले सोचना चाहिए पर यहां पर भी मैंने गलती की। जिसका खामियाजा ना केवल मुझे बल्कि बेटी को भी बहुत भुगतना पड़ा और अभी भी भुगत रही है। उसकी वजह से मैं दुखी हूं पर सहना तो उस बच्ची को ही पड़ रहा है ना।

इसी तरह सब निपटा ही था कि मेरे पति का एक्सीडेंट हो गया। एक्सीडेंट भी बहुत बुरी तरह हुआ चार महीने अस्पताल में रहना पड़ा। मैं भी अस्पताल में ही कमरा लेकर रही। मैं हॉस्पिटल के कमरे में ही खाना बनाती और बेटा वहीं आकर खाना खाता। पर बेटी को इनफॉर्म करने के बावजूद उसे पता नहीं चला। आप समझ ही गए होंगे होशियार पाठक को इशारा ही काफी है। दिन और रात परेशान हुई बेटी को पता ही नहीं चला । ससुर जी देखने आए उन्हें कहा उन्होंने बड़ी मुश्किल से दो दिन के लिए बेटी को भेजा। शादी के बाद बेटी के सभी कार्यक्रमों में बंदिश लग गई। वह वहां रह ही ना पाई। क्या करें क्या ना करें समझ में नहीं आया। जब लड़की गर्भवती हुई तो घरवालों का कहना था कि लड़का ही होना चाहिए | हमारे परिवार में लड़कियां नहीं होती | मेरी बेटी बड़ी फिक्र करने लगी और मुझे भी बहुत फिक्र हो गई |

भगवान की दया से बेटा ही हो गया। बेटी वहां जाने को तैयार नहीं। फिर किसी तरह से समझा कर बेटी को एक तरह से जबरदस्ती भेजा। बेटी ने एक शर्त रखी मैं सर्विस करूंगी। उसकी शर्त मंजूर कर ली गई। उसने सर्विस तो की पर आर्थिक स्वतंत्रता उसे नहीं मिली। यह भारतीय नारियों की तो क्या मेरे ख्याल से पूरे संसार में ही ऐसा हो रहा है। कहीं ज्यादा कहीं कम। जहां सोच अच्छी है वहां तो ठीक है जहां नहीं है वहाँ वही हाल।

इस बीच बेटी के एक बच्चा और हो गया। मुझे बहुत चिंता हुई। चिंता करने से क्या होता है। प्रॉब्लम सॉल्व नहीं होती।

समय के साथ बहुत कुछ बदला बहुत कुछ खराब भी हुआ पर क्या कर सकते है......

अब बेटे की नौकरी लग गई थी। मुझे बेटे की शादी की कोई चिंता नहीं थी। बेटा छोटा ही था। पता नहीं मेरे पतिदेव को बेटे की शादी की बड़ी चिंता थी। वे लगातार कोशिश में लग गए। बहुत सी लड़कियां आई पर पति चाहते थे बहू गवर्नमेंट सर्वेंट वाली होनी चाहिए। बेटा प्राइवेट नौकरी में हैं तो कम से कम एक जना गवर्नमेंट नौकरी में हो। चांस की बात है ऐसी ही एक शिक्षिका मिल गई। पति को उनकी सारी बातें पसंद आ गई। और जल्दी में वह शादी हो गई। यह लोग भी पारंपरिक थे परंतु बहू अपने को बहुत मॉडर्न मानती थी। सिर्फ मानती थी, थी नहीं। मेरी तो इकलौती बहू थी मैं उसे बहुत चाहने लगी। मैंने बेटी का प्रेम भी उसी पर उड़ेला। जी जान से उसे चाहने लगी। मैंने कभी किसी काम के लिए उसे नहीं कहा। ना मैंने कभी कोई उम्मीद की। पर मैंने सम्मान की इज्जत जरूर की। क्या चाही हुई सभी चीजें मिलती है? ना मिली, ना मिलनी थी ।