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रत्नावली 19

रत्नावली

रामगोपाल भावुक

उन्नीस

कभी-कभी जीवन में आनन्द की अनन्त सम्भावनायें दिखने लगती हैं। तब पिछले सारे घाव भर जाते हैं। युग-युग तक जीने की इच्छा होने लगती है। जो जीवन कोसा जाता था वही सराहा जाने लगता है। सिर पर रामचरित मानस की प्रति रखे सभी राहगीरों के साथ रत्नावली चलती जा रही थीं और इस तरह जाने क्या-क्या सोचती भी जा रही थीं। मानस की प्रति को राजापुर बासी क्रम से अपने-अपने सिर पर रखकर मंजिल तय कर रहे थे। रास्ते भर सभी इसी तुकतान में रहे, कब उन्हें वह पवित्र ग्रंथ सिर पर रखने को मिलता है।

रत्नावली रास्ते भर सोचती रहीं- औरत की जिंदगी अमरबेल की तरह है।.... वह सदैव दूसरों के सहारे जीवन व्यतीत करती रही है।... युगों-युगों से परंपरा के नागपाश ने उसे बंधक बनाकर रखा हुआ है। उसका चाहे जितना भी अपमान किया जाये, एक प्यार की चपत उसके गाल पर लगी कि हो गये उसके सारे गिले-शिकबे दूर। रामचरित मानस की प्रति देकर उन्होंने मुझे ऐसी ही चपत लगायी है।... और मैं गाने लगी उन्हीं के गुण!

राजापुर पहुँचते ही यह बात विद्युत गति से सारे कस्बे में फैल गयी कि रत्ना मैया यात्रा से लौट आयीं है तथा अपने साथ में रामचरित मानस की प्रति लेकर आयीं हैं। कस्बे के लोग इकट्ठे होकर बाजे-गाजे के साथ गाँवके बाहर से ही उन्हें लेने आ पहुँचे। मैया के घर जब पहुँचे गाँवके अन्य लोग भी वहाँ मौजूद थे। प्रति को एक तख्त पर रख दिया गया। जिसे जहॉँ स्थान मिला वे बैठ गये। अब गाँववाले तीर्थ यात्रा तथा गोस्वामी जी के हालचाल पूछने लगे। आने वाले यात्री अलग-अलग अनुभव सुना रहे थे। मुक्त कण्ठ से गोस्वामी जी की प्रशंसा भी कर रहे थे। गणपति अपनी उत्सुकता दबाये न रख सका, रत्ना मैया से बोला-‘मैया मानस सुनने की इच्छा तीव्र हो रही है।‘

हरको ने बात काटते हुये कहा-‘‘भैया, आज मैया को आराम तो कर लेने दो। कल से मानस का पाठ शुरू कर देंगी।‘

रत्नावली ने अपने मन की बात कही, बोली-‘ऐसी थकी नहीं हूँ । थोड़ा बहुत आज से ही शुरू कर देते हैं। ऐसा करो, सभी तीसरे पहर दिन ढले तक आ जाओ।‘

उनका यह आदेश पाकर सभी चले गये।

यथा-समय सभी अपने कार्यों से निवृत होकर आ गये। तख्त पर आसन बिछा दिया गया। मानस को तिखुटी पर रख दिया गया। रत्नावली ने पीले वस्त्र में बंधी मानस की प्रति को प्यार से खोला। सुन्दर लिखावट देखकर मन आनन्दित हो गया। सर्वप्रथम रत्ना मैया ने श्रीराम जय राम जय जय राम, नाम का कीर्तन कराया। तत्पश्चात् मानस का पाठ शुरू कर दिया। सस्वर पाठ को सभी मन्त्र मुग्ध होकर सुनने लगे। उनको लग रहा था, रत्ना मैया नहीं बल्कि स्वयं साक्षात् सरस्वती ही सस्वर पाठ कर रहीं हैं।

देर तक पाठ चलता रहा। जब पाठ बन्द किया गया। लोग सुनने को और उत्सुक दिखे। अगले दिन के लिए समय निर्धारित कर दिया गया। गाँवके लोग चले गये। रात खा पीकर जब रत्नावली बिस्तर पर लेटीं, उन्होंने जोर से यह चौपाई दोहराई-

‘रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी।

तुलसीदास हित हिय हुलसी सी।।’

लम्बे अन्तराल के बाद आज सासुजी का नाम जुबान पर आया था। हुलसी के नाम की सुमिरणी चल पड़ी। कैसी होंगी वह ? कैसे तुलसी से पुत्र का त्याग कर पायी होंगी ? श्वसुर का नाम याद हो आया, पं. आत्माराम दुबे। दोनों पुत्र के त्याग के दुःख से दुःखी होकर चल बसे थे। आज के इस सुख का उन्हें उस समय अन्दाजा भी न हुआ होगा।

मानस का पाठ करना प्रतिदिन का नियम बन गया। जो प्रसंग पढतीं, उसमें से एकाध बात जो ध्यान में बनी रहती, सोने से पहले उसे पकड लेती और उसी बात को सोचते-सोचते सो जातींः

‘सती हृदय अनुमान किय, सब जानेऊ सरबग्य।

कीन्ह कपट मैं संभु सन, नारि सहज जड़ अग्य।।

मैया ने शंकर जी से कपट किया। वे सब जान गये। उन्हांने सती माता को क्षमा नहीं किया था। लेकिन स्वामी आपने तो मेरे इतने बडे़ अपराध को क्षमा कर दिया। नहीं, इतनी कृपा सहज में ही सम्भव नहीं थी। मैं भी कैसी हूँ ? जो जाने किन-किन प्रसंगों में अपने आपको ढॅूंढने का प्रयास कर रही हूँ ।

उमडती हुयी सरिता को पार करने की शक्ति, प्रेम के अंधत्व में ही सम्भव है। नारद मोह में नारद जी की जिन मनोभावनाओं का चित्रण किया है वह मुझे और कुछ नहीं, उनकी उस दिन की व्यवस्था कथा ही लगती है।

मैं भी कैसी हूँ ? जो जाने कैसी-कैसी उल्टी-सीधी बातें सोचने में लग जाती हूँ। सीताराम-सीताराम कहते-कहते जाने कब नींद लग पायी!

प्रतिदिन रामचरित मानस के पाठ का क्रम शुरू हो गया। सुबह शाम दोनों समय पाठ चलता। दोपहरी में शिष्यगण आ जाते। उन्हें पढ़ाने का काम गणपति ने सम्भाल लिया। इसीलिए दोपहरी में रत्ना मैया को आराम करने का समय भी मिल जाता। आस-पास के गॉंव में यह ख्याति फैल गयी कि रत्ना मैया गोस्वामी जी की कृति रामचरित मानस का पाठ कर रही हैं। आस-पास गाँव के लोग मानस सुनने आने लगे। मेला जैसा दृश्य उपस्थित हो जाता। साधु सन्त भी वहॉं आ गये। उनके भोजन पानी की व्यवस्था का कार्य कस्बे के लोगों ने सँभाल लिया।

जब-जब मानस का पाठ समाप्त करके रत्ना मैया आराम करने लेटतीं। मानस के प्रसंगों में पति के जीवन की घटनाओं से तुलना करने लगतीं। हरको उनके पैर दबाने दोपहरी में पास आ जाती। उन्हें सोचते देखकर हरको पूछ बैठी-‘भौजी क्या सोच रही हो?’

रत्नावली मन की बात हरको से छिपाती नहीं थी जो मन में होता कह देतीं। एक दिन हरको से बोली-‘मातेश्वरी हुलसी के द्वारा इनका परित्याग और कैकेयी के द्वारा राम का बनोवास, इन प्रसंगों में तुम्हें समानता नहीं लगती।‘

हरको ने सोचते हुये उत्तर दिया-‘आप ठीक कह रही हैं। माँ अनुसुइया के प्रसंगों में तो लगा- गुरुजी ने यह प्रसंग तो बस आपके लिए ही लिखा है।‘

प्रसंग को मन ही मन गुनते हुये वे बोलीं, ‘पाठ करते समय मुझे भी यही लगा है। अब मानस के इस प्रसंग को एक बार और पढ़कर देखती हूँ ।‘

यह सोचकर रत्नावली पुनः आसन पर जा बैठी। इस समय कम ही लोग थे। वे यह देखकर निकट आ बैठे। रत्ना मैया ने पिछले पृष्ठ पलटे और अरण्य काण्ड का यह प्रसंग पढने लगीं-

‘अनुसुइया के पद गहि सीता।

मिली बहोरि सुसील बिनीता।।

रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई।

आसिष देय निकट बैठाई।।

द्विव्य वसन भूषन पहिराये।

जै नित नूतन अमल सुहाये।।

कह रिषिवधु सरस मृदु बानी।

नारि धरमु कछु ब्याज बखानी।।

मातु पिता भ्राता हितकारी।

मित प्रद सब सुनु राजकुमारी।।

अमित दानि भर्ता बैदेही।

अधम सो नारि जो सेव न तेही।

धीरजु धरम मित्र अरू नारी।

आपदकाल परखिअहिं चारी।।

वृद्ध रोगबस जड़ धनहीना।

अंध बधिर क्रोधी अति दीना।।

ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना।

नारि पाव जमपुर दुख नाना।।

एकई धरम एक ब्रत नेमा।

कायँ बचन मन पति पद प्रेमा।।

जग पतिव्रता चारि बिधि अहही।

बेद पुरान संत सब कहही।।

उत्तम के अस बस मन माहीं।

सपनेहु आन पुरूष जग नाहीं।।

मध्यम परपति देखई कैसें।

भ्राता पिता पुत्र निज जैसें।।

धर्म विचार समुझि कुल रहई।

सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई।।

बिन अवसर भय तं रह जोई।

जानेहु अधम नारि जग सोई।।

पति बंचक पर पति रति करई।

रौरव नरक कल्प सत परई।

छन सुख लागि जनम सत कोटी।

दुख न समुझ तेहि सम को खोटी।।

बिन श्रम नारि परम गति लहई।

पतिव्रत धर्म छाँड़ि छल गहई।।

पति प्रतिकूल जनम जहॅँं जाई।

विधवा होइ पाइ तरुनाई।।

सो0 - सहज अपावनि नारि, पति सेवत सुभ गति लहइ।

जसु गावत श्रुति चारि, अजहँ तुलसिका हरिहि प्रिय।।

सो0 - सुन सीता तब नाम, सुमिर नारि पतिव्रत करहिं।

तोहि प्रान प्रिय राम, कहेउँ कथा संसार हित।।

इसे पढ़कर वे प्रसंग में डूब गयीं। हरको ठीक कहती है, माँ अनुसुइया से सीताजी को उपदेश दिलाने की क्या आवश्यकता थी? क्या सीता जैसी विदुषी इन गुणों से परिचित नहीं थी! मुझे लगता है- वे मुझे ही पतिव्रत धर्म का उपदेश दे रहे हैं।... पति चाहे जैसा हो, वह नारी पर चाहे जो अत्याचार करे, उसे पति का विरोध करने का कोई अधिकार नहीं है। उसका तो एक ही धर्म है, एक ही नियम है, एक ही व्रत है... मन, वचन और कर्म से पति के श्री चरणों में प्रेम रखे। उसके सपने में भी पर-पुरुष न आवे, तो ही वह उत्तम स्त्री है। किंतु उन्होंने तो मुझे सबसे अधम स्थान पर रखा है। जो स्त्री पति को धोखा देने वाली होती है, उसे सौ कल्पों तक रौरव नर्क की सजा है। नारी को तो आपने सहज में ही अपवित्र माना है, और उसके लिए पति की सेवा से ही उद्धार माना है। सो, मैं आपकी सेवा करके पवित्र हो जाती... किंतु मैं तो मार्गदर्शन कर कहीं की न रही।

यह सोचकर उन्होंने मानस बंद कर दिया। सभी श्रोता समझ गये। मैया कुछ खोज रही हैं। नहीं तो भरी दोपहरी में यह प्रसंग क्यों पढ़तीं। हरको को चुहल सूझी, बोली-‘कहेऊ कथा रत्ना हित......साफ-साफ ही लिख देते।‘ कहकर वह खिलखिला कर हॅँस पड़ी, लेकिन रत्ना मैया और अधिक गम्भीर हो गयीं।

हरको लज्जित होते हुये बोली-‘भौजी क्षमा करना, मैंने तो यह बात आपकी गम्भीरता को कम करने के लिए कही है।‘ रत्नावली ने फिर भी कुछ नहीं कहा। हरको समझ गयी, भौजी प्रसंग में डूबी हुयी हैं।

इस तरह मानस के प्रसंगों मे अपने आपको तथा स्वामी के जीवन की झॉंकी को ढॅूंढने का प्रयास भी चल रहा था। पत्नी विरह ने इन्हें भी व्यथित किया है तो उनके राम भी पत्नी के विरह में भटकते फिरे हैं।

कुछ भी हो नारियों के प्रति, स्वामी के मन में धारणायें अच्छी नहीं रही हैं। इसका कारण मैं ही हो सकती हूँ। उसने मन ही मन ये पक्तियॉं गुनगुनाईं-

ढोल गँवार, शूद्र पशु, नारी।

सकल ताड़ना के अधिकारी।।

और सोचने लगीं- लोग हैं कि ढोल, गँवार, शूद्र ,पशु एवं नारी का संबन्ध यहाँ दण्डित करने से जोड़ते है। किंतु ताड़ना का अर्थ समझना भी है न कि दण्डित करना। यह सोचकर वे गुनगुनार्इ्रं-

नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं।

अवगुन आठ सदा उर रहहीं।।

साहस अनृत चपलता माया।

भय, अविवेक असोच अदाया।।

और वे सोचने लगीं- आश्चर्य कि आपने नारी के हृदय में तो आठ अवगुण गिना दिये किंतु पुरुष के सैकड़ों दोष छुपा लिए! मेरी समझ से तो पुरुष का पुरुषत्व ही उसका सबसे बड़ा अवगुण है।... इसी समय उनका ध्यान अयोध्या काण्ड की इन पंक्त्तियों पर गया। तो वे मानस में खोजकर फिर पढ़ने लगीं-

सत्य कहहिं कवि नारि सुभाऊ।

सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ।।

निज प्रतिबिम्बु बरुकु गहि जाई।

जानि न जाइ नारि गति भाई।।

दो0- काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।

का न करै अबला प्रबल, केहि जग काल न खाइ।।

इन पक्तियों को रामचरितमानस में पढ़कर उन्हें लगा- स्वामी आज भी मुझ से उतने ही नाराज हैं, जितने उस दिन मुझ से नाराज होकर गये थे। मैंने उनके काम के वेग को रोका, जिसका परिणाम है रामचरित मानस। इससे ब्रह्मचर्य की महत्ता समझ में आती है। बस आदमी अपने सोच की दिशा बदल ले।

जब वे पाठ बन्द करके आराम करने आ गयीं। लोग चले गये, तब हरको ने प्रसंग उठाया, बोली-‘भौजी मानस में नारियों के प्रति जो भावना प्रदर्शित हो रही है, उस सब के लिए कही आप अपने को दोषी न मान लें। सारी बातें प्रसंग-बस ही कही गयीं हैं। वहाँ किसी व्यक्ति विशेष का महत्व नहीं है। महाकाव्य में प्रमुख होता है तो प्रसंग।‘

इसको समझाते हुये रत्नावली ने बात आगे बढ़ायी-‘प्रसंग के कारण जो कुछ कहा गया है उसे हम अपने पर ढाल कर देखें। यह निर्णय अविवेक पूर्ण ही कहा जायेगा, फिर भी मैं अपने आपको मानस में ढूँढने का प्रयास तो कर ही रही हॅूं। राम जी इस अपराध के लिए मुझे क्षमा करें। बस यही राम जी से मेरी प्रार्थना है।‘

यह सब सुनने समझने के बाद हरको के मन में एक प्रश्न उठा-‘भौजी एक बात बताइये।‘

प्रश्न के उत्तर में रत्ना मैया ने प्रश्न कर दिया-‘कहो, क्या बात है ?‘

यह सुनकर उसने कहा-‘आप क्या यह नहीं सोचती कि रामचरित मानस के रचे जाने का कारण आप हैं।‘

यह सुन वे पुनः अपने को मानस में खोजने लगीं, बोलीं-‘हो सकता है। लेकिन वे गहरे सागर हैं। उनकी थाह मापना सरल नहीं है। जितना सोचती हूँ उतना उलझती जाती हूँ । उनके लक्ष्मण जी चौदह वर्ष तक उर्मिला की सुध नहीं लेते हैं।‘

हरको बात पकड़ कर ,उसे पूरी करने के लिए बोली-‘गुरु जी भी तो लक्ष्मण जी की तरह ही हो गये हैं, पूरे मानस में आपका कहीं नाम ही नहीं आने दिया!‘

रत्ना को लगा- हरको की यह पकड़ अच्छी है। यही तो मानस में मेरी उपस्थिति का सबसे बड़ा साक्ष्य है। मैं मानस में अपने आप को व्यर्थ ही ढूढ़ रही हूँ। मुझे मानस में कहीं होना भी नहीं चाहिए। किन्तु राम नाम के भजन में मेरा विश्वास दृढ़ है।

मैंने तो बचपन से कबीरदास जी की साखियाँ सुनी हैं। उन्हें गुना भी है। शब्द से ही सृष्टि की उत्पति हुयी है। शब्द ही ब्रह्म है। राम नाम के भजन में जब-जब व्याकुलता आई है ,तब-तब शरीर में कुछ हलचल सी महसूस हुई है। उसी हलचल पर ध्यान केन्द्रित करने से कुछ ध्वनियाँ सुनाई पड़ने लगीं। चित्त उन्हीं पर रहने लगा तो वे ध्वनियाँ स्पष्ट सुनाई देने लगीं। यों मैं धीरे-धीरे शब्द श्रवण की साधना में लय होते चली गयी। अब तो मैं दिन-रात इसी शब्द साधना में रहने का प्रयास करती हूँ।

कहते हैं नाद का प्रस्फुटन गुरु कृपा से ही सम्भव है। किन्तु मैंने तो किसी को गुरु नहीं बनाया। हाँ, मैंने बचपन से ही कबीरदास जी में गुरु भाव रखा है। किन्तु बिना प्रत्यक्ष गुरु के मेरे अंतस् में नाद का प्रस्फुटन! सम्भव है, उनकी अप्रत्यक्ष कृपा मुझ पर रही हो। फिर स्वामी से भी राम नाम की बात कहकर, मैं स्वयम् ही उनसे दीक्षित होगई थी। उन दिनों मुझे सर्वत्र राम ही राम सुनाई पड़ने लगा था। फिर तारापति का अन्तिम संस्कार करके लौटे जनसमुदाय ने मुझे उपदेश दिया था कि मैं भी अब राम की होकर रहूँ। शायद इससे राम नाम के भजन की व्याकुलता ने मुझे अनहद नाद से साक्षात्कार करा दिया है। इन दिनों नाद कृपा के बारे में, मैं जाने कैसे-कैसे सोचती रहती हूँ।

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