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वो भारत! है कहाँ मेरा? 8

वो भारत! है कहाँ मेरा? 8

(काव्य संकलन)

सत्यमेव जयते

समर्पण

मानव अवनी के,

चिंतन शील मनीषियों के,

कर कमलों में, सादर।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

दो शब्द-

आज मानव संवेदनाओं का यह दौर बड़ा ही भयावह है। इस समय मानव त्राशदी चरम सीमा पर चल रही है। मानवता की गमगीनता चारों तरफ बोल रहीं है जहां मानव चिंतन उस विगत परिवेश को तलासता दिख रहा है,जिंसमें मानव-मानव होकर एक सुखद संसार में जीवन जीता था,उसी परिवेश को तलासने में यह काव्य संकलन-वो भारत है कहाँ मेरा । इन्हीं आशाओं के लिए इस संकलन की रचनाऐं आप सभी के चिंतन को एक नए मुकाम की ओर ले जाऐंगी यही मेरा विश्वास है।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

36.जीवन साथी-विना

जग में,जीवन-साथी के विना,जीवन का सहारा कोई नहीं।

जीना मुष्किल,होता पलपल,सजनीं-सा किनारा कोई नहीं।।

आमद पर निगाहैं सब रखते,पैसा के विना,जग कोई नहीं।

मनमस्त ये जीवन दरिया को,मिलता न सहारा कोई कहीं।।1।।

मुष्किल से बुढ़ापा कटता है,यौवन के दिन तो कट जाते।

इससे-उससे कई गप्प लड़ा,तूफां नहीं आता,कोई कहीं।।2।।

साथी का किनारा पाते ही,ज्वारों के समंदर घट जाते।

भूलैंगे बुढ़ापे की हस्ती,मनमस्त को ऐसा ज्ञात नहीं।।3।।

घर तो,गृहणी ही होता है,उसके बिन,गृह कुछ और गिने।

इज्जत का साया है गृहणी,जिम वृक्ष की पात से बात बने।।4।।

घर बाहर सुहाना उसी से लगे,उससे संसार सुहाना सही।

काहे पर इत्ते मनमस्त तने,घर की,वर की,सोभा तो वही।।5।।

संसार का सार,उसी में छिपा,उससे संसार हरा है,भरा।

सृष्टि की अनूठी,वही रचना,रचने वाला भी,उसी से तरा।।6।।

उसके तो विना,सपना जग है,सपने का बगीचा,वही है हरा।

सच मानो जहाँ में विना उसके,दुनियां मनमस्त रहेगी नहीं।।7।।

37. ओ मानव!

तुम तो जिन्दा जिन्द,मगर नहीं कुछ बन पाए,

पत्थर से बन गए,कई भगवान,यहाँ पर।

अपना कर्म संभालों,आंख में पानी लाओ,

तुम तो मानव हो,सोए क्यों नींद अघाकर।।

जगती में जीवन पाकर,दस्तूर निभालो,

उस ईश्वर ने,कहो तुम्हें किस लिए बनाया।

समझो!तुम में कितने,कैसे रंग भर दए,

नौं महिनों तक,तुमको क्या-क्या नहीं पढ़ाया।।

पर ऐसा क्या हुआ?,भूल गए सभी,यहाँ पर,

क्या-क्या भखते रहे,न जाने,क्या-क्या बकते।

सुन्दर-सी,यहषक्ल,करी बदनाम तुम्हीं ने,

इन नयनों से,आज न जाने,क्या-क्या तकते।।

तुमने ही जो गढ़े संग,भगवान हो गए,

अपने कर्मों से तुम ही,हैवान कहाते।

कुछ तो सोचो!अभी समय ज्यांदा नहिं गुजरा,

बदलो अपनी चाल,तुम्हें मनमस्त समझाते।।

यह काया अनमोल,टकों में बेच रहें क्यों?

हीरा,पन्ना इसे समझ,भूलो नहिं प्यारे।

लख चैरासी बाद,बड़ी मुष्किल से पाया,

यह मोती अनमोल,खोजते बहुजन हारे।।

38.गरीबी रथ

तुम्हें कहाँ मालूम,कि कितने पैरों छाले,

तब रथ खींचा सदां,सदां ही नंगे,पथ पर।

तुम्हीं बैठते रहे,सदां ही,सदां-सदां से,

विवस गरीबों और गरीबी जीवन रथ पर।।

कितना ढोया तुम्हें,खून का पानी करके,

पेट-पीठ कर एक,किए उपावास हजारों।

रात दिनाकर एक,सौंपकर तुमको सबकुछ,

दौडे नंगे पैर,बिठाए तुमको कारों।।

अब-भी,दल रहे मूंग,बैठ नंगी छाती पर,

तुमको तोरण-द्वार,गरीबी कुचली जाती।

धरती पर नहीं पैर,उड़ रहे हो,अंबर में,

ढोते जीवन बोझ,हमारी पींठ दुखाती।।

कबतक,कितने और अॅंधेरो में रक्खोगे?

मजबूरी है,मगर सभी कुछ,समझ रहे हैं।

हमें रौंदते रहे,हमारे ही इस रथ से,

अंधे-बहरे नहीं,कदम अब बहक रहे हैं।।

अब-भी लौट जाओ जालिम!अपनी धरती पर,

ऐ नाटक,नौटंकी करदो बन्द,सुन रहे।

बरना-यूं लगता,कुछ भी है,होने बाला,

बहक रहे हैं कदम,हाथ कुछ करने,उठ रहे।।

39.अमर शहीद

न भूलो,ओ भारतवासी, शहादत अमर वाणी है।

देश आजाद करने में,शहीदों की कहानी है।।

भुलायीं जा नहीं सकती,अनेकों दास्तानें हैं।

गुलामी के सफर झेले,गवांयीं कई जानें हैं।

दिल से,सच बयां करते,शहीदों की र-वानी है।।1।।

भगतसिंह,चन्द्रषेखर ने,दयीं कुर्वानियां हॅंसते।

राजगुरू,नहीं हठे पथ से,सुखदेव मौत संग नचते।

डरा नहीं पांयी थी सूलीं,यही वीरों की षानी है।।2।।

लाला लाजपत,लक्ष्मी,अमर,कुर्बानियां देकर।

शहादत-वोस की अनुपम,उऋण भए,सभी कुछ देकर।

यादें असफाक,विस्मिल कीं,सभी के मॅुह-जवानी है।।3।।

शचीन्द्र,सन्याल की थाथी,चटर्जी ने सभाली थी।

रोशन,लाहिड़ी,लाहा,शहादत-दत्त,जहानी थी।

घोषणा-घोष की जाहिर,मस्त मनमस्त वाणी है।।4।।

आज भी है षहीदी ऋण,आज को ही चुकाना है।

वो सीमा टेरतीं लगतीं,लाना आंख-पानी हैं।

अमर मनमस्त बन जाओं,कसम तुमको भी खानी है।।5।।

40.काए भरत उसांसे कक्का!

काए भरत उसांसें कक्का,नहीं मानी,अब काए तरसते।

खूब गरजते हैं जो बदरा,नहिं जानत?वे नहीं बरसते।।

दिखा हौंसले तीर कमानी,साध गदा-बजरंग बली की।

आसमान से बातें करते,अब रस्ता गही,सकर गली की।

बन बैठ यहाँ मौनी बाबा,बे डींगों के,कहाँ हैं बस्ते।।1।।

मूंछें ऐंठीं कोरीं-कोरीं,लगतीं,उनकी नकली मूंछे।

दो कौड़ी की रही न कीमत,हाट उठे पै,कोऊ न पूंछे।

होत चांदनी चार दिना की,फिर अॅंधियारी रात,बरतते।।2।।

अच्छे दिन आने की कहके,

अब शकुनी की चालैं चलते।

बांह चढ़ाकर,टाल ठोकते,अब काहे,हाथों को मलते।

समुझे थे नानी की कहानी,राजनीति के कर्रे रस्ते।।3।।

छूमंतर मॅंहगाई करदैं,कहते आज,खजाना खाली।

झूंठ घोषणांऐं मामा कीं,नाना के वादे हैं जाली।

अब काहे,वे-शर्मी लादी,समुझे थे,सौदे हैं सस्ते।।4।।

क्यों आंखें मींची सीमा पर,षरहद कटे शीश,क्या लौटे।

छिनी चॅंदरिया भारत माँ की,कितनी और सहैं अब चैटें।

चीन पाक से यही दोस्ती?,रेल किराए,कर दए सस्ते?।।5।।

आंगन,अबै सूख नहिं पाओ,तुमने फिर फैलादी कीचड़।

सांई,राम,अयोध्या,हिन्दू,और हिन्द के गहरे बीहड़।

हरित-क्रान्ति,सूखे में बदली,कैसे-कैसे कक्का रस्ते।।6।।

तब तो सबयी बनत ते बेटा,अब कक्का बन बैठे सबरे।

आनि लगाते थे शहीदों की,कौल धराए,ऊॅंचे सबरे।

गंगा की आरती उतारी,बन कर सांप,आज क्यों डसते।।7।।

तब कहते हमको अजमाँ लो,एक बार अवसर देकर के।

चाल-ढाल सब,अवयीं बदल गए,कटिहैं पांच वर्ष का करके।

खूब करीं नौटंकी-नाटक,सबै खरीदे मॅंहगे-सस्ते।।8।।

खाल ओढ़कर के षेरों की,स्यारों ने हुड़दंग मचाया।

बक बैठे हंसों की गद्यी,गदहा राग,अलाप सुनाया।

बैरागी भए सिंह,माँद से,ताक रहे अपने गुल दष्ते।।9।।

सोच लेऊ अब का कन्नौ हैं,तुम हो बरद पुत्र वाणी के।

पूत पालने पांव दिख रहे,क्या निष्कर्ष मिलैं कहानी के?

डगर-मगर भारत की नइया,तुमयीं संभालो,करत नमस्ते।।10।।