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बद्री नारायण: शब्दपदीयम्


बद्री नारायण: शब्दपदीयम्
पुस्तक समीक्षा- ’

बद्री नारायण हिन्दी के एकमात्र ऐसे कवि है जो उलटबांसी नुमा कविता नहीं लिखते । वे जो लिखते है वह आम पाठक भी समझ लेता है । शब्दपदीयम्’ उनका दूसरा कविता संग्रह है जो कवि ने दस वरस की तैयारी के बाद प्रस्तुत किया है, बल्कि यूं कहें कि दस बरस के धैर्य के बाद पेश किया है।

बहुत दिनों बाद देखने में आया है कि भेड़ चाल से अलग हट कर कोई कवि अपनी जातीयता की खोज में अपने आसपास की चीजों और अपने मिथकों को लगभग सच मानते हुए निर्भय होकर कह रहा है, अन्यथा अपने को प्राच्यवादी और परंपरापोषक मान लिए लाने के ख़तरे के मद्दे नजर तमाम कवि ऐसी बातें लिखने से डरते रहे ।

अपनी एक कविता ‘ सपने में काली गाय ’ में कवि लिखता है-कल मेरे सपने में आई/काली गाय/सुबह मैने स्वप्न विचारो ंसे कहा/कि इस सपने पर करो विचार/ किसी ने कहा- पृथ्वी थी ।..... किसी ने कहा-/ जब कवि अपनी पत्नियों से इतर/कइ्र लड़कियों से प्रेेम रचाते / तो कवि के सपनों में/उनकी पत्नियां/गाय बन आती है...जब दुनिया के कई हिस्सों में/एकसाथ राज बदलना होता है/तो कवियों के सपनों में गाय आती है ।

शब्दपदीयम् ’ कविता में कवि लिखता है- मैं शब्द हूं/शंकर के डमरू से निकला /और इधर-उधर बिखरा/ न जाने कब कोई इन्द्र आये/ ओर रात के तीसरे पहर/ मुझी से/ अहिल्या का दरवाजा खुलवाये........
इस संग्रह की कविताओं में कवि कुछ स्थानों पर तो अपने समाज या सोसायटी के प्रचलित स्वरूप, उसकी परंपराओं, उसके चलन, उसकी मान्यताओं को जस का तस अपनी कविताओं में लाता है, तो कूुछ कविताओं में वह इस तरह के सामाजिक प्रचलनों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता दिखता है । कुछेक स्थानों पर कवि पूरे आत्मविश्वास के साथ समाज के छल-प्रपंचों और गलत प्रचलनों के विरूद्ध तन कर खड़ा दिखाई देता है ।

बद्री नारायण हिन्दी के एकमात्र ऐसे कवि है जो उलटबांसी नुमा कविता नहीं लिखते । वे जो लिखते है वह आम पाठक भी समझ लेता है । शब्दपदीयम्’ उनका दूसरा कविता संग्रह है जो कवि ने दस वरस की तैयारी के बाद प्रस्तुत किया है, बल्कि यूं कहें कि दस बरस के धैर्य के बाद पेश किया है।

बहुत दिनों बाद देखने में आया है कि भेड़ चाल से अलग हट कर कोई कवि अपनी जातीयता की खोज में अपने आसपास की चीजों और अपने मिथकों को लगभग सच मानते हुए निर्भय होकर कह रहा है, अन्यथा अपने को प्राच्यवादी और परंपरापोषक मान लिए लाने के ख़तरे के मद्दे नजर तमाम कवि ऐसी बातें लिखने से डरते रहे ।

अपनी एक कविता ‘ सपने में काली गाय ’ में कवि लिखता है-कल मेरे सपने में आई/काली गाय/सुबह मैने स्वप्न विचारो ंसे कहा/कि इस सपने पर करो विचार/ किसी ने कहा- पृथ्वी थी ।..... किसी ने कहा-/ जब कवि अपनी पत्नियों से इतर/कइ्र लड़कियों से प्रेेम रचाते / तो कवि के सपनों में/उनकी पत्नियां/गाय बन आती है...जब दुनिया के कई हिस्सों में/एकसाथ राज बदलना होता है/तो कवियों के सपनों में गाय आती है ।

शब्दपदीयम् ’ कविता में कवि लिखता है- मैं शब्द हूं/शंकर के डमरू से निकला /और इधर-उधर बिखरा/ न जाने कब कोई इन्द्र आये/ ओर रात के तीसरे पहर/ मुझी से/ अहिल्या का दरवाजा खुलवाये........
इस संग्रह की कविताओं में कवि कुछ स्थानों पर तो अपने समाज या सोसायटी के प्रचलित स्वरूप, उसकी परंपराओं, उसके चलन, उसकी मान्यताओं को जस का तस अपनी कविताओं में लाता है, तो कूुछ कविताओं में वह इस तरह के सामाजिक प्रचलनों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता दिखता है । कुछेक स्थानों पर कवि पूरे आत्मविश्वास के साथ समाज के छल-प्रपंचों और गलत प्रचलनों के विरूद्ध तन कर खड़ा दिखाई देता है ।