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एकलव्य 19 - अंतिम भाग

19 श्रीकृष्णा के अवसान में....

वेणु जीवन भर से धनुर्विद्या के सतत् अभ्यास में लगी रही थीं और अब भी वे उसी तन्मयता से अपना दैनिक नियम पूरा करती थीं।

एक दिन उनके पुत्र निषादराज पारस ने पूछा , “माताजी, अभ्यास से कभी आपका मन नहीं भरा ?आप तो इस विद्या में बहुत आगे निकल गई है ।”

“नहीं वत्स, मैं तो इस विद्या की साधारण छात्रा हूँ और छात्र-छात्राओं के लिए अभ्यास जीवन का क्रम कहलाता है। हां मैंने यह तय किया है कि जिस दिन मैं अपने सपनों को तुम्हारे माध्यम से साकार कर सकूँगी, उसी दिन मेरे अभ्यास को इससे विराम मिल सकेगा।”

“माताजी मुझसे आपने कौनसा सपना साकार नहीं किया है। आपने मुझे, किसी भी व्यक्ति को धनुष बाणों की सहायता से कैद करना सिखा दिया है। यह तो संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहलाने वाला महाबली अर्जुन भी नहीं कर पाता होगा।”

’वत्स, उस अर्जुन का नाम क्यों लेते हो ? तुम्हें अपनी तुलना करना है तो अपने पिता जी से करके देखो। तुम अभी भी उनके समान धनुर्धर नहीं बन सके हो। मैं तो तुम्हें उस दिन मान जाऊँगी जिस दिन तुम अर्जुन को धनुर्विद्या के पराक्रम से कैद करके मेरे समक्ष उपस्थित कर दोगे।”

“माताजी मैं इसी प्रयास में लगा हूँ। हमारे कुशल गुप्तचर ने समाचार दिया है कि मेरा छोटा भाई विजय अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिये दारुकावन (प्रभाश क्षेत्र) में ही निवास कर रहा है ।.......और अर्जुन इन दिनों द्वारिकापुरी के लिये गये हैं।”

“वहां किस लिये वत्स ?”

“कारण तो अभी ज्ञात नहीं हो सका। वैसे भी वे श्री कृष्ण से मिलने के लिये प्रायः द्वारिकापुरी जाते आते रहते हैं। अब तो मैंने सोच लिया है.......।” पारस ने अधूरा उत्तर दिया ।

“क्या सोच लिया है वत्स ?” वेणु ने पूछा ।

“जब भी अर्जुन द्वारिकापुरी से वापस आयें। रास्ते में उन्हें कहीं भी कैद करने की योजना है।” पारस ने मन की बात कही ।.......... और माताजी को समझाना चाहा-

एक बार उन्हें यथार्थ का बोध करा देना होगां। जिसमें उन्हें यह ज्ञात हो सके कि उनके अतिरिक्त भी इस धरती पर कोई और भी धनुर्धर और गदाधर है।”

यह सुनकर राजमाता वेणु ने उत्सुकता व्यक्त की, ‘‘वे किस पथ से हस्तिनापुर वापस आते हैं ?”

“माता जी, हमारे गुप्तचर का कहना है कि वे हमेशा ही पंचनद अर्थात पांचाल होते हुये लौटते हैं। मैं सोचता हूँ वहां ही उन्हें कैद करके आप के समक्ष उपस्थित कर दूँ। आप बाद में सेना लेकर पंचनद आयें और मैं तो इसी समय पंचनद के लिये प्रस्थान कर रहा हॅूं । ’’

पंचनद क्षेत्र में आमीर जाति के भील लोग निवास करते हैं। वे सभी धनुर्विद्या में निपुण हैं। निषादराज पारस वहां पहले ही पहुँच गया। उसने वहां पहुँचकर वहां के लोगों को अर्जुन पर आक्रमण करने के लिये प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया।

वेणु, सेना के साथ पंचनद में पहुँच गई और अर्जुन के पांचाल आ पहुंचने वाली तिथि पूर्णिमा की प्रतिक्षा करने लगे।

अंततः पूर्णिमा दिन आया ।

000

सूर्य ढलने का समय हो आया था।

द्वारिकापुरी से लौटते अर्जुन को पंचनद के सुन्दर सरोवर की झांकी ,दिखाई पड़ी तो वे वहां की प्राकृतिक सुंदरता पर मुग्ध हो उठे। वैसे भी उनका सार्थ बहुत बड़ा था जिसमें द्वारिकापुरी से आई हजारों स्त्रियां सम्मिलित थीं, समूह में अधिकांश विधवायें थीं, कुछ गर्भवती और अनेक वृद्धाऐं । कुछ बालक और वृद्ध व्यक्ति भी उनके साथ थे। उन्हे लगा- इतने बड़े समूह के साथ किसी उम्दा बड़े प्रांगण और जल के साधन वाले स्थान पर रात्रि व्यतीत करना उचित होगा।

उनने अपने सैनिकों को संकेत दिया कि आज रात्रि यहीं विश्राम होगा।

बात की बात में सेवकों ने अस्थाई पड़ाव तैयार कर दिया और यहां से वहां तक अनगिनं छोटे छोटे तम्बू तन गए । जिनमें वे सभी ठहरने लगे। आसपास के फलदार वृक्षों से तोड़े गये फल और अपने पास उपलब्ध खाद्य पदार्थ सेवकों ने उन्हें परोसा तो सब भोजन करने लगे। अर्जुन भी एक ऊँचे से टीले पर बैठ गये। वहां से उन्हे अपने समूह के कार्यकलाप दिखाई दे रहे थे।

रात्रि विश्राम की व्यवस्था और निश्चिन्तता से मुक्ति पाई तो अर्जुन स्मृति में डूब गये, “श्री कृष्ण ने संभवतः भविष्य भांप लिया होगा तभी तो यदुवंश की स्त्रियों की रक्षा के लिये दारूक को मुझे बुलाने के लिये भेज दिया था। उसके पश्चात् सुना है कि वे अपने पिता श्री वासुदेव जी से कहने लगे कि तात, आप अर्जुन के आने की प्रतिक्षा करते रहें। इस समय बलराम जी वन में मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। मैं उनसे मिलने के लिये जाऊँगा।इस तरह सम्पूर्ण बातें समझाकर श्रीकृष्ण वसुदेव जी की चरण वन्दना करके वन में चले गये और वहाँ वे अपने दांये पैर को बांये पांव पर तिरछा रख के एक वृक्ष के सहारे बैठ गये । कहते हैं कि उनके पांव के पंजे को आंख समझ कर दूर बैठे जरा नाम के एक भील का बाण लगा । उन्होंने अपनी देह का अवसान कर दिया। मुझे तो लगता है कि यह जरा नाम का भील काई ओर नहीं, एक लव्य का पुत्र विजय ही है । वही निषादपुरम से प्रतिज्ञा लेकर निकला है । उसने ही अपने पिता बदला चुकता कर लिया ।’’

उधर समुद्र ने द्वारका नगरी को डुबाना आरंभ कर दिया था ।

समाचार पाकर मैं बेहाल हो गया। द्वारिकापुरी पहुँचकर वसुदेव जी से मिला। मुझे देखकर वसुदेव जी बोले, “हे अर्जुन, यहां सारे यादव वीर आपस में लड़-भिड़ कर समाप्त हो गए हैं। द्वारका नगरी में असंख्य विधवायें विलख रही हैं । मेरा एक सुझाव है पुत्र कि जिन स्त्रियों का प्रसव समीप है। उनके प्रसव एवं प्रसवोपरांत उत्पन्न बालकों के लालन-पालन एवं उनकी रक्षा का भार श्री कृष्ण तुम्हें सौंप कर गये हैं। यह राज्य, ये स्त्रियाँ, ये रत्न सब तुम्हारे आधीन हैं।”

ऐसा कहकर वे भी अपने प्राणों का परित्याग कर गये।

मैंने उसी समय सोच लिया, “मैं वृष्णिवंश की स्त्रियों, बालकों और बूढ़ों को अपने साथ इन्द्रप्रस्थ ले जाउंगा क्यों कि यह समुद्र अब इस सारे नगर को डुबो देगा। इसीलिये मैंने समस्त स्त्रियों से कह दिया कि तुम सभी अपने तरह तरह के वाहन और रत्न इत्यादि लेकर यहां से निकलने की तैयारी करोे। आज से सातवें दिन नगर को छोड़कर जाना ही होगा।’

इसके पश्चात मैंने वसुदेव जी का अन्तिम संस्कार किया। निश्चित दिवस पर मैं अपने साथ वहां की उन अनाथ स्त्रियों, छोटे बालकों एवं वृद्धों को लेकर इन्द्रप्रस्थ के लिये चल पड़ा।

रास्ते भर श्रीकृष्ण के सान्निध्य के क्षण बारम्बार स्मृति में आते रहे। हर बार सोचता रहा हूँ कि उनकी कृपा से मैं कहां से कहां पहुँच गया। आज उनके इस धरा से जाते ही मैं व्यथित हूँ। उनके बिना यह सारा संसार सूना दिखाई दे रहा है। कोई क्षण ऐसा नहीं जा रहा है जब वे दूर होते हुये भी दूर हों। मुझे यह आभास हो रहा है कि वे हर पल हमारे पास हैं।

इस तरह जाने क्या क्या सोचते हुये बिना श्रम अनुभव करे मैं इतने लम्बे रास्ते को पार कर आया हूँ।

रणक्षेत्र में श्रीकृष्ण के विराट पुरूष का दर्शन करने वाला अर्जुन ऐसे विचार मग्न था। उधर कर्मठ विराट पुरूष निषादराज की पंचनद क्षेत्र के ग्राम प्रधान के घर बैठक जमी थी। राजमाता वेणु अपने अस्त्रों को संभाल रही थीं। मन्त्री शंखधर भी वहीं अपने अस्त्रों को सम्हालने में लगे थे। राजमाता वेणु एक ही बात कहे चलीं जा रहीं थी, “मैंने जीवन भर धनुर्विद्या का अभ्यास किस लिये किया है ? एक बार मुझे अपने आपको परखने का अवसर आया है।”

निषादराज पारस उन्हें समझाने का प्रयास कर रहे थे, “माताजी,पिताजी के स्थान पर अर्जुन मेरा प्रतिद्वन्दी है। मैं चाहता हॅू एक बार अर्जुन से मैं स्वयं युद्ध कर सकूँ।” मन्त्री शंखधर ने उत्सुकता व्यक्त की, “ अर्जुन किसी स्त्री से युद्ध करेगा ?”

निषादराज पारस ने स्पष्टीकरण दिया, “वह केवल क्षत्रियों से ही युद्ध करता है। सूतपुत्र कर्ण को भी वह युद्ध के लिये जीवन भर नकारता रहा है।”

“वत्स, मुझे यह ज्ञात है। मैं एक सैनिक के वेष में उससे युद्ध करूँगी।”

यह सुनकर निषादराज पारस ने कहा, “आप जीवन भर मुझे धनुर्विद्या का अभ्यास कराने में लगीं रहीं। मैं चाहता हूँ कि मैं उसे आपके समक्ष बन्दी बनाकर ला सकूँ।”

“नहीं वत्स, तुम नहीं मैं ही भारत वर्ष की शक्ति साधना की परम्परा के अनुसार सामने आना चाहती हूँ जिससे ज्ञात हो कि इस देश की नारियां अपने को युद्ध के मैदान में पीछे नहीं रखतीं। मैंने जीवन भर धनुर्विद्या का अभ्यास किसलिये किया है।’’

पारस ने उत्तर दिया, ‘‘ मेरी और विजय की आपसे जो शिक्षा दीक्षा हुई है, सब आपके श्रम का ही परिणाम है ।’’

“यह ठीक है निषादराज किन्तु अभ्यास में तीव्रता निरूद्देश्य तो नहीं आ सकती। मैं जीवन भर सोचती रही हूँ मेरा अभ्यास एक न एक दिन अवश्य ही किसी काम आयेगा। मैंने इसीलिये द्रोपदी स्वयंवर में तुम्हारे पिताजी से, अपने जाने की इच्छा व्यक्त की थी।”

वे पुत्र पारस को सोचते हुये देखकर पुनः बोली ‘‘ निषादराज पारस शीघ्र तैयारी करें । हम चाहते हैं सूर्य अस्त होने से पूर्व आज ही अर्जुन से निवृत हो लें।”

यह कहकर वे सैनिक के वेष में अपने को सुसज्जित करने अलग कक्ष में चली र्गइं।

निषादराज पारस,राजमाता वेणु और मन्त्री शंखधर को साथ लेकर उस सरोवर के लिये निकल पडें, जहां अर्जुन ठहरा हुआ था। पारस ने अपने भील सैनिकों को आदेश दिया, ‘‘इस सरोवर को चारों ओर से घेर लो।’’

कुछ ही क्षणों में अर्जुन के दल को चारों ओर से घेर लिया गया।

अर्जुन को इस अवसर पर किसी भी प्रकार के युद्ध की आशंका नहीं थी। वह चिन्तन में खोया था, वह चौंका “ये भील सैनिक कहां से आ गये। ये इतना भी नहीं जानते यहां संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर, महाभारत के युद्ध का विजेता अर्जुन अपने गाण्डीव धनुष के साथ उपस्थित है।”

इसी समय उसे महीन आवाज सुनाई पड़ी, “अर्जुन गाण्डीव उठाओ, नहीं तो कहोगे कि निहत्थे पर वार कर दिया।”

प्रति उत्तर में अर्जुन की ललकार सुन पड़ी, “तुम कौन हो और क्या चाहते हो ?”

“युद्ध।”

“महाभारत के विजेता अर्जुन से युद्ध।”

“हां, अर्जुन से युद्ध।”

यह सुनकर अर्जुन ने गाण्डीव उठा लिया। उस पर बाण चढ़ाने लगा कि एकाएक तीव्र बाणों की बौछार से उसका गाण्डीव धरती पर गिर पड़ा। यह देखकर अर्जुन को क्रोध आ गया उसने गाण्डीव को फिर से उठाना चाहा।

तीव्र बाणों की वर्षा के कारण वह गाण्डीव नहीं उठा सका।

यह दृश्य देखकर अर्जुन के साथ द्वारिकापुरी से आयी स्त्रियाँ भयभीत होकर चिल्लाने लगीं, ‘‘हे अर्जुन! हमारी रक्षा करो। क्या इसी बल पर हमें अपने साथ लेकर आये थे ?

कुछ स्त्रियॉं अपने आसपास भीलों को देखकर इधर उधर भागने लगीं। कुछ अपने अबोध शिशुओं को अपने सीने से भींच कर छिपाने का प्रयास कर रहीं थीं। कुछ अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये झाड़ियों में छुपने का प्रयास कर रहीं थीं।

अर्जुन दांत भीचते हुये सोचने लगा- आज मुझे ये क्या हो गया ? गाण्डीव भी नहीं उठा पा रहा हूँ। इन असहाय चीत्कार करतीं स्त्रियों की रक्षा कैसे करूँ ?

यह सोचकर अर्जुन ने गाण्डीव उठा लिया और तत्परता से उस पर बाण चढ़ाने लगा। महारानी वेणु ने गाण्डीव पुनः धरती पर गिरा दिया। अर्जुन ने जीवन में पहली बार विवश होकर कहा, ’सैनिक तुम कौन हो और क्या चाहते हो ?’

प्रश्न का उत्तर पारस ने दिया, ‘‘अर्जुन मैं निषादराज एकलव्य का पुत्र पारस तुम्हें यह बोध करा देना चाहता हूँ कि पहाड़ पर पैर नहीं बल्कि दृढ़ निश्चय चढ़ा करते हैं।’’

यह कहावत सुनकर अर्जुन सब कुछ साफ साफ समझ गया उनके मुंह से शब्द निकले, ‘‘निषादराज पारस आप यहां ? महाबलशाली बलराम जी से गदायुद्ध करके आपके पिता एकलव्य ने हमें अपने अस्तित्व का बोध करा दिया था। आज मैंने आपके भी अस्तित्व को स्वीकार किया है। मैं पहले ही समझ गया था कि वीरता और लक्ष्यबेधन का सम्बन्ध दृढ़ निश्चय में है।’’

दोनों की सहज बातें सुनकर राजमाता वेणु ने अपना सैन्य वेष त्यागा और अपनी मूल वेषभूषा में उपस्थित हो गई, मन्त्री शंखधर उनके साथ थे।

विशय बदलते हुये अर्जुन बोला, ‘‘भीलों को देखकर हमारेे साथ आयीं स्त्रियाँ लूटने के भय से भयभीत होकर भागने का प्रयास कर रहीं थीं।’’

पारस ने उत्तर दिया,‘‘ हम भीलों को देखकर कोई अपने आप ही भयभीत हो जाये इसमें हम भीलों का क्या दोष ?’’

अर्जुन ने कहा ‘‘किन्तु तुम्हारा सरोवर को चारो ओर से घेरने का आदेश।’’

यह सुनकर राजमाता वेणु ने संकोचग्रस्त होकर अपना सिर झुका लिया और बोली, ‘‘क्षमा करें, हमारा लक्ष्य किसी को घेरकर लूटना नहीं था । मैं तो महारथी अर्जुन को दिखा देना चाहती थी कि हे अर्जुन तुम तो साथ लायीं स्त्रियों की ही रक्षा नहीं कर पा रहे हो। तुम युद्धक्षेत्र में निषादराज एकलव्य अर्द्धांगिर्नी की भी बराबरी नहीं कर सकते। तुम्हारे हित में ही उनका अंगुष्ठ कटा और तुम्हारे हित में ही श्री कृष्ण ने उन्हें मार डाला । ’’

वेणु की बात सुनकर अर्जुन बोला, “निषादराज पारस ,याद आया कि मैंने महारानी वेणु का धनुर्विद्या में बड़ा नाम सुना है। आज उनके दर्शन करने का अवसर आया है।”

यह सुनकर राजमाता वेणु को विनोद सूझा। बोली, “अर्जुन अपने भाग्य की प्रशंसा करो, मैं तो द्रोपदी के स्वयंवर में लक्ष्यबेधन के लिए आने वाली थी।”

“तो क्या देवी आप द्रोपदी से विवाह करना चाहतीं थीं ?”

“नहीं ऽऽऽ, मैं नहीं चाहती थी कि तुम्हारा विवाह द्रोपदी के साथ हो इसलिये मैंने उस स्वयंवर में निषादराज को भेजा था।”

“तो क्या निषादराज द्रोपदी के स्वयंवर में गये थे ?”

“हां अर्जुन वे वहां थे।”

“तो उन्होने राजाओं के पक्ष में युद्ध क्यों नहीं किया ?”

“ तुम उस दिन एक ब्राह्मण वेशधारी युवक के रूप में सामने आये। वे तुम्हें पहिचान नहीं पाये, और फिर वे दुर्योधन का साथ देकर उसके अहम् को और अधिक क्यों पोषित करते।’

“तो वे उस दिन हमारी मदद करते।”

“अर्जुन, उन्होने मुझे लौटकर बताया था कि तुमने लक्ष्यबेधन कर विश्व में सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का अपना ध्वज फहरा दिया था। वे समझ गये थे वहां तुम्हें किसी की आवश्यकता नहीं है। वैसे भी उन्हें बाद में ज्ञात हो चुका था कि ब्राह्मण रूप धारी तुम अर्जुन थे ........हॉं, एक बात और कहने से छूट रही है। ।”

’’कौन सी बात ?’ अर्जुन ने आश्चर्य चकित हो प्रश्न किया ।

प्रश्न के उत्तर मे वेणु बोली ’यही, तुमने अश्वमेघ यज्ञ का अश्व दिग्विजय के लिये छोड़ा था।’

अर्जुन ने उत्तर दिया ’हाँ, याद आया उस समय भी तुम हमारा अश्व कैद कर अपने पराक्रम से हमें परिचित करा सकते थे।’

पारस ने दो कदम आगे बढकर उत्तर दिया ’’अर्जुन, तुम बहुत ही भाग्यशाली हो। उस दिन भी हम तुमसे युद्ध करने के लिये तैयार थे। किन्तु तुम्हारा वह अश्व हमारे राज्य की सीमाओं को स्वतः ही छोड़ गया था।’

’अरे !’

’हाँ अर्जुन, किन्तु आज हमें आश्चर्य हो रहा है, तुम्हारे साथ में हजारों स्त्रियां कहां से और कैसे ?”

अर्जुन समझ गया, इसे अभी श्रीकृष्ण के वंश के अवसान के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं है। यदि इसे इस बात का ज्ञान हो जाता तो ऐसे वीर का पुत्र संकट के समय सांझ ढले अपनी शक्ति का बोध कराने न आता।

यह सोचकर अर्जुन ही बोला, “वासुदेव श्री कृष्ण इस धराधाम में चले गये हैं।”

पारस ने पूछा “यह क्या कहते हो अर्जुन ? श्रीकृष्ण !”

“हां निषादराज, श्रीकृष्णऽ।”

...फिर अर्जुन ने सारा प्रसंग कह सुनाया , ‘‘दरअसल यदुवंशी अपनी शक्ति में इतने मदमस्त हो गये थे कि उन्होंने एक ऋषि का अपमान कर दिया।”

सभी के मुंह से शब्द निकले, ’कैंसे ?”

“यदुवंशी उस दिन अपनी सत्ता में मदांध से होकर हंसी में ही एक आदमी के पेट से कपड़े में लिपटा मूसल बांधकर गर्भवती स्त्री के रूप में ऋषि के समक्ष ले गये और ऋषिवर से पूछने लगे कि इसके प्रसव में क्या होगा ?”

निषादराज पारस के मुंह से उत्सुक्तावश निकला, “फिर क्या ऽ ऽ ?”

“फिर क्या..... ? वे ऋषि उस नाटक को देखकर क्षण भर में सब कुछ जान गये और क्रोध मे भरकेे बोले, कि जाओ इसके पेट से मूसल पैदा होगा जो यदुवंशियों के विनाश का कारण बनेगा।’’

उसके पेट में मूसल ही था। ऋषि का शाप सुनकर सभी यदुवंशी भयभीत हो गये।

किसी ने परामर्श दिया कि इस मूसल का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया जाये तो सब लोग उस मूसल को मिटा देने के उपाय सोचने लगे।

सर्व सम्मति से निर्णय लिया गया, कि इस मूसल को घिस घिस कर समुद्र के पानी में बहा दिया जावे।

निर्णय के अनुसार मूसल घिस- घिस कर समुद्र में बहा दिया, जो नोंक शेष बच गई उसे भी समुद्र में फेंक दिया।

पारस ने कहा ‘‘ फिर तो झंझट ही मिट गया न !”

अर्जुन ने उत्तर दिया “कहां मिटा ? मूसल के घिसाव के असरवाला पानी जहां जहां से निकला,वहां की घास में नोंकें उग आई। वे बरछी कटार की तरह धारदार हो गई। मूसल घिस डालने की खुशी में समस्त युदवंशी उसी घास में से सोमरस के नशे में मद मस्त होकर निकल रहे थे कि फिसलने लगे , और उस फिसलने का दोष एक दूसरे के सिर पर मढ़ने लगे । नशे के क्रोध में उसी नोंकदार घास को उखाड़ उखाड़कर तीर तलवार की तरह उसका बार करते हुये आपस में लडभिडकर प्राण त्याग कर गये । कहते हेैं कि उस मूसल की जो नोंक समुद्र में फेंक दी गई थी, उस नोंक को एक मछली निगल गई...............।

...........बाद में किसी मछुआरे ने जाल फैलाया। मछली फंसी, और काटी गई तो उसके पेट से वह नोेंक मछुआरे के हाथ में पड़ गई। मछुआरे को वह नोंकदार फलक अच्छा लगा तो उसने विजय नाम के एक धनुर्धर को, जिसे लोग जरा नाम से जानने लगे थे उसे दे दिया ।........और वही फलक अंततः भगवान श्रीकृष्णा के अवसान का कारण बना।

यह कहकर अर्जुन चुप रह गया।

कितनी ही देर तक सब चुपचाप मौन साधे वहीं खड़े रहे। तत्पश्चात् पारस और उनके परिजन थके से कदमों से यह सोचते हुये लौट पडे- विजय ने अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण कर ली है । आने वाली पीढियॉं हमारे अस्तित्व को कभी भूल नहीं पायेंगी ।

रात अपने अंधकार में बहुत कुछ छिपा रही थी और बहुत कुछ बदल भी रही थी ।

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परिशिष्ट (क)

श्री हरिवंश पुराण में एकलव्य के जन्म की कथा

हरिवंश पर्व

अध्याय -4

अश्मक्यां प्राप्तवान पुत्रमनाण्पृष्टिर्यशस्विनम्।

निवृत शत्रुं शत्रुघ्नं देवश्रवा व्यजायत।। 32।।

देवश्रवाः प्रजातस्तु नैषादिर्यः प्रतिश्रुतः।

एकलव्यो महाराज निशादैः परिवार्धितः।। 30।।

परिशिष्ट (ख)

श्री हरिवंश पुराण

भविष्य पर्व

अध्याय 99

एकलव्य और बलराम का गदा युद्ध एवं एकलव्य के सैनिकों का निधन

वैशम्पायन उवाच।।

एत् स्मिन्नन्तरे युद्ध एकलव्यो निषादयः।

बलभद्रमभि क्षिप्रं धनुषदाय सत्वरम।। 1।।

नाराचैर्दशभि र्विद्ध्वा वाणेश्व दशभिः परैः।

विच्छेद धनुरर्द्ध तत्सर्वक्षत्रस्य पश्यतः।। 2।।

सूतं दशभिराहव्य रथं त्रिशं द्भिरेव च्।

ध्वजं विच्छेद भल्लेन निषादस्य जगत्पतिः।। 3।।

ततः परं महच्चापं निशादो वीर्य संमतः।

छढ मौर्व्या सभा युक्तं दशताल प्रमाणतः।। 4।।

कम पालं शरेणाशु जधान जनमध्यतः।

बलदेवो महावीर्यः सर्प शेष इव श्वसन।। 5।।

दशभिस्तद्धनु र्दिव्य शरैः सर्व समैर्वलः।

चिच्छेद मुष्टिदेशे तु माधवो माधवाग्रजः।। 6।।

एकलव्यो निशादेशः खड्गमादाय सत्वरः।

प््राहिणो द्वलमादाय निशितं घोर विग्रहम्।। 7।।

तमन्तरे पटुर्वीरा वृष्णि वीरः प्रतापवान्।

तिलशः प॰चभिवीणैश्चकार यदुनन्दनः।। 8।।

ततोऽपरं महत्ख सर्वकालायसं शुभम्।

प्रहिणोत्सारथेः कायमालोक्याथ निषादजः।। 9।।

तं चापि दशभि र्वीरो माधवो यदुनन्दनः।

बाह्नोरन्तरयोश्चैव निर्बिभेद महारणे।। 10।।

ततः शक्तिं समादाय घण्टामाला कुलो नृप।

निशादो बलदेवाय प्रेषयित्वा महाबलः।। 11।।

सिंहनादं महाघोर मकरोत्स निषादयः।

साशक्तिः सर्वकल्याणी बलदेवभुपागमत्।। 12।।

उत्पतन्तीं महाघोरां बलभद्रः प्रतापवान्।

अदायाथ निशादेशं सर्वान्विस्मापयन्निवं।। 13।।

तथैव तं जघानाशु वक्षोदेशे च माधवः।

स तया ताडितोवीरः स्वशक्त्याथ सहस्त्रशः।। 14।।

विह्नलः सर्वगात्रेषु निपपात महीतले।

प्राणसंशयमापन्नो निशादो रामताडितः।। 15।।

निशादास्तस्य राजेन्द्र शतशोऽथ सहस्त्रशः।

अष्टारीति सहस्त्राणि निशादास्तस्य योधिनः।। 16।।

गदिनः खैनि श्रैव महेष्वासा महाबलाः।

शरैरने कसाहस्त्रैः शक्तिमिश्च परश्वधैः।। 17।।

गदाभिः पट्टिशैः शैलैः परिधैः प्रासतो परैः।

कुन्तैरथ कुठारैश्च महेष्वासा महाबलाः।। 18।।

शलभा इव राजेन्द्र दीप्यमानं हुताशनम्।

ते शरैः पातयांचकू रामं राममिवापरम्।। 19।।

केचित्कुठारैराजध्नुः केचित्कुन्तैः परश्वधैः।

गदाभिः केचिदाध्नन्ति शक्तिमिश्च तथा परे।। 20।।

निजुघ्नुः सहसा रामं स्फुरन्तं पावकं यथा ।

ततः क्रुद्धो हली साक्षाद्धलभुद्यम्य सत्वरम् ।। 21 ।।

सर्वानाकर्षयामास मुसलेन हि पीडयन् ।

ते हन्यमाना राजेन्द्र निशादाः पर्वतश्रयाः ।। 22 ।।

निपेतुर्धरणी पृष्टे शतशोऽथ सहस्त्रशः ।

क्षणेन तन्महाराज हत्वा सर्वान्महावलान् ।। 23 ।।

सिंह बद्वयनदंस्तत्र तस्थौ रामो महावलः ।

ततो रात्रौ महाघोराः पिशाचाः पिशिताशनाः ।। 24 ।।

आकृष्य शवयूथानि भक्षयन्तः समासते ।

पिवन्तः शोणित कोष्ठात्संछिद्य च शवं वहु ।। 25 ।।

इति श्री महाभारते खिलेषु हरिवंशे भविष्य

पर्वार्ण एकलव्य सेन्यवधो नामैकोन शतमोऽध्यायः ।। 99 ।।

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परिशिष्ट (ग)

श्री हरिवंश पुराण

भविष्य पर्व

अध्याय 100

एकलव्य और बलराम का युद्ध

वैशम्यायन उवाच -

कव्यादाः सर्व एवाशु भक्षयन्तस्तदा शवम् ।

हसन्तो विविधं घोरं नादयन्तो वसुन्धराम् ।। । ।।

राक्षसाõ पिशाचõ पिबन्तः शोणितंबहु ।

आ शिखं भुत्र्जेत राजत्र्छवस्य पिशिताशनाः ।। 2 ।।

नृत्यन्ति स्मतदा राजन्मगर्या रणतोषिताः ।

काका वलाका गृध्राच्श्रश्येना गोमायवस्तथा ।। 3 ।।

भक्षयन्तः प्रवर्तन्ते राक्षसाच्श्रैव दारूणाः ।

एतिस्मन्मन्तरे वीरो निशादो लब्धसंज्ञकः ।। 4 ।।

हतान्सर्वान्समा लोक्य निशादान्नगचारिणः ।

गदामादाय कुपितो राममेव जगामह ।। 5 ।।

जधान गदया राजंरछत्रदेशे निषादपः ।

ततो रामो गदी राजन्मिषादं बाहुशलिनम् ।। 6 ।ं।

अजघ्ने गदया क्रूर मदमत्तो हलायुधः ।

तयोõ तुमुलं युद्धं गदाभ्यां समवर्त्तत ।। 7 ।।

आकाशे शब्द आसीतु तयोर्युद्धे महाभुज ।

समुद्राणां तथा धोषः सर्वेषां सन्मिगच्छताम ।। 8 ।।

कल्पक्षये महाराज शब्दः सुतुमुलोऽभवत् ।

क्षोमितो नहाराजõ नागाः क्षोमं समाययुः ।। 9 ।।

पृथिवी चान्तरिक्षं च सर्व शब्दमय वभौ ।

ततः स पौण्ड्र को राजा सात्यकिं वृष्णिनन्दनम् ।। 10 ।।

गदयैव जधानाशु सत्वरं रणकोविदः ।

युयुधानो बली राजन्वासुदेवं जधान ह ।। 11 ।।

तयोõ तुमुलः शब्दः प्रादुरासीन्म हारणे ।

चतुर्णा युध्यतो राजन्परस्पर वधैषिणाम् ।। 12 ।।

ब्रह्माण्ऽक्षोभणो राज॰छब्द आसीत्सुदारूणः ।

ततो रजः प्रादुरभूतस्मिन्संग्राम भूर्धनि ।। 13 ।।

तारका निष्प्रभाराजंस्तमस्येवं क्षयेगते ।

उषसि प्रतिबृद्धायां ततो निः शेषतां ययौ ।। 14 ।।

उदितो भगवान्मसूर्यõन्दõ क्षमयादयौ ।

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तयोयुद्धं प्रादुरभुन्नातुर्णां बाहुशालिनाम ।।

देवासुरसमं राजन्नुदिते भास्केर महत् ।। 15 ।।

इति श्री महाभारते खिलेषु हरिवंशे भविष्य

पर्वार्ण पौण्ड्डके युद्धे शत तमोऽ ध्यायः ।।

(ध)

महाभारत मे बर्णित एकलव्य की अगुष्ठदान की कथा

संभव पर्व

अध्याय 131

ततो निषादराजस्य हिरण्यधनुषः सुतः ।

एकलव्यो महाराज द्रोणमभ्याजगाम ह ।। 31 ।।

न स तं प्रतिजग्राह नैषिादिरिति चिन्तयन् ।

शिष्यं धनुषि धर्मज्ञस्तेषामेवान्वेवेक्षया ।। 32 ।।

स तु द्रोणस्य शिरसा पादौ गृह्य परन्तपः ।

अरण्यमनु सम्प्राप्य कृत्वा द्रोणं महीमयम् ।। 33 ।।

तस्मिन्नाचार्य वृतिं च परमामास्थिंतस्तदा ।

इष्वस्त्रे योगमातस्थे परं नियममास्थितः ।। 34 ।।

परया श्रद्धयोपेतो योगेन परमेण च ।

वमोक्षा दान सन्धाने लधुत्वं परमाप सः ।। 35।।

अथ द्रोणाभ्यनुज्ञाताः कदाचित्कुरू पाण्डवाः।

रथेर्विनिर्ययुः सर्वे मृगयामरिमर्दन।। 36।।

तंत्रोपकरणं गृह्य नरः कश्चिद्यदृच्छया।

राजन्ननुज गामैकः श्वानमादाय पाण्डवान्।। 37।।

तेषां विचारतां तत्र तत्तत्कर्म चिकीर्षया।

श्वा चरन्स वनेमूढो नैषादिं प्रति जग्मिवान्।। 38।।

सं कृष्ण मल दिग्धागं कृष्णाजिन जटाधरम्।

नैषादिं श्वा समालक्ष्य भषंस्तस्थौ तदान्तके। 39।।

तदा तस्याथ भवतः शुनः सप्त शरान्मुखे।

लाघवं दर्शयत्रस्त्रे मुमोच युगपद्यथा।। 40।।

स तु श्वा शरपूर्णस्यः पाण्डवानाजगाम ह ।

तं दृष्ट्वा पाडवा वीराः परं विस्मयमागताः।। 41।।

लाघवं शब्दवेधित्वं दृष्ट्वा तत्परमं तदा।

प्रेक्ष्य तं व्रीडिताश्चासन्प्रशशंसुश्च सर्वशः।। 42।।

तं ततोऽन्वेषमाणास्ते वने वन निवासिनम्।

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ददृशुः पाण्डवा राजन्नस्यन्तमनिशं शरान्।। 43।।

न चैनमभिजानंस्ते तदा विकृत दर्शनम्।

तथैनं परिपप्रच्छुः को भवान्कस्य वेत्युत्।। 44।।

एकलव्य उवाच

निशादाधिपतेर्वीरा हिरण्यधनुषः सुतम्।

द्रोण शिष्यं च मां वित्त धनुर्वेद कृतश्रमम्।। 45।।

वैशम्पायन उवाच

ते तमाज्ञाय तत्वेन पुनरागम्य पाण्डवाः।

यथा वृत्तं वने सर्वं द्रोणायाचख्युरद्भुतम्।। 46।।

कौन्तेयस्त्वर्जुनो राजन्नेकलव्यमनुस्मरन्।

रहो द्रोणं समासाद्य प्रणयादिदमब्रवीत्।। 47।।

अर्जुन उवाच

तदाहं परिरभ्यैकः प्रीतिपूर्वमिदं वचः।

भवतोक्तो न मे शिष्यस्त्वद्विशिष्टो भविष्यति।। 48।।

अथ कस्मान्मद्विशिष्टों लोकादपि च वीर्यवान्।

अन्योऽस्ति भवतः शिष्यों निशादाधिपते सुतः।। 49।।

वैशम्पायन उवाच

मुहूर्तमिव तं द्रोणश्चिन्तयित्वा विनिश्चयम्।

सव्यसाचिनमादाय नैषादिं प्रति जग्मिवान्।। 50।।

ददर्श मलदिग्धाड्.गं जटिलं चीरवासम्।

एकलव्यं धनुष्पाणिमस्यन्तमनिशं शरान्।। 51।।

एकलव्यस्तु तं दृष्ट्वा द्रोणमायान्तमन्तिकान्।

अभिवाद्योंप संग्रह्य जगाम शिरसा महीम्।। 52।।

पूजयित्वा ततं द्रोणं विधिवत्स निषादजः।

निवेद्य शिष्यमात्मानं तस्थौ प्रा॰जलिरग्रतः।। 53।।

ततो द्रोणोऽब्रवीद्राजन्नेकलव्यमिदं वचः।

यदि शिष्योऽसि में वीर वेतनं दीयतां मम्।। 54।।

एकलव्यस्तु तच्छृत्वा प्रीयमाणोऽब्रवीदिदम्।

एकलव्य उवाच

किं प्रयंच्छामि भगवन्नाज्ञापयतु मां गुरूः।। 55।।

न हि किञ्चिददेयम मे गुरवे ब्रह्म वित्तम्।

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वैशम्पायन उवाच

तम ब्रवीत्वयांगष्ठो दक्षिणा दीयतामिति।। 56।।

एकलव्यस्तु तच्छूत्वा वचो द्रोणस्य दारूणम्।

प्रतिज्ञामत्मनो रक्षन्सत्ये च नियतः सदा।। 57।।

तथैव हृष्टमनसस्तथैवादिन मानसः।

छित्वाऽविचार्य तं प्रादाद् द्रोणायांगुष्ठमात्मनः।। 58।।

ततः शरं तु नैषादिरंगुलीभिर्व्यकर्षत।

न तथा च स शीघ्रोऽभूद्यथा पूर्वं नराधिप।। 59।।

ततोऽर्जुनः प्रीतमना बभूव विगतज्वरः।

द्रोणश्य सत्य वागासीन्नान्योऽभि भविताऽर्जुनम्।। 60।।

(ड़)

महाभारत पुराण

उधोग पर्व में सेनोधोग पर्व

अध्याय ।। 4 ।।

एकलव्य का पुत्रो सहित महाभारत युद्ध में निमन्त्रण

सान्यकि की बात सुनकर द्रपद का कथन -

अषाढ़ो वायु वेगश्च पूर्वपाली च पार्थिनः ।

भूति तेजो देवकश्च एकलव्यः सहात्मजैः ।। 17।।

( च )

महाभारत पुराण

अध्याय - ।। 14 ।।

श्री कृष्ण की राजसूथ यज्ञ के लिए सम्मति में एकलव्य की वीरता का बर्णन -

भारत बंश शिरोमणी आप सदा ही सम्राट के गुणों से युक्त है अतः हे भारत आपको क्षत्रिय समाज में अपने को सम्राट बना लेना चाहिए ।

दुर्योधनं शान्त नवं द्रोण द्रोणायनिं कृपम ।

कर्ण च शिशुपालं च रूक्मिणं च धनुर्धरम ।।

एकलव्य द्रुमं श्वेत शैल्यं शकुनिमेव च ।

एतान जिव्वा संग्रामे कथं शक्नोषि तं कुतम ।।

अथैते गौरवेणौव च योत्स्यन्ति नराधिपाः ।। 61 ।।

- 97 -

( छ )

महाभारत पुराण

उधोग पर्व

अध्याय - ।। 48 ।।

संजय कौरव सभा में सुनाते है -

अर्जुन को श्री कृष्ण की शक्ति का परिचय देते हुए बतलाया हैं ।

अयं स्म युद्धे मन्यतेऽ न्यैरजेयं

तमकेलव्यं नाम निषाद राजम् ।

वेगेनैव शैलमभिहत्य जम्मः

शेते से कृष्णेनं हतः परासु ।। 77 ।।

( ज )

महाभारत पुराण

द्रोण पर्व

अध्याय - ।। 181 ।।

भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को धर्म द्रोहियों के बध करने का कारण बतला रहे है ।

इसमें एकलव्य के वध का वर्णन है -

जरा संधश्चेदिराजो नैषादिश्च महाबलः ।

यदि स्युर्म हताः पूर्व मिदानीं स्युर्मयंकरा ।। 2 ।।

सूत पूत्रो जरासंधश्चेदिराजो निषादजः ।

सुयोधनं समाश्रिव्यं जयेषु पृथिवीमियाम् ।ं। 5 ।।

त्वद्धितार्थे च भैषदि रंगुष्ठेन वियोजितः ।

द्रोणेनाचार्यकं कृत्वा छैना सत्य विक्रमः । 17 ।।

सतु वद्धांगुलित्राणों वैषादिर्ट्टढ़ विक्रमः ।

अतिमानी वनचरों वभो राम इवा परः ।। 18 ।।

एकलव्य हि सोगुष्ठमशक्ता देव दानवाः ।

स राक्षसोरगाः पार्थ विजेतुं युधि कर्हिचित ।। 19 ।।

किमु मानषु मात्रेण शक्यः स्यात प्रतिवीक्षितुम ।

दृढ़ मुष्टिः कृती नित्यम स्यमानो दिवा निशम् ।ं। 20 ।।

त्वद्धितार्थ तु स मया हतः संग्रम मूर्धनि ।

चेदिरा विक्रान्तः प्रत्यक्षं निहतस्तव ।। 21 ।।

-0-

झा

महाभारत अध्याय 182 dएकलव्य की बीरता का बखान करते ये श्लोक-

सूतपुत्रो जरासंधश्चेदिराजो निषादजः।

सुयोधनं समाश्रित्य जयेयुः पृथिवीमियाम्।। 5।।

एकैको हि पृथक् तेषां समस्तां सुरवाहिनीम्।

योधयेत समरे पार्थ लोकपालाभिरक्षिताम्।। 7।।

त्वद्धितार्थे नैषदिर अंगुष्ठि वियोजितः।

द्रेाणेनाचार्यकं हत्वा छद्मना सत्यविक्रमः।। 17।।

स तु बद्धां ड़्गुलित्रोणानैद्वदि र्दृढ़विक्रमः।

अन्तिमानी वनैचरौ बभौ रामइवापरः।। 18।।

एकलव्यं सांगुष्ठमशक्ता देवदानवाः।

स राक्षसोरगाः पार्थ विजेतुं युधि कर्हिचित।। 19।।

किम मनुष्यमात्रेण शक्यः स्यात् प्रतिवीक्षितुम्।

दृढ़मुष्टिः कृतो नित्यमस्यामानो दिवानिशम्।। 20।।

त्वद्वितार्थे तु स मया हतः संग्रामर्धनि।

स चाशक्यः संग्रामं जितुं सर्वसुरासुरैः।।22।।

जरासंध श्चेदिराजो महात्मा महावाहुश्चैकलव्यो निशादः।

एकैकदशौ निहताः सर्वा एते योगस्तैस्तैस्त्व द्धितार्थे मयैव।।32।।

दिनांक: 2जून2009

राम गोपाल भावुक