360 degree love - 43 books and stories free download online pdf in Hindi

360 डिग्री वाला प्रेम - 43

४३.

ऐसा भी होता है

काउंसलिंग सेण्टर में अवकाश प्राप्त न्यायाधीश अनुज श्रीवास्तव के सामने आज दोनों पक्ष मौजूद थे. उन्होंने एक निगाह फाइल पर डालकर केस इतिहास का अवलोकन किया. बोले,

“कोई किसी से कुछ लेता या देता नहीं, शब्दों के व्यवहार में बस प्रभाव बाकी रह जाता है .... अच्छा या बुरा. आभामंडल कहीं दूर… बहुत दूर छूट जाते हैं.

अनुभव सिंह, आरिणी और राजेश सिंह तथा आरव शांत मन से उनकी बात सुन रहे थे. उन्होंने सबसे पहले आरव को अवसर दिया कि वह अपनी बात रखे. पर आरव इसके लिए तैयार नहीं था. बोला,

“लिख दिया है कारण हम लोगों ने. अब और क्या कहना. वैसे भी जब वह नहीं रहना चाहती तो हम लोग क्या करें… सूझता नहीं !”

“नहीं मुझे ऐसा कुछ नहीं लगता, जो आप कह रहे हो. अगर आपको बेहतर जॉब चाहिए तो घर से तो निकलना ही पडेगा न?”

 

न्यायाधीश ने उल्टे आरव से ही प्रतिप्रश्न किया.

 

राजेश सिंह बेटे की मदद के लिए बोलना चाहते थे, परन्तु श्रीवास्तव जी ने उन्हें रोकते हुए कहा,

 

“देखिये.. यह मात्र एक प्रयास है आप लोगों की उलझी कड़ियों को सुलझाने का. कोई बाध्यता नहीं है, इस प्रयास की. इसलिए हर व्यक्ति का मन जानना जरूरी है. वैसे न्यायालय में आप अपना रुख अपने विवेक के अनुसार तय करने के लिए स्वतंत्र हैं.”

 

राजेश सिंह चुप हो गये. अब उन्होंने आरव से पूछा,

 

“आपको आपत्ति क्यों है आरिणी के जॉब करने पर?”

 

“नहीं, वो मुझे लखनऊ रहना है, कुछ अपना काम करना है, इसलिए मैं चाहता हूँ कि आरिणी भी साथ रहे”,

 

आरव ने कहा.

 

“मेरे विचार से आरिणी ने आपको विवाह से पूर्व ही यह बताया था कि वह जॉब करने की स्वतन्त्रता चाहेगी. और शायद आप और आपका परिवार सहमत भी था”,

 

माननीय न्यायाधीश ने प्रश्न किया.

 

“हाँ.. लेकिन परिस्थितियां कुछ भिन्न हैं अब”,

 

आरव ने कहा.

 

“क्या आप स्पष्ट कर सकेंगे ?”,

 

श्रीवास्तव जी ने पूछा.

 

“दरअसल मैं कभी अकेले घर से बाहर नहीं रहा हूँ. सच तो यह है कि मैं कल्पना भी नहीं कर सकता, बिना इन लोगों के. फिर दो साल बाद पापा रिटायर हो जायेंगे तो मैं साथ ही रहना चाहूंगा उन लोगों के. बिना उनके अधूरापन लगता है मुझे. डिप्रेशन होता है सोच कर ही!”

 

आरव ने पहली बार बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बात रखी. इतनी बात उसने कभी आरिणी से भी शेयर नहीं की. पर अभी भी वह सिक्के का दूसरा पहलू नहीं दिखा पा रहा था. जितनी यह बात महत्त्वपूर्ण थी, उतनी ही बात यह भी महत्त्वपूर्ण थी कि आरव एक गम्भीर मानसिक रोग से गुजर रहा था, और उसके लिए लगातार डॉक्टर के सम्पर्क में रहना आवश्यक था.

 

श्रीवास्तव जी ने कहा,

 

“बेटा… माता-पिता से स्नेह सबका होता है. पर विवाह के बाद परिस्थितियाँ काफी बदल जाती हैं. उसकी सोचो जो अपना घर अपने माता-पिता और वो ढेर सारा स्नेह छोड़ कर तुम्हारे घर रहने आई है. उसकी स्थिति में स्वयं को रख कर देखो. और फिर जॉब भी करने का मन बनाया है उसने. किसके लिए? जो सब वह कर रही है दोनों की खुशहाली के लिए न? अगर उसका मन कुछ अलग हो तो बताओ, उस से भी पूछते हैं.”

आरव ने जवाब न दे आरिणी की ओर देखा, मानो कह रहा हो कि बताओ क्या कुछ अलग मन है तुम्हारा.

श्रीवास्तव जी ने समझाया,

“अपेक्षाओं का होना जीवन में अशांति का सबसे बड़ा कारण है, लेकिन यह स्वाभाविक है कि मनुष्य, मनुष्य से अपेक्षा करेगा ही. फिर जहां संबंध होते हैं, वहीं तो अपेक्षा होती है. आत्मिक और निकट रिश्ते तो पूरी तरह अपेक्षा पर ही टिके होते हैं जिनमे प्रमुख है पति-पत्नी का. शायद इसीलिए इस रिश्ते में तनाव बहुत अधिक होता है. जो लोग समझदार हैं, वे उनसे अपेक्षा रखने वालों को संतुष्ट करने का हुनर जानते हैं. सभी को संतुष्ट किया भी नहीं जा सकता, लेकिन हमसे अपेक्षा रखने वाले लोग जीवन में आते रहेंगे. वे हमारी जिम्मेदारी के दायरे में भी हो सकते हैं और ऐसे लोगों को संतुष्ट करना चुनौती बन जाता है”,

आगे बोले वह,

 

“मुझे लगता है आरव और आरिणी को कुछ समय अकेले बात करनी चाहिए. आखिर इन्हीं को निभाना है ...समझना है एक दूसरे को”,

 

वह उठ खड़े हुए थे जो इशारा था अन्य सभी के लिए भी. अब कमरे में बस आरव और आरिणी थे. निस्तब्धता छाई थी, जिसे रह-रह कर भंग करती थी बस सरकारी पंखे की घर्र-घर्र की आवाज… जैसे वह भी संघर्ष कर रहा हो अपने अस्तित्व की सार्थकता बनाये रखने को!

 

आखिर आरिणी ने ही चुप्पी तोड़ी.

 

“रेगुलर दवाई नहीं ले रहे न...वादा किया था जबकि तुमने कि ध्यान रखोगे अपना!”

 

“वादा तो तुमने भी किया था न कभी दूर न जाने का…..”,

 

आरव ने उलाहना दिया.

 

“मैं क्या अपने मन से दूर हुई. तुम्हीं ने मजबूर किया ….हाथ उठाया!”

 

“यह बीमारी आरिणी… पता नहीं क्या करा देती है मुझसे. कितना भी कोशिश करूं नहीं हो पाता आरिणी. जानती तो हो तुम कि तुम्हारे बिना नहीं संभाल पाता खुद को अब!”,

 

यह एक बात ऐसी थी जिसे सुनने को शायद आरिणी के कान कब से तरस रहे थे. वह कहना चाहती थी कि क्या मैं जी रही हूँ तुम्हारे बिना... बस जिन्दा ही तो हूँ, लेकिन शब्द सब कहीं गहरे धंसे थे. कितने ही दिनों से सहेजे आंसू बाँध तोड़ बह चले थे. आरव उठ कर उसके निकट बैठ गया.

 

“आरव … मैं बुरी तरह टूट चुकी हूँ. अब कैसे संभालूँ”,

 

“अब नहीं… “,

 

आंसू पौंछते हुए बोला,

 

“तुम टूट जाओगी तो मुझे कौन संभालेगा, बोलो तो?”,

 

और उसकी आँखों में झाँका.

 

“तुम नहीं टूट सकती ...मेरी अरु कभी हार नहीं मानती. अपने लिए नहीं तो मेरे लिए ...वह जरूर लड़ेगी…...जीतेगी!”,

 

आरव ने उसका चेहरा हाथों में समेटते हुए कहा.

 

माथे पर उस दिन की चोट का हल्का-सा निशान अभी भी मौजूद था. आरव ने प्यार से सहलाया,

 

“मैं क्या करूं अरु. मैं स्वयं के अधीन नहीं. क्या करता हूँ क्या कहता हूँ…. तुम मन खराब न रखो… गलती मेरी है, मुझे माफ़ कर दो!”

 

आरिणी उसके सीने से लगी बस सिसकती रही.

 

“आरव, कहीं दूर ले चलो मुझे. बस तुम और मैं, और कोई नहीं!”

 

“मैं खुद चाहता हूँ घर से बाहर निकलना अब दम घुटता है घर में … बंगलुरु से थ्री-डी ऑटोमेशन का कोर्स करना चाह रहा हूँ. तीन महीने का है. लेकिन मां तैयार नहीं.”

 

“बंगलुरु की जगह नॉएडा से कर लो तो…...मेरी पोस्टिंग भी वहीं है. साथ रह पाएंगे. इस कोर्स के बाद करियर ऑपरचुनिटी भी अच्छी है. तुम रहोगे तो मैं अलग से एक अपार्टमेन्ट भी ले लूंगी कंपनी की लीज पर”,

 

अरु ने मन की बात ऐसे रखी जैसे वह दोनों एक दूसरे से कभी अलग रहे ही न हों.

 

“जैसा तुम ठीक समझो अरु….मुझे तो अब अधिक कुछ सूझता ही नहीं. बस डर लगता है कि कहीं मेरा साथ तुम्हारे लिए घातक तो नहीं!”

 

“तुम मार देना जान से. मैं इसमें भी खुश हूँ, पर अनजाने तो न बनो… मेरे रहो बस!”,

 

आरिणी ने यूँ कस कर पकड़ा आरव के हाथ को जैसे समा लेना चाहती हो उसके पूरे अस्तित्व को खुद में … और सोचा कि काश इस पल सब ठहर जाए… सदा सदा के लिए.

 

थोड़ी देर बाद श्रीवास्तव जी और परिवार के अन्य सदस्यों के सामने अपने मन की बात बता दी थी आरिणी और आरव ने. उर्मिला जी ने आपत्ति जताई. कहा कि,

 

“... आरिणी खुद नौकरी से बंधी है वह कैसे ध्यान रखेगी आरव का. तबियत बिगड़ सकती है उसकी!”

 

“सुधरी तो अभी भी नहीं है न?”,

 

श्रीवास्तव जी ने तनिक तल्खी से कहा. फिर लहजे को नरम करते हुए बोले,

 

“एक अवसर तो दीजिये बच्चों को...जी लेने दीजिये उन्हें अपनी जिन्दगी!”,

 

उर्मिला जी को चुप होना पड़ा.

 

श्रीवास्तव जी के चैम्बर से निकलते हुए एक नया अध्याय आरम्भ हो चुका था. थोड़ी देर बाद ही दोनों पक्ष समझौते प्रपत्र और मुकदमा वापिसी की औपचारिकताओं पर अपने-अपने हस्ताक्षर कर रहे थे. इस रिश्ते की खूबसूरती अपने उत्कर्ष पर फिर से लौट चली थी. पल्लवित होते पुष्पों की सुगंध को वातावरण में महसूस किया जा सकता था.

 

“मैं नॉएडा पहुँचते ही तुम्हारे कोर्स की जानकारी भेजती हूँ”,

 

आरिणी ने आश्वस्त किया.

 

“ठीक है. मैं नेट पर भी देखता हूँ. ऑनलाइन अप्लाई करता हूँ”,

 

यह आरव था.

 

“जल्दी आना….”,

 

आरिणी बोली.

 

लगता था कि वह अब एक पल भी अलग नहीं रहना चाहती थी. देखा जाए तो प्रेम ही सबसे बड़ा संबल है स्त्री का . और वही प्रेम उसे कमजोर भी करता है. यूँ आरिणी पर जिम्मेदारी थी आरव का ध्यान रख नियमित दवाई आदि देने की लेकिन उसे लग रहा था जैसे वह बिना आरव के एक कदम भी नहीं चल सकती . ऐसी मंजिल पाने से जिसमें आरव का साथ न हो बेहतर है कि वह जीवनपर्यन्त एक यायावरी यात्रा में ही रहे.

 

अगला एक हफ्ता दोनों के लिए ही व्यस्तता का रहा. आरव की अकेडमिक एक्सीलेंस को देखते हुए उसकी एप्लीकेशन तुरंत ही एक्सेप्ट हो गयी. आने वाले दिनों में उर्मिला जरुर व्यथित रही थी लेकिन राजेश ने रोक लिया. बोले,

 

“उर्मी, अब और नहीं. यह सास-बहु के वर्चस्व और झूठे अहम् की लड़ाई नहीं है. यह आरव के अस्तित्व का प्रश्न है ….उसे खुले आसमान में उड़ने दो...गिरने दो…..सँभलने दो.”

 

“भैया, जब भी समय मिले आते रहना. शादी की शापिंग भाभी के साथ करूंगी तो मजा आएगा नहीं तो मम्मी सब ओल्ड फैशन वाली ड्रेस दिला देंगी”,

 

वर्तिका ने हँसते हुए आरव से अनुरोध किया.

 

“वो नहीं आने वाली”,

 

उर्मिला ने मुंह बनाया.

“तुम मां बनकर बुलाओगी तो जरूर आएगी…. शादी से पहले भी आती थी न? अब तो हक है तुम्हारा.

राजेश ने कहा.

“मैं जानता हूँ कि वह आएगी”,

आरव ने वर्तिका के सर पर हाथ रखते हुए कहा.

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