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ये भी एक ज़िंदगी - 5

अध्याय 5

वहां मुझे रखने वाला भी कोई नहीं था। पर सासु मां ने मुझे पत्र लिखने के लिए कहा। ननद ने भी आते रहने को कहा। सब दिखावा मात्र था।

खैर मुझे भोपाल ले आए । जितनी मुंह उतनी बातें। सारे मिलने जुलने वाले पूछने आ गए। मैं किसी के सामने गई नहीं। सब अम्मा से कुरेद-कुरेद कर पूछ रहे थे। अम्मा बहुत परेशान हो गई। मुझे तो सोने के लिए कह दिया । मैं तो चादर ओढ़ कर लेटी रही।

एक हमारे खास पहचान की औरत थी उसने राय दी "रेणुका को डॉक्टर बनाओ।" मेरी अम्मा ने कहा "ये तो साइंस स्टूडेंट नहीं है?"

"तो क्या हो गया ? दो साल साइंस पढ़ लेगी ?"

सुनकर मुझे भी बहुत अच्छा लगा । मुझे साइंस पढ़ने की बहुत इच्छा थी। पर पापा बोले "हमें यह सोचना चाहिए कि कुछ आमदनी भी होनी चाहिए ।"

उसके बाद मैंने सोच लिया मैं जो कुछ करूंगी अपने पैर पर खड़े होकर ही करूंगी।

मेरी सरकारी नौकरी रिजाइन करने से चली गई थी। फिर उन्होंने एडवर्टाइजमेंट किया। तब मैंने अप्लाई कर दिया। इंटरव्यू हुआ और मेरा सिलेक्शन हो गया। इन सब में सिर्फ दो महीने का ही समय लगा।

दो महीने बाद ही मैंने नौकरी ज्वाइन कर ली। मैंने इंटरमीडिएट की तैयारी शुरू कर दी। सुबह 10:00 से 5:30 ऑफिस आते-आते 6:30 बज जाते। सुबह 9:30 बजे घर से निकल जाती। गर्मी के दिनों में तो थक कर चूर हो जाती। फिर पढ़ने की इच्छा नहीं करती ‌। मैं रात में 9:00 बजे सो जाती। सुबह 3:30 बजे उठकर पढ़ाई करती। अंग्रेजी में मुझे प्रॉब्लम आती तो पिताजी मुझे पढ़ाते थे। बाकी तो सब अपने आप कर लेती। इंटरमीडिएट में अच्छे नंबरों से पास हो गई। अब बी.ए. सेकंड ईयर में एडमिशन लेना था। अरविंद कॉलेज मॉर्निंग कॉलेज था। सभी जॉब करने वाले उसमें पढ़ते थे। सुबह 7:00 बजे से 10:00 बजे तक क्लास लगती थी। उसी में मैंने एडमिशन ले लिया। 10:00 बजे सीधे बस से ऑफिस पहुंच जाती थी। इस तरह बी.ए पास किया। अब एम.ए इकोनॉमिक्स के लिए गवर्नमेंट कॉलेज में ज्वाइन किया। वहां भी मॉर्निंग क्लासेस लगती थी। 7:00 से 10:00 यह भी अच्छा रहा। दिन बीतते गए। मैंने अपने आप को पढ़ाई में और ऑफिस के कामों में लगा लिया था।

मेरे अम्मा पापा को मेरी हमेशा चिंता रहती थी ‌। उन्होंने सोचा इसकी शादी करनी चाहिए। कुछ लोग भोपाल में ही मुझसे शादी करने के  लिए उत्सुक थे। मेरे पापा मम्मी यही चाहते भी थे कि मैं वहीं भोपाल में रहूं। परंतु जब मम्मी ने मुझसे पूछा तो मैंने मना कर दिया। मेरी मम्मी कहने लगी "रेणुका जिंदगी बहुत बड़ी है। यदि शादी नहीं करोगी अकेले कैसे रहोगी हम तो चले जाएंगे पीछे तुम्हें कौन देखेगा?"

पहले से तो मैं सतर्क हो गई थी | कुछ समझने भी लगी थी |

"शादी तो तुम्हें करनी है। यह जो अपने आप मांग कर तुम्हें लेने को तैयार हैं वही हो जाए तो ज्यादा अच्छा ‌‌।"

"नहीं मम्मी यह आदमी छोटी पोस्ट पर है ? पहले ही मैं आर्थिक संकट बहुत झेल चुकी हूं। अब मैं और झेलना नहीं चाहती।"

"हम रेणुका तुम्हें सब कुछ दे देंगे, किसी चीज की तुम्हें कमी नहीं होने देंगे। फिर तुम भी तो नौकरी करोगी दोनों मिलकर अच्छा कमा लोगे।"

"नहीं मां मैं शादी के बाद नौकरी नहीं करूंगी। मैं शादी करूंगी तो किसी ऑफिसर से जो संपन्न हो। ऐसा नहीं मिले तो मुझे कोई जरूरत नहीं।"

"जैसी तुम्हारी इच्छा। हम ऐसा ही तुम्हारे लिए देखेंगे।"

पता नहीं जब होना होता है तो  कैसे न कैसे हो ही जाता है। हमारे पड़ोस में एक औरत रहती थी। उसके रिश्तेदार इंदौर में थे। उन्होंने एक रिश्ता पक्का किया था। शादी की तारीख पक्की हो चुकी थी परंतु उसकी मां राजस्थान देने के लिए राजी नहीं थी। उन्होंने कहा "बहुत अच्छा लड़का है हमने देखा है हमारी मां तो राजी नहीं है आप ही उससे अपनी लड़की का रिश्ता कर दो।"

"मेरी लड़की कहती है ऑफिसर होना चाहिए ?"

"अजी वह लड़का मुकेश तो बड़ा ऑफिसर है ! इसीलिए मेरे भाई ने उससे पक्की की थी पर अम्मा की जिद्द है राजस्थान में नहीं दूंगी इतनी दूर! लड़की को देखना चाहूं तो देख नहीं सकूंगी! अब क्या करें।"

अम्मा ने यह बात पापा से बताई। पापा तो बहुत सीधे थे। उन्होंने डायरेक्ट लड़के मुकेश को ही पत्र लिख दिया। मुकेश उस समय उदयपुर सरकारी काम से आया हुआ था। उसने सोचा उदयपुर से भोपाल पास पड़ेगा और वह मिलने भोपाल आ गए। उस समय हमारे पापा टूर पर गए हुए थे। मम्मी और भैया से बात हुई। मुझसे भी बात हुई। मुकेश देखने में एकदम हैंडसम लंबे चौड़े ऊपर से ऑफिसर! मेरी तमन्ना तो पूरी हो गई। उसके बाद पापा ने सोचा मैं अचानक मुकेश को देखने जाऊं तो ठीक रहेगा। बिना बोले देखने पहुंच गए। वहां मुकेश गायब थे कहीं चले गए। पापा परेशान हुए परंतु स्टाफ के आदमियों ने उन्हें ठहराया। बड़ी आवभगत की। उन लोगों ने कहा "मुकेश साहब आज ही बाहर गए हैं ! परसो आ जाएंगे। आप आराम से रहिए।"

मरता क्या न करता पापा चुपचाप वहां इंतजार करते रहे।

तीसरे दिन मुकेश जी बैलगाड़ी में बैठ कर आए। क्योंकि वहां एक ही बस चलती थी उसे छोड़ दो तो दूसरी बस दूसरे ही दिन मिलती थी। स्टाफ के लोगों ने उन्हें बताया आपसे मिलने कोई आया है। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उस जमाने में मोबाइल तो क्या फोन भी नहीं होते थे । क्या कर सकते थे। खैर पापा जब वहां रहे तो लोगों से पूछा "इनकी शादी हो गई क्या?" उन्होंने कहा हो गई होगी? इनकी पत्नी यहाँ नहीं रहती शायद गांव में रहती होगी?"

पापा ने सोचा देखो इन्हें तो पता ही नहीं कि उनकी शादी नहीं हुई है! कैसी विचित्र बात है। पापा को ऐसा नहीं लगा कि उनके गांव में जाकर मुझे पूछ-ताछ करनी चाहिए।

मुकेश जी से पूछा उन्होंने कहा "मेरे बाबूजी ने एक जगह मेरी सगाई की थी। मेरे होने वाले ससुर जी ने मुझसे कहा मेरे घर आओ मैं तुम्हें जीवन कैसे जीना चाहिए सिखाऊंगा।"

"अब मैं यह कैसे मान सकता हूं ? आप बताइए। मैंने जाने से मना कर दिया ।"

"फिर ?"

"फिर क्या ? बाबूजी भी नाराज हो गए। होने वाले ससुर जी भी। मैंने तो मना ही कर दिया मैं वहां शादी करूंगा ही नहीं। बाबू जी ने कह दिया, अब मैं तेरी शादी करूंगा ही नहीं।” “मैंने सोचा मैं किसी बंदिश में नहीं रहूंगा। यदि कोई अच्छी लड़की मिल जाए तो मैं अपने आप शादी कर लूंगा । क्यों साहब बात ठीक है ना?" मुकेश ने बोला |

"बिल्कुल सही।"

पापा जी को लड़का बड़ा पसंद आ गया। सही बात बोलता है। सोच बिल्कुल सही है। हमारी बेटी के लिए एक ऐसा ही लड़का चाहिए। उन्हें तो ऐसा लगा उनकी मन की मुराद पूरी हो गई है।