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दिल्ली वाले चाचा

किशोरावस्था की कहानीयाँ :

दिल्ली वाले चाचा

अजय और अभय को बड़ा दुःख हो रहा था कि वे आज स्कुल क्यों चले गये ? एक दिन न भी जाते तो क्या बिगड़ जाता ? जिस वक्त वे दोनो स्कुल में थे, ठीक उसी वक्त उनके यहाँ दिल्ली वाले चाचा आये थे। स्कुल तो रोज-रोज जा सकते हैं, पर दिल्ली वाले चाचा थोड़ी रोज-रोज आते हैं। वे तो साल भर में कभी एक बार आते है, और आते ही अजय-अभय से मिलने जरूर पहुँचते हैं।

यूं दिल्ली वाले चाचा इन दोनो के सगे चाचा नही हैं, पर वे इन दोनों को इतना प्यार करते हैं कि कहा नही जा सकता। अजय-अभय के पापा की मृत्यु पांच साल पहले हो गई थी, तो घर में कोहराम मच गया था घर में उत्तर साल के बुढ़े दादाजी के अलावा कोई दुसरा आदमी न था। जिसका सहारा कहा जा सकता हो। उन दोनो भाईयों के अलावा मम्मी और छोटी बहन पृता की देखभाल का जिम्मा भी उनके बूढ़े दादाजी के जिम्मे आ गया था। तब तार पाकर दिल्ली वाले चाचा कस्बे में आये थे। रोते-रोते उन्होने अजय-अभय को सीने से लगा लिया था। बाद में जाते वक्त दादाजी से बोले थे “ कोई जरूरत लगे तो आप मुझे लिख देना में तुरन्त भेजुंगा। भैया की कमी महसुस नही होगी” आपको। दादाजी के एक छोटे भाई के तीन बेटे हैं, तीनो इस मोहल्ले में रहते हैं। दादाजी के तीसरे भाई के इकलौते बेटे दिल्ली वाले चाचा हैं।

वे दोनो स्कुल से लौटे तो छोटी बहन ने बताया कि दिल्ली वाले चाचा आये थे। आॅगन में घंटा भर तक बैठे रहे, और मम्मी से सब लागो के हाल चाल पुछते रहे। दादाजी से भी कहते रहे कि आप इलाज कराने दिल्ली चलो। पर दादाजी न माने और हमेषा की तरह यही कहते रहे कि मुझे क्या हुआ, मैं तो भला चंगा हुं। मेरे सामने से मेरा जवाब बेटा चला गया तब मुझे कुछ नहीं हुआ, अब क्या होगा। मैं तो अमरफल खाकर आया हुं।

जब पृता ने उन दोनो के हिस्से की गजक लाकर उन्हे दी तो गजक खाते हुये उन्हे चाचाजी की खुब याद आई। चाचाजी जब भी आते हैं सफेद तिली की गजक ज़रूर लाते हैं। अजय बोला-“अभय अपन लोग ऐसा करते है कि चाचा के यहां चलकर दिल्ली वाले चाचा से मिल आते हैं। वहां ज्यादा देर तक रूकेंगे, बस पाँव छुकर लौट आयेगे।”

यह सुनकर उदास बैठा अभय बोला ” नही भैया अपन लोग वहां नही चलेंगे, काका जब भी हमको जब भी देखते हैं, गंभीर हो जाते हैं वैसे चाहे हस रहे हों पर हमारे पहुंचते ही उनकी हंसी गायब हो जाती हैं। मुझे ये कतई अच्छा नही लगता। वे लोग अपने को शायद मनहुस समझते हैं, तभी तो कभी हंस के नही बोलते।”

दोनो की बाते मम्मी सुन रही थी उन्होने अभय को डांटा “ हट पगले ! क्या उलटी सुलटी बातें सोचता है। काका जब भी तुम्हे देखते है उन्हे तुम्हारे पापा की याद आ जाती होगी, इसलिये चुप हो जाते है।”

“ तो मम्मी हम क्या करें ? आप ही बताओं। हमारे हटते ही काका फिर हंसी मजाक करने लगते हैं। इसलिये हमको तो यह बहुत बुरा लगता है कि कोई हमें देखकर रोने जैसा मुंह बना ले। हमें अपना अपमान लगता है” अभय ने मम्मी को अपने मन की बात बता दी।

मम्मी ने अनुभव किया कि दोनों बच्चे जबसे दसवी क्लास में पहुंचे है समझदारी की बाते करने लगे हैं। बड़े स्वाभीमानी हो गये है दोनो, हालांकि अजय अभी पन्द्रह साल का होगा और अजय मुष्किल से तेरह साला का। वे कुछ सोच ही रही थी कि बैठक में लेटे दादाजी ने वही से उन दोनो से पुछा कि अगर वे दोनों दिल्ली वाले चाचाजी से मिलना चाहते है तो में चला चलता हुं। पर अजय अभय कुछ न बोले। दादाजी तो उठकर अपना भी संभालने लगे थे पर अभय ने उनसे भी मना कर दिया।

मम्मी ने देखा कि दोनों बच्चे उदास से हैं, तो वे बोली -“ तुम लोग यहां बैठे बैठे अपने स्वाभिमान की बाते सोच रहे हो और उधर दिल्ली वाले चाचा सोच रहे होंगे कि इन दोनों को बड़ा घमंड आ गया, मेरा पता लग जाने के बाद भी मिलने नही आये।

अब अभय को भी लगा कि उन्हे मिलने जाना चाहिए। उसने अजय को राजी कर लिया और वे दोनो काका के यहां चल पड़े। करकर के यहां दिल्ली वाले चाचा नही थे, तो निराष से होकर वे लोग दूसरे चाचा के यहां चले गये। बैठक के किवाड़ खुले थे और दूर से ही दिख रहा था कि सब चाचा एक साथ बैठे हैं। सबके हाथों में तस्तरियां थीं, जिनमें हलवा और जलेबी रखे थे। अजय-अभय दरवाजे तक पहुंचे तो उन्हे देखते ही दिल्ली वाले चाचा खुष हो गये “ आओ बेटा ”

आगे बढ़कर चाचा के पांव छूते उन दोनों ने महसूस किया कि चाची भीतर से आई हैं ओर हलवा की भगोनी तथा जलेबी की टाट उठाके तेजी से भीतर चली गई। एक एक करके बाकी चाचाओं ने अपनी प्लेट उनकी ओर बढ़ाई लो नाष्ता कर लो।

जूठा खाना तो उन्होने सीखा ही न था, और यहां वे कुछ खाने थोड़ी आये थे, वे तो दिल्ली वाले चाचा से मिलने आये थे। उन्हे यह भी लगा कि उन्हे देखकर सब लोग सीरियस और चुप हो गये हैं ..... उन दोनो को लगा कि यह उन दोनो का अपमान है। आंखो से उन्होने एक दुसरे को संकेत किया और झटके से वे उठे तथा बाहर चले आये। उनकी इच्छा थी कि हर बार की तरह वे दिल्ली वाले चाचा से बतियांएगे और अपनी डिवीजन के लिये चाचा की शाबासी भी पायेंगे। वे सिर्फ शाबासी ही चाहते हैं..... और कुछ लेने की तो उनकी इच्छा कभी नही रही। उनके फस्र्ट आने का पुरूस्कार तो दादाजी हर साल दे देते हैं - जलेबियां मंगाकर। हां जलेबी उन दोनो की प्रिय मिठाई है और जलेबी वे साल में सिर्फ एक बार उसी दिन खाते हैं जब रिजल्ट आता हैं।

चलते वक्त अजय ने दिल्ली वाले चाचा की आंख में झांका था तो उसे लगा चाचा के दिल में उफनता प्यार आंखो में लहराता दिखाई दे रहा है, पर वे स्पष्ट कुछ नही कह पा रहा हैं। घर लौटते अजय और अभय एक बार फिर उदास थे। उन्हे लग रहा था कि उन्हें चाचा से मिलने जाना ही नही चाहिये था। कभी कभी मम्मी उन दोनो को टोंकती भी थी कि तुम दोनों अभी बिल्ले भर के तो और मान अपमान की बड़ी बड़ी बाते सोचते रहते हो, पर उन्हे लगता है कि पापा की मृत्यु के बाद उन्हे इसी ढ़ंग से सोचना चाहिये। क्योंकि घा और मोहल्ले के लोग उनके परिवार को हमेषा ही दया की नज़र से देखने लगे हैं। सबको यह भय भी लगा रहता है कि अजय-अभय कुछ मांग न ले। पर जबसे अजय-अभय जब थोड़ा जानने समझने लगे हैं, वे कभी किसी से कोई सहायता नही मांगते। उन्हे पता है कि घर में अब आय का इकलौता जरिया वो पेन्षन है जो पापा की मौत के बाद मम्मी को मिलती है। उस जरा सी पेन्षन में तो दाल रोटी भी नही खा सकते थे, पर दादाजी ने अपनी पुरानी खेती पर ध्यान देना शुरू कर दिया था, फसल के वक्त घर में थोड़ा सा गेहूँ और ढ़ेर सारी ज्वार आ जाती है। उनके घर में गेहँू की रोटी तो सिर्फ उस दिन बनती है जब काई त्योहार हो या घर में कोई मेहमान आ जाये, नही तो रोज़ रोज़ ज्वार की ही रोटी ही बनती है उनके घर में। ज्वार के आटे मे नमक नही डाला जाता इस वजह से ये रोट कुछ स्वादिष्ट तो नही लगती पर उन सबको आदत पढ़ गई है उसी से पेट भरने की, सो वे लोग चुपचाप रोटी खाके अपने घर पड़ रहते है, कभी किसी के यहां नही जाते। पर जब भी वे किसी के यहां काम से पहुंचते हैं, यह भली प्रकार अनुभव कर चुके है कि उन्हे देखकर खाने पीने की चीजे छुपा दी जाती हैं। त्यौहारों के दिन भी बिना पूछे चाचा कहने लगती हैं कि हमने कोई पकवान नही बनाये। यह सुनकर चाची की बेवकुफी पर अजय अभय को गुस्सा भी आता है और म नही मन हंसी भी, वे कोई खाना मांगने थोड़े आये हैं।

घर पहुँचकर अभय ने मम्मी को सारी बात बता दी तो वे समझाने लगी कि दिल्ली वाले चाचा के मन में तो तुम सब के लिये प्यार है न। तुम्हे बाकी लोगो से क्या लेना ? फिर मम्मी ने कहा कि दिल्ली वाले चाचा को गेहूँ और चना को उबाल के बनाई गई “घूंघरी” बड़ी प्रिय है, में बनाये देती हुं तुम किसी तरह उन्हे खिलाने आना। मम्मी घूंघरी बनाने में जुट गई तो वे दोनों होेमवर्क करने लगे।

रात को दिल्ली वाले चाचा के पास जाने का वे ताहत नही जुटा सके तो उन्होने तय किया कि सुबह पांच बजे जब चाचा ट्रेन से दिल्ली के लिये जा रहे तो वे लोग स्टेषन पर पहुंचकर चाचा को घूंघरी का डिब्बा भेंट कर देंगे। अपने कस्बे की प्रिय चीज़ खाकर चाचा सचमुच बहुत खुष होंगे। इसी निर्णय के साथ वे दोनो सो गये।

तब अंधेरा था, व सुबह उजाला ठीक से फैला भी न था कि मम्मी ने उन्हे जगाया और स्टेषन जाने की याद दिलाई। व दोनों झटपट तैयार हुये और घूंघरी स्टील का डिब्बा हाथ में लेकर स्टेषन की ओर दौड़ लगा दी।

उन्होने पूरे स्टेषन पर घूम फिर के तलाष कर लिया। चाचा कही नही दिखे यानी कि वे अभी स्टेषन नही आये। स्टेषन की एक बैंच पर बैठ के दोनों चाचाजी का इंतजार करने लगे।

अजय अभय को पहले इस बात का बड़ा आष्चर्य था कि दिल्ली वाले चाचा उन दोनोे के प्रति इतनी सहानुभुति क्यों रखते हैं ? पर बाद में मम्मी ने बताया कि बचपन में दिल्ली वाले चाचा कि मम्मी एकाएक खत्म हो गई थी और उन्होने भी वह कष्ट भोगा था जो बिना मां बाप के बच्चे को भोगना पड़ता हैं। पापा के पिता शुरू से अलमस्त आदमी थे उन्हे न तो बच्चो से कोई प्यार था और न बच्चो कि चिंता, इसलिये पिता का होना न होना चाचा के लिये बराबर था। चाचा ले खुब मेहनत की और खुब पढ़े लिखे। आज वे दिल्ली में खुब बड़े अफसर हैं, एक बड़ी कोठी भी बना ली है। घर में एक कार और दो स्कुटर हैं। पर उन्हे नाम का भी घमण्ड नही है। दिल्ली वाली चाची और उनके बच्चे भी चाचा जैसे सादे ढ़ग से रहने वाले लोग हैं अपने बचपन के कष्टो को याद करके शायद चाचा अजय अभय के प्रति सहानुभुति रखते हैं। अजय अभय तो चाचा के प्रति कुछ ज्यादा नही कर पाते। उनका घर टुटा फुटा और खपरैल है, यहां ठहरने की जगह भी चाचा और उनके परिवार के लायक नही है। फिर रसोई घर में राषन भी पूरा कहां रहता है कि स्वादिष्ट भोजन बन सके। इसलिये अजय अभय दिल्ली वाले चाचा के पांव छूकर ही अपना आदर और सम्मान प्रकट कर देते हैं।

यकायक अजय ने अभय को टोका। दिल्ली वाले चाचा और चाची स्टेषन पर आ चुके थे। उनके साथ दुसरे चाचा लोग भी थे। अजय अभय उठे और चाचा के पास जा पहुंचे। उनको स्टेषन पर देख सबको बड़ा विष्मय हुआ। अजय बोला-“चाचा, इस डिब्बे में मम्मी ने घूंघरी बनाकर भेजी हैं, आपको बहुत पसंद हैं न सफर में भूख लगे तो खा लेना।”

चाचा ने मुस्कुराते हुये उनके हाथ से डिब्बा लिया और झुकते हुये बोले-“तुम लोग को चाचा से कितना प्यार है अब समझ में आया।”

यह सुनकर वे दोनों पुलकित हो उठे। दिल्ली वाले चाचा ने जेब में हाथ डाला और सौ का नोट निकाला। वह नोट उन दोनों की तरफ बढ़ाते हुये बोले -“लो इन रूपयों से तुम मिठाई ले लेना।”

नही चाचा हमें कुछ नही चाहिए बस आपका प्यार और आषिर्वाद दीजिये, हमें दोनो ने एक स्वा में कहा और फुर्ती से उनके पांव छूकर वहां से चल दिये।