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वो भारत! है कहाँ मेरा? 10

वो भारत! है कहाँ मेरा? 10

(काव्य संकलन)

सत्यमेव जयते

समर्पण

मानव अवनी के,

चिंतन शील मनीषियों के,

कर कमलों में, सादर।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

दो शब्द-

आज मानव संवेदनाओं का यह दौर बड़ा ही भयावह है। इस समय मानव त्राशदी चरम सीमा पर चल रही है। मानवता की गमगीनता चारों तरफ बोल रहीं है जहां मानव चिंतन उस विगत परिवेश को तलासता दिख रहा है,जिंसमें मानव-मानव होकर एक सुखद संसार में जीवन जीता था,उसी परिवेश को तलासने में यह काव्य संकलन-वो भारत है कहाँ मेरा । इन्हीं आशाओं के लिए इस संकलन की रचनाऐं आप सभी के चिंतन को एक नए मुकाम की ओर ले जाऐंगी यही मेरा विश्वास है।

वेदराम प्रजापति

‘‘मनमस्त’’

46. बीते पल

मैंने सोचा,बीते पल वे,नहीं कामके,नहीं छुआ।

पर जीवन का,सारा रस्ता,उनसे ही तो,पार हुआ।।

सोते-जगते,चलते-फिरते,आगे-पीछे बने रहे।

जीवन के हर मोड़-सोड़ पर,किस्से भी,अनकहें कहे।

जब-जब,पग में कंपन आई,उनसे ही,मजबूत हुआ।।1।।

भुला दिया था उन्हें,न जाने-छुपे रहे,किस कौने में।

आकुल था,ना जाने कैसा,दर्द छुपा था,छूने में।

खूब भुलाया,पर नहीं भूले,उनसे गहरा प्यार हुआ।।2।।

जब-जब चाहा उन्हें भुलाना,वे नजदीकी आते थे।

जीवन की,अनकहीं-कहानी,आकर रोज सुनाते थे।

नई-पुरानी सारी यादें,उनसे सुनते भोर हुआ।।3।।

सही सलामत निकले सारे,ज्यौं बक्षे में रखे हुए।

नहीं मुड़ा था कोई कोना,लगा किसी ने,नहीं छुए।

एक-एक,सब कामें आए,मनका मन,मनमस्त हुआ।।4।।

दुनियां बालों!याद रखो अब,यादें रहतीं,यादों में।

जीवन का हर पल मिलता है,जीवन के हर वादों में।

बोल रहे थे,सारे पल-क्षण,जैसे-आश्रम-पढ़ा, सुआ।।5।।

47.पावन चरणों को

तुमने ही,जो गढ़े संग,भगवान कहाऐ।

तुम,मानव होकर-भी इंशान न बनने पाए।।

अपऐ पसीने को नहिं समझा,बात खेद की।

क्या भूले-ही,कभी ऋचाऐं,पढ़ी वेद की।

उसकी गहरी पीर,पीर के,पीर न बनने पाऐ।।1।।

कैसा जीवन जिया,लखा नहिं,लाखों-लाखों।

चिंतन के,वे स्वप्न,आज हैं बन्द,शलाखों।

उनके विवष-अष्क के,अबतक, अश्क न बनने पाऐ।।2।।

उनके खून-पसीनों कीं,तुम करीं चोरियां।

झूंठे वादे,आश्वासन कीं,गाईं लोरियां।

पर,उनके-उस मूंक रुदन का,साथ न दे भी पाए।।3।।

जीता है मनमस्त,रात-दिन,इसी सोच में।

बनना उनका मीत,कभी-क्या रहा,सोच में।

गर्म-गर्म उनके अश्कों के,नीर न,बनने पाऐ।।4।।

चैन नहीं है,हर जीवन है,इसी फिकर में।

रहा कसकता,यही सोच,मनमस्त जिगर में।

उनके,उन पावन चरणों को,अब तक नहीं धो पाए।।5।।

48.सेवा-भाव

सुनो !माँ-बाप ही,सच में,सही मेहमान होते हैं।

उन्हीं की,नित करो सेवा,वे ही,भगवान,होते हैं।।

उन्हें सम्मान की चाहत,जो जीवन दान देती है।

तुम्हारे प्यार की भाषा,नइया-आप खेती है।

इस समय,भूलना उनको,बड़ा अभिषाप है प्यारे-

तुम्हे-गर-प्यार दौलत से,तो उनके प्राण रोते हैं।।1।।

बुढ़ापा आ गया-उनपर,सहारा चाहिए उनको।

तुम्हारी आस पर जिंदे,बुढ़ापा लगा है घुन जो।

यतन ऐसे करो नित-प्रति,उन्हें अवसाद,ना होवै-

नहीं तो,वे अकेले में भी,जी-भर,खूब रोते हैं।।2।।

जरुरत है उन्हें इतनी,कि उनके पास में रहना।

सभी तीरथ,उन्हीं में हैं,इसे ही ध्यान में रखना।

नहीं सोचा कभी उनने,कि बेटे,दूर होबैंगे-

चाहत,आखिरी उनकी,तुम्हारी गोद होते हैं।।3।।

इसलिए साथ में रहना, आशीर्वाद पाओगे।

खुषी की,जिंदगी जीकर,सदां दूधों नहाओगे।

समझ लेना,यही तो है,जहाँ में,स्वर्ग अरु जन्नत-

तुम्हें इतिहास गाऐगा,सही वे राम होते हैं।।4।।

हिन्द की है यही संस्कृति,जो जीवन दान देती है।

बुजुर्गों की यही सेवा,सदां-स्वाभिमान देती है।

सपूतों का,यही पथ है,करैं माँ-बाप की सेवा-

जीवन धन्य होता है,वे ही,मनमस्त होते है।।5।।

49.धरा का ऋणी

यह धरा है,कुमकुमे-सौरभ सुहाने प्यार सी।

दैव-दुर्लभ,तपो-भूमि,ब्रह्म के उपहार सी।

कई सरिता यहाँ कलोलित,हर घड़ी पर वह रहीं-

जो हमें जीवन-सी भाती,जान्हवी अवतार सी।।

परम पावन तट इन्हीं के,कई मनोरम धाम है।

जहाँ अनादि,अगम,अच्युत,जग रचेता बाम है।

मृदु,मनोरम,रज यहाँ की,चित्रकूटि धाम सी-

रमन रेती,ब्रजधरावत्,ब्राजते जहाँ ष्याम है।।

भागवत जहाँ नित्य होतीं, श्याम सुन्दर श्याम की।

बट रहा अनमोल अमृत,लूट करले नाम की।

माँ यषोदा के कन्हैया,जहाँ किलकते,खेलते-

झांखले मन,झांखियां वहाँ,कौशला के राम की।।

बहुत सोली,अब चितोले,चल शिवा- शिव धाम पर।

अब नहीं देरी लगा,तूं कर भरोसा नाम पर।

होयगी भव-पार निश्चय ,नाव-विन पतवार के-

वे विधाता हैं जगत के,विजय की जिन,काम पर।।

मोक्ष करने,परीक्षत की,आगए हैं शुक यहाँ।

बरस रहा है ज्ञान अमृत,तुम भटकती हो कहाँ।

चल पड़ो,देरी कोरोना,समय रुकता है नहीं-

मातृ-भू,मनमस्त होकर,ज्ञान-गंगा में नहा।।

चेत जा चित,ओ! चितोली,चिर,अमर हो जाऐगी।

भटकती क्यों?भव-व्यथा में,चेतना कब आऐगी।

चेत गए तेरे पड़ौसी,सत्य मार्ग चल रहे-

रह गई,पीछे सभी-से,क्या’किसे,समुझायेगी।।

ले-चुकाले,ऋण यहाँ का,चढ़ा-उतरा घाटियां।

क्षीर पीया,नीर पिया,खूब खायीं,माँटियां।

षट रसों के स्वाद चाखे,याद कर ले,आज-भी-

ऋणी है तॅू,इस धरा का,पेट भर लीं,बाटियां।।

विगत को,अब याद कर ले,फिर समय नहिं आयेगा।

चाल तेरी यदि रही यौं,अवश्य भटका जाऐगा।

चाल-ढालों को बदल ले,समय को पहचान कर-

है यही मनमस्त अवनी,सहज ही तर जाऐगा।।

50.न जाने क्यों-

न जाने क्यों हमें फिर से,पुरानी याद है आई।

घरौंदे माँटी के हम ही,बनाते और सजाते थे।

न षरहद थीं,न दीवारैं,खुला आकाश पाते थे।

उसी चन्दन-सी माँटी की,वो खुषबू याद है आई।।

तप्तीं थीं दोपहरीं अरु,ये नदियों के किनारे तक।

यही बट वृक्ष देता था,कितनों को सहारा तब।

न पूंछा,हिन्दु हो,मुस्लिम,न पूंछा शिक्ख-ईसाई।।

जो खेले खेल गलियों में,फिर से याद आते हैं।

वो नदियों के किनारे-भी,हमको फिर बुलाते हैं।

जहाँ अन-गिन पियासों ने,युगों की तृप्ति हो पाई।।

पड़े पैरों में भी छाले-मगर हम,हार नहीं मानी।

सूखे रेगिस्तानों में,निकाला रेत से पानी।

आंधी अरु बबंडर से,कभी नहीं,मात है खाई।।