This is also a life - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

ये भी एक ज़िंदगी - 3

अध्याय 3

उस जमाने में लड़का-लड़की दिखाने का रिवाज था। उस रिवाज के मुताबिक लड़के वाले मुझे देखने आ रहें थे।

मेरी नानी मुझे कुएं के पास पिछवाड़े में ले जाकर बार-बार समझाने लगी "देख रेणुका लड़के को देखकर तुम मना मत कर देना। तुम्हें पता हैं रेणुका वह कोने वाले घर की लड़की सीमा ने एक लड़के को देखकर मना कर दिया था और आज तक उसकी शादी नहीं हुई। ममता को तो तुम जानती ही हो रेणुका उसने भी लड़का काला है इसलिए मना कर दिया उसे उसके बाद और भी बुरा मिला।”

मैं सिर्फ साढ़े अट्ठारह साल की मुझे इतना ज्ञान नहीं था। वैसे भी मैंने बताया मैं दब्बू और डरपोक किस्म की लड़की थी। मेरी मां मुझे बहुत दबा कर रखती थी‌। नानी से मुझे डरना तो था ही। पापा भी पास में नहीं थे। किसी से क्या कहती! अंदर ही अंदर मैं डरी हुई थी।

लड़का देखने-दिखाने का समय आ गया।

भगवान की दया से मैं दिखने दिखाने में ठीक-ठाक ही थी तो मना करने का सवाल नहीं। पर वह लड़का मुझे अच्छा नहीं लगा। पर मेरी हिम्मत कहां उसे मना कर दूं?

नानी ने पहले ही पट्टी पढ़ा रखी थी मना नहीं करोगी। साहसी तो मैं थी ही नहीं!

अब क्या हो एक भारतीय लड़की को जिस के पल्ले में बांध दो फिर उसे चुपचाप उसके पीछे गाय जैसे चलना होता था। अब भी कोई विशेष अंतर तो नहीं आया है | फिर भी लड़कियां अब हिम्मती हो गई है | होना भी चाहिए |

मेरी अम्मा ने यह तो कहा था कि मेरे पिताजी को आने दो। पर नानी तो उनसे भी तेज थी और बोल्ड भी। उन्होंने कहा कि "कुछ नहीं होता है हम तो सगाई कर देते हैं। शुभ कार्य में सोचना नहीं चाहिए।" और नानी ने सगाई करवा दी।

पापा का पत्र दो दिन बाद आ गया। तुम शादी-ब्याह की बातों को छोड़कर यहां आ जाओ। अभी रेणुका की शादी की कोई जल्दी नहीं है।

पत्र आते घर में हंगामा हुआ। खैर यहां से दूसरा पत्र अम्मा ने लिख दिया। "यहां तो सगाई हो चुकी है अब शादी की तैयारी करनी है एक महीने के अंदर ही शादी होगी।" यह तो मिलिट्री ऑर्डर था। पर उस समय हमारे घरवालों के समझ में नहीं आई या ना समझने का नाटक कर रहे थे । यह बात मुझे बाद में समझ आई। यह मुझे फँसाने का षड्यंत्र रचा गया था |

पापा सीधे-सादे उनके चंगुल में फंस गए । मरता क्या न करता। शादी की तैयारियां होने लगी। उन लोगों की मांग बढ़ने लगी। फिर भी नानी वहीं रिश्ता करने पर अड़ी रही। जहां-जहां से उधार लेने की सोची थी सब ने मना कर दिया।

इस बीच एक गुमनाम पत्र आ गया ।

उसमें लिखा था "आपने जिस लड़के के साथ अपनी लड़की की सगाई करी है वह हॉर्ट का पेशेंट है। डॉक्टर ने उसको शादी करने के लिए मना किया है। आपकी लड़की की जिंदगी बर्बाद हो जाएगी।"

इस पत्र को देखकर घर में हंगामा हो गया। लड़के वालों के पास पत्र को ले जाकर दिखाया । "अरे यह तो हमारे किसी दुश्मन की कारस्तानी है | मेरा बेटा तो फुटबॉल का प्लेयर है। हमारे फैमिली के डॉक्टर से पूछ लो।" पापा सीधे-सादे अड़ोसी-पड़ोसी से पूछा सब ने कहा नहीं लड़का बहुत अच्छा है। डॉक्टर ने भी कह दिया लड़के को कोई बीमारी नहीं है । लड़का एकदम तंदरुस्थ है | पापा ने सोचा चलो एक समस्या और हल हो गई। जहां-जहां पर रिशतेदारों से कर्ज मिलने की पापा को उम्मीद थी वहाँ उन्हें निराशा ही हाथ लगी |

अब पैसे की समस्या तो मुंह बाए खड़ी थी। खैर मेरी नानी ने ज्यादा ब्याज के दर पर व्यवस्था कर दी। "दामाद जी आप भोपाल जाकर रुपये भेज देना। वहां तो इतंजाम हो ही जाएगा । यहां तो ब्याज दर महंगा ही होगा।"

खैर इन सब बातों के होते हुए मेरे मन की बात को किसी ने नहीं पूछी। मैं दोनों तरफ से परेशान थी। एक तरफ पापा पैसों के लिए परेशान हो रहे हैं और दूसरी तरफ लड़के को हार्ट पेशेंट बता दिया था | इसके अलावा पैसों की मांग भी कर रहे हैं। मन बहुत ही व्यथित था। मेरे मन में कोई खुशी नहीं थी। बाल-विवाह होता तो समझ नहीं होती है। मिठाई और गहने की खुशी होती है। यह तो ऐसा भी नहीं था। यह कैसी अनोखी शादी थी!

खैर साउथ में तीन दिन की शादी होती है इस जमाने में भी। ऐसे ही तीन दिन बरात ठहरी। नानी ने बड़े दिल से खर्च किया। वाह-वाही जो लूटनी थी ना! "मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन" वाली बात थी।

मेरा मन बहुत खिन्न था। पर मैं कुछ कर नहीं सकती थी।

ससुराल की आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर थी। ससुर जी बड़े ओहदे पर थे। मेरी सास उनकी दूसरी पत्नी थी। पहली पत्नी मर चुकी थी। पहली वाली के दो लड़के थे। वे सेटल थे। मेरी सास की दो लड़कियां और एक लड़का था। लड़कियां शादीशुदा संपन्न घरों में थी। ससुर जी के देहांत के बाद सास एकदम अकेली हो गई। सबसे छोटा लड़का वह मां के प्यार में बिगड़ा हुआ था। सेंट्रल गवर्नमेंट की नौकरी तो थी पर बड़े शहरों में किराए के मकान में रहते हुए तीन जनों का गुजारा बहुत मुश्किल था। मेरी सास संपन्नता में रहीं हुई थी उसका हाथ खुला हुआ था। पर क्या कर सकते हैं जितनी लंबी चादर उतना लंबा ही पैर फैलावो।

पति श्रवण कुमार जैसे एक्टिंग करता था। वहां के रीति-रिवाज, नियम-कायदे, संस्कार, बिल्कुल अलग थे । मैं एकल परिवार में पली-बडी थी । मैंने पहले ही कह दिया मैं डरपोक सीधी डब्बू किस्म की लड़की थी। लोगों की दुअर्थी बातों का अर्थ नहीं समझ सकती थी। लोगों ने मेरे भोलेपन का फायदा उठाया। सामने के घर में ही ननंद रहती थी। उसका भी अपना दखल अंदाजी बड़ा अखरता था। वैसे तो स्वभाव की अच्छी थी। उसका पति हमेशा चाहता ससुराल वाले उसकी जी हुजूरी करें।

खैर मैं उस वातावरण में रह रही थी। एक त्यौहार आया। उसमें उन लोगों को बहुत कुछ पाने की उम्मीद थी । मेरे पिताजी ने रुपए भेज दिए थे। वह रुपए उन लोगों को कम लगे तो पति मुकेश ने उसे वापस भेज दिया।

घरवालों की अनुमति के बिना मैं पत्र नहीं लिख सकती थी यदि लिखू तो उन्हें दिखाना अनिवार्य था । पत्र को वे लोग ही पोस्ट  करते थे | इस तरह मुझे कोई आजादी नहीं थी। मन बहुत ही खिन्न था।

इसके अलावा चूल्हे पर खाना बनता। मुझे बनाने में दिक्कत होती थी। मेरा मजाक बनाया जाता।