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रत्नावली 17

रत्नावली

रामगोपाल भावुक

सत्रह

जब जब सोमवती का अवसर आता है। रत्नावली स्थूल शरीर से तो राजापुर में ही बनी रहतीं। लेकिन सूक्ष्म शरीर से वह चित्रकूट के दर्शन में रम जातीं। राजापुर में रहते हुये भी आंखों के सामने से चित्रकूट के दृश्य न हटते। यों सोमवती का पर्व निकल जाता।

पठन-पाठन का क्रम बन्द नहीं हुआ था। बच्चे पढ़ने आते रहते थे। उससे गुरु दक्षिणा मिल जाती। जिससे गुजर चलती रहती थी। गणपति का अध्ययन पर्याप्त हो गया था। वे गाँवके प्रतिष्ठित व्यक्ति बन चुके थे। रमजान का अध्ययन छूट गया था उसके यहाँ कपड़ा बनाने का तथा सिलाई का काम होता था। गाँवमें यों उसका एकाधिकार था। वह भी रत्ना मैया के यहॉं चक्कर लगा जाता था। कपड़ों की व्यवस्था रत्ना मैया के स्वाभिमान के कारण रमजान उचित-मूल्य लेकर करता रहता था।

सोमवती पर वह चित्रकूट तो न जा सकती थी लेकिन हरबार की तरह स्वामी की खोज खबर लेती रहती थी। चित्रकूट से सोमवती के बाद जत्थे लौट रहे थे। साधु-महात्माओं का एक जत्था रत्नावली के आश्रम पर आ गया। साधु-महात्माओं को आया हुआ देखकर उन्हें लगा- ये लोग स्वामी की कुछ खोज खबर लेकर अवश्य आये होंगे। यह सोचकर वे घर से बाहर निकल आयीं। लोग समझ गये कि ये ही रत्ना मैया हैं। उन्होंने इनके चरण छुए। रत्ना मैया अपनी उत्सुकता व्यक्त करते हुये बोलीं-‘आप लोग चित्रकूट से लौट रहे हैं।‘

उनमें से एक बोला-‘जी मैया।‘

दूसरे ने कहा-‘मैया जब हमने यह सुना कि रामघाट पर गोस्वामी जी सोमवती के दिन चन्दन घिस रहे थे। लोग आ आकर चन्दन लगा रहे थे। तभी हनुमान जी ने तोता बनकर यह दोहा कहा-

‘ चित्रकूट के घाट पर भई सन्तन की भीर।

तुलसीदास चन्दन घिसें तिलक करै रघुवीर।।‘

रत्नावली को लगा- कहीं स्वामी अंधविश्वासों के घेरे में तो नहीं घिरते जा रहे हैं।

अब तीसरा बोला-‘गोस्वामी जी को राम जी के दर्शन हनुमान जी ने करवा दिये हैं।

दूसरे साधु ने बात आगे बढ़ायी -‘हमने आपके बारे में चित्रकूट में ही सुना था। यहॉं से निकल रहे थे, सोचा, आपके दर्शन करते चलें।‘

उनके बारे में कुछ पता तो चले कहॉं हैं और कैसे हैं? यह सोचकर प्रश्न कर दिया-‘भैया आप लोगों ने गोस्वामी जी के दर्शन किये या नहीं।‘

एक बोला-‘उनके दर्शनों के लिए तो मैया वहाँ भीड लगी थी। हम बडी मुश्किल से उनके दर्शन कर पाये।‘

यह सुनकर रत्नावली बोली-‘भेया आप लोग बडे़ भाग्यवान हैं। उनके दर्शन करके आये हैं। मुझे भी एकबार ऐसे ही उनके दर्शन हो पाये हैं। आप लोग आराम करें। अरे.....ओे हरको बाई, जरा इन लोगों को जल पिलाओ।‘

हरको आवाज सुनकर जल का पात्र भर कर अन्दर से ले आयी थी। वे जल पीकर नीम के पेड़ की छाया में बैठ गये। रत्नावली बोली-‘आप लोग आटा-दाल ले लें। टिक्कर बना लें। उनमें से एक बोला-‘जैसी राम जी की इच्छा।’

रत्नावली ने आटे-दाल की व्यवस्था कर दी। टिक्कर बनने लगे। यह खबर गाँवभर में फैल गई। लोग इकट्ठे हो गये। जो आता वही उन साधु सन्तों से गोस्वामी जी के बारे में पूछताछ करने लगता। अब तो पूरा गाँव ही उन साधुओं की सेवा में लग गया था।

साधु-सन्तों का इस तरह रत्ना मैया के आश्रम में आना-जाना शुरू हो गया। हरको के काम की व्यस्तता बढ़ गयी। चित्रकूट से प्रयाग जाते-आते में इसी घाट से निकलना पड़ता था। लोग रत्ना मैया के दर्शन करते हुये आने-जाने लगे। गाँवके लोग साधु-सन्तों की सेवा के लिए उनके यहाँ व्यवस्था रखने लगे। रत्ना मैया नये-नये पढ़ने वाले छात्रों से घिरी रहतीं।

इधर रामचरित मानस के रचने की ख्याति चारों ओर फैलने लगी। जो भी वहॉं से निकलता रामचरित मानस की प्रशंसा अवश्य करता। एक दिन रामा भैया रत्ना मैया के घर आये। रत्नावली पौर में ही थी। हरको भी वहीं बैठी थी। रामा भैया को देखकर हरको ने पीढ़़ा डाल दिया। वे उस पर बैठते हुये बोले-‘जै जै सीताराम भौजी।‘

‘सीताराम कहो भैया। आज इधर कैसे.......! बहुत दिनों में चक्कर लगा।‘

वे बोले-‘यों ही चला आया। आज साधुओं की जमात इधर से निकली थी, उनसे बातें हुयीं। वे काशी से आ रहे थे। कहते थे, अवधी भाषा में रामचरित मानस की पहली घटना है। कहते थे, उसमें सारे ग्रंथों का रस है।‘

इस बात पर वे बोली-‘यह सुनकर तो मन आनन्द से भर जाता है कि उन पर तो राम जी की अपार कृपा है।‘

रामा भेया ने बात आगे बढ़ाई-‘कुछ लोग हनुमान जी के मन्दिर पर बातें कर रहे थे। सुना है, वहॉं दो दल गये हैं। कुछ मानस का विरोध कर रहे हैं। कुछ प्रशंसा में लगे हैं।‘

बात की चिन्ता किये बिना उनके मुंह से शब्द निकले-‘जिस पर राम जी की कृपा है उसका संसार के लोग क्या बिगाड़ सकते हैं?‘

‘आप ठीक कहती हैं भौजी। यही कहने यहॉं चला आया। अच्छा राम-राम। चलता हॅंू।‘

यह कहकर रामा भैया चले गये थे। हरको को भी कोई बुलाने आ गया। रत्नावली अकेली रह गयी। वह उठी और अन्दर पूजा घर में पहॅुँच गयी। घर में गोस्वामी जी के द्वारा लाई हुयी राम जानकी की मूर्ति थी। वे उनके सामने जाकर बैठ र्गइं। राम-नाम का भजन करने लगी। फिर रुक गयी। अब वे यह भजन गा रही थीं-

‘भजन राम का करती हॅंू ,तुम आ जाते हो।

राम जहॉं भी दिखते हैं, तुम दिख जाते हो।।

दर्पण बन करके तुम, मुझसे बतियाते हो।।

भजन राम........

जलती रही जीवन भर, करवटें ले लेकर

तपन मिटाने राम भजन गा गा जाते हो।

भजन राम.......

भरत खण्ड ़की भाषा को समृद्ध बनाने

युग दृष्टा बनकर मानस में छा जाते हो।

भजन राम.........

भावुक सी बनकर मैं तो हूँ बनी बावरी

जन-मन में राम जहाँ ,तुम बस जाते हो।

भजन राम..........’

बडी देर तक रत्नावली गीत के बोल दोहराती रही। मन में बात उठी-‘अब तो उस महाकाव्य के दर्शन हो जायें। मुझे वह पढ़ने मिल पायेगा या नहीं। यह कैसे सम्भव है? मेरे लिए तो उस ग्रंथ के दर्शन ही पर्याप्त है। हे राम जी आप तो उस ग्रंथ के दर्शन ही करा दीजिये। संभव है, मेरे बारे में उसमें कुछ लिखा हो! यह तो उसके अध्ययन से ही पता चल पायेगा।

मन हर क्षण रामचरित मानस के दर्शन के लिए रमा रहता। पता भी तो नहीं है, महाराज कहॉं हैं?’ यों ही सोचते-सोचते सारा दिन कट जाता। रात भी स्वामी के स्मरण के साथ शुरू होती और निकल जाती।

एक दिन की बात है दिन अस्त हो चुका था। दिया बत्ती के कार्यक्रम से रत्नावली निवृत होकर दैनिक पूजा में बैठने की तैयारी कर रही थी। उसी समय रामा भैया घर आये। आते ही बोले-‘ भौजी राम राम‘

रत्ना ने उत्तर दिया-‘राम-राम।‘ लेकिन मन में शंका उत्पन्न हो गयी। ये इस समय कैसे आये हैं? इसलिए झट से पूछ बैठी-‘भैया इस समय कैसे आना हुआ?‘

यह सुनकर आनन्द सागर में डुबकियॉं लगाते हुये वे बोले-‘भौजी हनुमान जी के मन्दिर पर गोस्वामी जी आये हैं। चित्रकूट से प्रयाग होते हुये काशी जा रहे हैं।‘

रत्ना के मुँह से शब्द निकले-‘अरे वाह!‘

‘सारा गाँवइकट्ठा हैं। उनके साथ साधु-महात्मा भी हैं।’

रामा भैया यह सब बता ही रहे थे, तब तक तीन चार लोगों का जत्था रत्ना मैया को सूचना देने और आ चुका था। रामा भैया कह रहे थे-‘भौजी, गोस्वामी जी का कहना है, वे आज भोजन आपके यहॉं ही करेंगे। कह रहे थे, आपसे भोजन करने का चित्रकूट में वादा किया था।..... भौजी, उनके भोजन की व्यवस्था करो।‘

यह सुनकर वे सोचने लगीं- मुझे यह कभी नहीं लगा कि वे इस दहलीज पर कभी आयेंगे! आज उनकी मुझ पर इतनी कृपा है। नहीं-नहीं, वे बुद्ध की तरह संत परंपरा का पालन करने आये हैं।

हरको पास में खड़ी थी। रामा भैया की बात सुनकर, रत्नावली को कर्तव्यविमूढ जानकर, बोली-‘भौजी आप अब जल्दी करें, आठ दस साधुओं का भोजन बनेगा। मैं लकड़ी उठाकर लाती हूं। आप कढ़ी के लिए पतीली चढा दें। जल्दी करें।‘

रत्नावली में जाने कितने लम्बे अन्तराल के बाद स्फूर्ति आ गयी थी। घर में घृत न था। हरको रामा भैया से बोली-‘भैया घर में घी नहीं हैं, इसकी आप व्यवस्था कर दें।.........और सुम्मेरा भाई के यहॉं से बैगन मॅँगवा दें।‘

इतना कहना था कि राम भैया के पास खड़े लोग, इन वस्तुओं को लेने अपनी-अपनी जिम्मेदारी लेकर चले गये। रामा भैया बोले-‘भौजी अब मैं वहीं चलता हूं, ब्यालू के समय उन्हें साथ लिवाकर लाऊॅंगा।‘ यह कहकर वे चले गये।

रत्नावली उनके सामने जाकर भोजन परोसने का मनोबल जुटाने लगी।

बड़े जतन से उसने भोजन तैयार किया। फिर भी मन में शंका खड़ी हो गयी। भोजन जाने कैसा बना है? यह सोचकर हरको से बोली-‘हरको, भोजन जाने कैसा बना है?‘

हरको बोली-‘भौजी आपने उसे बडे़ प्रेम से बनाया है। अच्छा ही बना होगा। वे सन्त हैं। आप चिन्ता न करें। उनके राम जी को तो प्रेम से खिलाये भीलनी के झूठे बेर कितने स्वादिष्ट लगे थे।‘

यह सुनकर तो रत्नावली के मन में साहस आ गया था। उसे मालूम था कि उन्हें क्या भोजन पसंद है? यों तो उन्हें तरह-तरह के भोजन पसंद थे, पर सबसे अधिक पसंद के भोजन की बात भी वह भूली नहीं है।

ब्यालू का समय हो गया। गणपति की माँभागवती को मदद करने के लिए बुलवा भेज दिया। जेबने घर में भोजन कराने की व्यवस्था रखी गयी।

जब वे भोजन के लिए आये। रामा भैया ने आगे बढ़कर सूचना दी। उन्होंने मेहमान की तरह घर में प्रवेश किया। भोजन तैयार था। द्वार पर ही स्वामी का आतिथ्य करने रत्नावली खड़ी हो गयी।उनकी वृघ्दावस्था चेहरे से झाकने लगी थी। उसने उनके चरण छुये। शब्द निकले-‘सुखी रहो।‘

अब वह झट से आगे-आगे पथ प्रदर्शन के लिए चल दी। साधु सन्त उनके साथ थे ही। बिछात बिछी थी। सभी क्रम से बैठ गये। थालियां परोसी गयीं। परोसने का काम रत्नावली ने ही सँभाला। गणपति की माँ मदद करने आ गयी। गरम-गरम रोटियॉं सेंकने का काम गणपति की माँ ने सँभाला। जब-जब रत्नावली ने आग्रह के साथ परोसा, उन्होंने उसके आग्रह को टाला नहीं। रत्ना भूल गयी कि वह मेहमानों को भोजन करा रही है। कभी कुछ परोसने लगती। कभी पंखा झलती। कभी दौड़कर जल ले आती। यों छक कर भोजन हुआ। जब उन्होंने चुरू ले लिया, रत्नावली ने सभी सन्तों को दक्षिणा प्रदान की। लेकिन अन्त में स्वामी के पास आकर रुक गयी कि वह उन्हें दक्षिणा कैसे दे? लेकिन प्रश्न आया वे जाने अब कभी आयें न आयें। इसी बहाने एक बार चरण तो छू ही लॅूं। यों उसने उनके हाथ में मुद्रा थमा दी। वे भी चुप ही रहे। किसी तरह रत्ना के मन को दुःखाना न चाहते थे। जब उसने उनके चरणों में सिर रखा तो उसकी कीक फूट पड़ी। ऑंखों के आँसू चरणों में जा गिरे। वे प्रेम की मर्यादा को जान गये। बोले-‘रत्ना उठो साहस रखो। राम जी का भजन करो ,इसी में सभी कल्याण है।‘

रत्नावली को चेतना आ गयी। वे उठ खड़ी र्हुइं। ऑंचल से अपने ऑंसू पोंछे। मेहमानों को विदा करने उनके पीछे हो गयीं। गोस्वामी जी घर से बाहर निकल आये। तब व्यावहारिकता में रत्नावली के मुँह से ये शब्द निकले-‘अब जाने कब दर्शन होंगे आपके?‘

एक क्षण तक गोस्वामी जी रुके रहे, फिर बोले-‘रामचरित मानस की प्रतियॉं कराने का काम टोडरमल जी कर रहे हैं।... तुम्हारे पास उसकी प्रति भिजवा दूॅूँंगा।‘

यह कहकर वे चले गये। रत्नावली हाथ जोडे खड़ी रह गयी। अन्य लोग भी जा चुके थे।

दूसरे दिन गाँवके लोग उन्हें विदा करने घाट तक गये। जब नाव महेबा के घाट पर लगी। तभी लोग इस घाट से हटे। वहॉं से चलकर लोग रत्ना मैया के घर आ गये। रत्ना मैया दरवाजे पर ही थी। लोगों में गोस्वामी जी के बारे में बातें चल रहीं थी। कोई कह रहा था-‘हमें तो मैया के कारण ही गोस्वामी जी के दर्शन हो पाये हैं। नहीं तो वे यहॉं क्यों आते?‘

किसी ने कहा-‘भैया उन्हें राजापुर से बहुत प्यार है। मन्दिर पर रात सभी के दुःख-सुख की पूछते रहे।‘

कोई बोला-‘हमारे गुरुजी आपके नये-नये शिष्यों की पढाई-लिखाई की पूछते रहे। कह रहे थे, तुम्हारी मैया यह बहुत अच्छा काम कर रही हैं।‘

यह सुनकर तो वे चुप ही रहीं। कुछ देर बाद वे लोग भी मैया के भाग्य की प्रशंसा करते हुये चले गये।

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