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चुटकी भर लाल रंग

नीलम कुलश्रेष्ठ

यह दृश्य देखकर मेरा कलेजा मुँह को आ गया या कहिये कि कलेजा मुँह को आना क्या होता है- मैंने पहली बार जाना, वर्ना जोशी जी लेटे हुए हैं छत को खाली आँखों से टुकुर-टुकुर निहारते । उनके एक हाथ में ड्रिप लगी हुई है । अस्पताल के प्राइवेट वॉर्ड में पलंग के पास ही स्टूल पर श्रीमती जोशी बैठी हुई हैं । पास के सोफ़े पर उनकी ख़ैर ख़बर लेने आये पटेल दंपत्ति बैठे हैं । शन्नो पलंग के पायताने दीवार की तरफ मुँह किये बैठी है । उसका सिर इस बुरी तरह झुका है जैसे गर्दन पर मानो अपराध का बोझ लदा हो । इतने दिनों में उसके चेहरे का लावण्य धुल पुछ गया है । रंग धुंधला गया है । जी में आता है । दौड़कर उसके पास जाऊँ और झिंझोड़कर पूछुं, “शन्नो! तू क्यों सिर झुकाये बैठी है? तूने किया ही क्या है? किस शर्म से ज़मीन में गढ़ी जा रही है?”

मैं पैरों को ज़बरदस्ती घसीटती हुई अंदर दाखिल होती हूँ ।

“आँटी नमस्ते ।”

मैं चौंकती हूं । जोशी जी के सिरहाने की तरफ़ खड़ी है बन्नो जो कभी साँवली सी मरियल लड़की हुआ करती थी । अब कौन कहेगा कि यह वही लड़की है । पाँच ही महीने में सारा शरीर भर गया है । चेहरा तो ऐसा लग रहा है जैसे किसी ने गुलाल मल दिया हो । क्या औरत की सिर्फ़ एक ही पहचान होती है ....माथे पर गोल बिंदी व माँग में जगमगाता सिंदूर । बाकी तो सिर्फ़ जीने का बहाना मात्र है ।

शन्नो भी तो उस रात उसी मंडप में ब्याही गई थी लेकिन वह उजड़ी हुई, अपने में छिपी सहमी कोने में बैठी हुई । मेरे सोफ़े पर बैठते ही उसने एक उचटती निगाह से मुझको नमस्ते की । उस एक छोटी सी निगाह से ऐसा लग रहा है कि वह मुझे देखकर तीखे दर्द से कराह उठी है । उसकी दम घोंटती सी साँसों का बोझ मेरे सीने में फैलता जा रहा है । मन होता है मैं उसे अपनी छाती में भींचकर रो उठूँ । वह तो क्या हल्की होगी, मैं ज़रूर हल्की हो जाऊँगी । पटेल दंपत्ति के कारण मैं चुप ही बैठी रहती हूँ । कहाँ खो गई है वह मासूम शन्नो जो आँखों में ढेर सी ख़ुशियाँ छलकाए मुस्कुराते हुए चेहरे से मेरे पास आती थी । वह सिर से ऊपर दुपट्टे को अपने कुर्ते के कंधो पर फैलाकर बालों को जान बूझकर अपने गालों पर छितरा लेती व कमरे में कमर लचकाती ठुमक-ठुमक कर चलने लगती । ऐसे में उसकी पायल खनकती रहती छन-छन । वह ज़ोर से चिल्लाती, “लगती हूँ न नंबर वन मॉडल?”

“तू तो नंबर वन मॉडल ही भगवान ने पैदा की है ।” मैं गदगद हो उसका दुपट्टा पकड़ती । वह नाज़ से दुपट्टा छुड़ाकर ठुनकती, “छोड दो, आँचल, ज़माना क्या कहेगा ?”

“तू हमेशा फ़िल्मी मूड में ही रहती है ?”

“यह फ़िल्मी मूड नहीं, इस दुपट्टे जैसा सतरंगी मूड है ।”

वह ठुमकते-ठुमकते अपनी चाल पर ब्रेक लगा देती, “अरे ! बाप रे ! मैं गैस पर दूध चढ़ा कर आई थी ।” पीछे उसकी बौखलाहट पर मैं हँसती रह जाती ।

बन्नो से वह खूबसूरत थी, उसका जहीन पारदर्शी व्यक्तित्व मुझे बहुत अच्छा लगा था । मैंने उसे कभी भी उदास होते हुए नहीं देखा था । अपनी माँ के पेट में होने वाले ऑपरेशनो में हर बार वही हर काम में आगे रहती थी । बन्नो के तो हाथ पैर फूल जाते थे । शन्नो ही बन्नो को समझा बुझाकर काम करवाती थी । मोपेड दौड़ाती कभी अस्पताल एक खाना पहुँचाती, कभी दूसरी । मैं अपनी खिड़की में खड़ी तेज रफ्तार से उन्हें मोपेड पर जाते देखती तो सोचती, ज़माना कितना बदल गया है । जींस शर्ट व छोटे बालों में उन्हें दूर से आता देखकर कौन कह सकता है कि लड़की है या लड़का । मुझे तो लगता था कि इस भागदौड़ में अपनी प्रथम श्रेणी खो बैठेगी, लेकिन जीव विज्ञान में उसके कमाल के नंबर आते थे । अलबत्ता बन्नो ज़रूर लुढ़कते लुढ़कते बची थी ।

कैसी होती हैं लड़कियाँ, हँसती, चहचहाती माँ बाप के घर की फुनगियों पर फुदकती उनकी लाड़ली बुलबुलें । सिर्फ़ एक पुरुष के उनके जीवन में पदार्पण से उसकी दी हुई प्रतिष्ठा जैसे माथे पर लिख जाती है ।

अस्पताल के प्राइवेट वॉर्ड में श्रीमती पटेल शन्नो से पूछती हैं, “वी.जी. नहीं आए?”

शन्नो की मम्मी बीच में जल्दी से कह देती, “उन्हें छुट्टी नहीं मिली ।”

“यह अच्छा है, बन्नो की लोकल शादी कर दी, वह एक्सीडेंट के बाद एकदम आकर खड़ी हो गई वर्ना आपको बड़ी मुश्किल होती ।”

पटेल दंपत्ति को तो पता ही नहीं होगा कि शन्नो को वी.जी. के पास बंबई से आये एक महीना हो गया है । बेचारी एक महीने से मुँह छिपाए दादा जी के यहाँ पड़ी हुई है, एक चोर की तरह । उसकी मम्मी डैडी व हम लोग शोक मनाते बिल्कुल जड़ हुए जा रहे हैं । मृत्यु का तो कोई सब्र भी कर ले लेकिन शन्नो जिन काँटों से गुजरकर आई है वह सीधे हमारे सीने में धँसते रहते हैं।

पहले जोशी के घर जो भी आता, चंचल चपल शन्नो को पूछता घर घुसता आता था, बन्नो अजीब सी हीन भावना से घबराई अपने कमरे में घुसी रहती थी । शन्नो मेरे पास आकर बड़बड़ाती थी, “आँटी ! बन्नो को कितना भी समझाओ, किसी के सामने बाहर नहीं आती । अपने कमरे में किताब खोले कहीं और खोई रहती है फिर फ़ेल हो जाती है । मैं तो कहती हूँ, बी.ए. करते ही इसकी शादी कर देनी चाहिए ।”

“और तू? तू क्या शादी नहीं करेगी ?”

“क्यों नहीं? अभी कर लूँ, कोई अच्छा सा लड़का आपकी नज़र में हो तो बताईये।” वह मेरी आँखों में आँखें डालकर शरारत से मुस्कुरा देती ।

“तुझे शर्म नहीं आ रही ! अपने लिये लड़का ढूँढ़ रही है?”

“आँटी ! अब आप ‘स्लो मोशन मूवी’ जैसी हो गई । ज़माना आज ‘फ़ास्ट फ़ूड `तक पहुँच चुका है ।”

“तेरे से जीतना तो मुश्किल है ।”

मैं बहाना बनाकर उठती तो वह लपक कर मेरा हाथ पकड़ लेती, “लड़का ढूँढ़ने अभी कहाँ चल दीं? पहले मैं रिसर्च करूँगी फिर शादी ।”

आज वही शन्नो अस्पताल के वॉर्ड में हम सबसे मुँह फेर दीवार की तरफ मुँह किये बैठी है। बन्नो तत्परता से अपनी चूड़ियाँ खनकाती माँ को कभी नेपकिन थमा रही है कभी मौसमी का जूस निकाल कर दे रही है । शन्नो के बेलौस ठहाके, उसकी पायल की छम-छम जैसे मेरे कानों में कहीं दूर की गुफ़ा में गूंजते से सुनाई दे रहे हैं । श्री व श्रीमती पटेल उठते हैं । मैं भी उनके साथ उठ लेती हूँ । मुझे पता है, मैं रुकूँगी तो अपना रोना नहीं रोक पाऊँगी । मैं रोऊँगी तो शन्नो भी रोयेगी, उसकी माँ भी रोयेगी, जोशी जी के ज़ख्म पट्टी के नीचे तरल हो उठेंगे ।

घर आकर पस्त पड़ जाती हूँ । शेखर को बताती हूँ, “पता है शन्नो आ गई है ।”

“अच्छा, कैसी है वह?”

“बहुत दुबली हो गई है, बिल्कुल बदल गई है ।”

“पता नहीं, कहाँ फँस गई बेचारी?”

मैं निढाल बेमन से रात का खाना बनाती हूँ । शन्नो की सूरत मेरी पलकों से हट नहीं पा रही । बाद में एक किताब पढ़ने की कोशिश करती हूँ । उसके पृष्ठों में मन नहीं गुम हो पाता । हर पृष्ठ पर एक जोड़ा आँखों की उदासी बिखरी हुई है । बड़ी मुश्किल से नींद आती है । लगता है कोई दरवाज़ा लगातार खटका रहा है । मैं उनींदी सी दरवाज़ा खोलती हूँ और चौंक जाती हूँ ।

“शन्नो ! तुम ?”

“हाँ, आँटी, सॉरी। आपको इस समय परेशान किया । आज कॉलेज में हम फ़ाइनल वालों को फ़ेयरवेल दे रहे हैं ।”

“तो उन्हें जाकर फ़ेयरवेल दो, मेरी नींद क्यों ख़राब कर रही हो ? रात में चिन्टु ने सोने नहीं दिया, अब तुम जान खाने आ गई ।”

“मम्मी बाज़ार गई है । मेरी समझ में नहीं आ रहा, इस साड़ी के साथ काला ब्लाउज़ पहनूँ कि ये हरा । ये हरे रंग का ब्लाउज़ साड़ी से मैच नहीं कर रहा ।”

“इतनी सी बात पूछने के लिये तूने मेरी नींद ख़राब की?” मैं झूँझला उठती हूँ ।

“आप दोपहर को रोज़ सोती हैं । क्या हमारे कॉलेज में पार्टी रोज़ रोज़ होती है?” वह अधिकार से पलंग पर जमकर बैठ जाती है । उसके इस धाँसू अधिकार पर मैं मुस्कुरा देती हूँ ।

“वाकई यह हरा शेड साड़ी से मैच नहीं कर रहा । यह काला ब्लाउज़ ही पहन लेना । अब यहाँ से दफ़ा हो जा ।”

“आपसे यह किसने कह दिया कि मैं जाने वाली हूँ ? आप ही मुझे साड़ी पहनाएँगी। मैं साड़ी पहली बार पहनकर बाहर जा रही हूँ । जरा पिन अप ठीक से कर दीजिये । कहीं वह खिसक न जाये और...” फिर वही खिलखिलाहट ।

साड़ी पहनकर वह गुड़िया सी लगती है । उसे अपना हरे रंग का हैदराबादी जडाऊ सेट पहनाकर मैं हाथ जोड़कर कहती हूँ, “बाबा ! अब तो जा ।”

उसे बाहर निकाल कर मैं लपक कर दरवाज़ा बंद करती हूँ । जल्दी में मेरी ऊँगली दरवाज़े के बीच में आ जाती है ------घबराकर मेरी नींद खुल जाती है । कमरे में अँधेरा गहराया हुआ है । कहीं भी तो नहीं है हरी साड़ी में गुड़िया सी सजी पार्टी में जाती शन्नो । मेरे ईर्द गिर्द अँधेरे में घिरी एक जोड़ा आँखें भर हैं ।

मेरे बेटे अक्सर पूछते थे,``ताई [मराठी में बड़ी बहिन को ताई कहते हैं ]को क्या हुआ ?वो क्यों दुबली ही गई है ?``

``मैं कभी उनके घर जाता हूँ तो रोती मिलती है। ``

मैं इन नन्हों को क्या बताती ?

पहले तो वह ज़रा सी बात पर उबल पड़ती थी । उसे लगता था कि उसके आस-पास जो भी उल्टा सीधा घटित हो रहा है उसे वह ठीक करके ही छोड़ेगी । उस रक्षाबंधन के दिन जैसे ही उसने सुना, काशीबेन की तीसरी बेटी भी ससुराल से पिटकर वापस आ गई है, वह दनदनाती सुबह दस बजे हमारे घर में घुस आई थी, बरामदे में रखी डायनिंग चेयर खिसकाकर मेज़ पर अपनी दोनों कोहनी टिकाये हथेली पर अपनी ठोड़ी रख किसी जज की तरह अकड़कर बैठ गई थी । बड़े अधिकार से उसने काशी बेन को रसोई से बाहर आने को कहा था ।

काशी बेन कुछ भी न समझती सी साड़ी के आँचल से हाथ पोंछती बाहर निकल आई थी- “बेन सु छे (बहिन क्या बात है)?”

“मैंने तुम्हें कितनी बार समझाया था कि अपनी लड़कियों को स्कूल में दाखिल कर दो । गुजरात सरकार ने लड़कियों को फ़ीस माफ़ कर दी है । काश! कुँता पढ़ी लिखी होती तो ससुराल में कैसे उसे कौन मार सकता था ? अब तुम्हारी तरह बर्तन मलेगी ।”

काशीबेन बेवक्त की डाँट से सकपका गई थी । अपने आँसू आँचल से पोंछती कह उठी थी,

“बेन ! लड़कियों का भाग्य पहले से कौन कहाँ जान पाता है ?”

“पहले तुम विधवा हो गई, बाद में तुम्हारी दो बेटियाँ ससुराल से मार खाकर तुम्हारे यहाँ आ गई तब भी भाग्य की बात करती हो ? मैं तुम्हें कितना समझाती थी कि उसे पढ़ाओ लेकिन हर बार तुम यही कहती थीं, उसे नौकरी थोड़े ही करनी है । चूल्हा ही तो फूँकना है तो क्यों ‘टैम’ ख़राब करें ?”

शन्नो ने ही पढ़ लिखकर कौन सा तीर मार लिया ? वह भी एम.एससी. में गोल्ड मेडल लेकर? एम.एससी. के बाद उसकी रिसर्च की इच्छा रखी की रखी रह गई थी । बस, जैसा कि होता है, सपनों का राजकुमार सामने आकर खड़ा हो जाता है । हर लड़की अपनी सुधबुध भूल जाती है । तब उसने अपने दादा के घर से लौटकर लाल होते हुए बताया था,`` वी जी के लिये बहुत सी सुंदर लड़कियों के ऑफ़र थे लेकिन उसने मुझे ही चुना। उसे पाँच बजे आना था लेकिन वह चार बजे ही आ गया । मैं तो साथ वाले कमरे में बाल खोले बड़े ज़ोर ज़ोर से शोर मचा रही थी कि ज़री की साड़ी नहीं पहनूँगी तभी उसने देख लिया था ।``

“मतलब, जनाब तभी फ़्लेट हो गये थे ।”

“बुरी तरह, घर पहुँचते ही उसने ‘हाँ’ कर दी थी ।”

“मतलब, उसके माँ-बाप, भाई-बहन साथ में तुम्हें देखने नहीं आये थे ।”

“नहीं, उन्होंने सब उसके ऊपर छोड़ रखा है ।”

मैं शन्नो की माँ को क्या समझाती कि शन्नो की शादी की इतनी जल्दबाजी न करें क्योंकि वह तो सगाई करके ही लौटी थीं । बहुत गदगद होकर उन्होंने बताया था,`` जैसा लड़का हमें चाहिये था, उससे अच्छा लड़का हमें मिल गया . बंबई में क्लास वन ऑफ़िसर है । हम बड़े किस्मत वाले हैं तो शन्नो पहली बार में ही पसंद कर ली गई ।”

“किस्मत वाले तो वे हैं जो शन्नो को ले जा रहे हैं ।”

बाद में सगाई की रंगत जैसे उसके चेहरे पर उतर आई थी । किसी से जुड़ने पर जैसे कि नारी एक लचीली टहनी में बदल जाती है, वैसी ही ख़ुशी से उसका पोर पोर लहक रहा था । हल्की ख़ुमार भरी आँखें खोई-खोई सी हो उठी थीं । उसकी ऊँगली में हर समय सगाई की अंगूठी जगमगाती रहती थी ।

कुछ दिनों बाद ही वी.जी. उनके घर में आ धमका था। लंबा तगड़ा दोनों रात को पेड़ों की कतारों से घिरी सड़क पर जब टहलने निकलते तो उनकी लंबी जोड़ी देखते ही बनती थी । उसे लेकर वह शर्माई सकुचाई सी हमारे घर भी आई थी । सारा ध्यान उसका अपनी साड़ी संभालने में ही था । वी.जी. की मिठास भरी बातचीत, उसकी विश्लेषण भरी बातें सुनकर मैं हैरान रह गई थी । उसने बहुत मीठे स्वर में उलाहना दिया था, “आँटी ! शन्नो कहती है शादी के बाद पति पत्नी का बराबर अधिकार होना चाहिये, लेकिन मैं कहता हूँ कि पत्नी को थोड़ा झुककर पति व उसके घर वालों के साथ व्यवहार करना चाहिये ।”

उसके इस पुरुष अहं ने मेरा मन हल्का सा आहत किया था। मेरे बस में भी होता तो मैं भी यही कहती कि पति पत्नी दाम्पत्य में बराबर के हिस्सेदार हैं किंतु सच बात यह है कि स्त्री पुरुष के अहं से जीत नहीं सकती । सफ़ल दाम्पत्य का रहस्य यही है कि पत्नी कुछ झुक कर चले ।

शन्नो झुंझलाकर बीच में बोल पड़ी थी, “क्या आप राय देंगी कि हर ग़लत बात के सामने भी वह झुक जाये ?”

“ऐसा तो कभी नहीं करना ।”

इन्होंने में बीच में चुटकी ली, “शुरू-शुरू में तो ऐसा भी कर लेना । बाद में तो वी.जी. का हमारा जैसा ही हाल हो जाने वाला है ।”

इनकी बात पर सब हँस पड़े थे । मैं बहुत संतुष्ट हो उठी थी कि शन्नो को भी उसके जैसा परिपक्व मस्तिष्क वाला सुलझा हुआ पति मिल रहा था ।

“आप लोगों की शादी की क्या तारीख तय हुई है?”

“आप लोग कहें तो हम लोग अभी शादी तय कर लें ।” उसने मीठी नज़रों से शन्नो को

देखते हुए कहा था । उसकी इस नज़र से शन्नो की रंगत गुलाबी हो उठी थी । फिर वी.जी. ही बोले थे, “बस, बन्नो की शादी तय होने का इंतजार हो रहा है । इनके मम्मी डैडी दोनों बहनों की शादी एक साथ करना चाह रहे हैं ।”

उन दोनों के जाने के बाद मैं बहुत ख़ुश थी । मेज़ पर से झूठे प्याले ट्रे में लगाते हुए बोली, “शन्नो कितनी `लकी` है । बहुत सुलझा हुआ पति मिल रहा है ।”

ये गंभीर हो उठे थे, “कभी-कभी `शुगर कोटेड टँग `वाले कभी बेहद ख़तरनाक निकलते हैं।”

“आप तो हर बात में बुरी बात ही ढूँढ़ने की कोशिश करते हैं । क्या कमी है वी.जी. में?” मैं झुंझला उठी थी ।

इत्तेफ़ाक से बन्नो के लिये हमारे शहर में ही लड़का मिल गया था । शादी के बाद दोनों बहने आम पर आई बौर जैसी महक उठी थीं । दोनों की फ़ाइनल परीक्षा बाकी थी । बन्नो तो बी.ए. फाइनल की परीक्षा भूल भालकर पति के घर चली गई थी । मैं शन्नो को पकड़कर पूछती थी, “तेरा पढ़ाई में मन कैसे लगता होगा ?”

वह शर्मा कर कहती, “मैंने तो वी.जी. से कितना मना किया था कि फ़ाइनल परीक्षा के बाद ही शादी की तारीख रखना लेकिन उसने बेशर्म होकर कह दिया था कि अब सब्र नहीं होता ।”

परीक्षा के बाद तैयारी शुरू हुई थी शन्नो की विदाई की । उसकी मम्मी रोज़ बाज़ार के चक्कर लगाने चल देती थी जो कमी शादी में रह गई थी वह ही अब पूरी कर रही थी । शन्नो झल्लाती, “मम्मी ! क्या वी.जी. कंगला है या बंबई में ये चीजें नहीं मिलेंगी ।”

“अभी तू गृहस्थी का मतलब समझती नहीं है । बंबई जाकर एकदम कहाँ सामान खरीदने निकल पड़ेगी?”

वी.जी. को छुट्टी नहीं मिली थी । शन्नो के डैडी ही उसे बंबई छोड़ने गये थे ।

एक महीने बाद पता लगा कि शन्नो बंबई से कुछ दिनों के लिये आई हुई है । मैं उसके हालचाल लेने, बीती हुई रातों के किस्से सुनने फौरन भागी थी उसके घर। दरवाज़ा उसकी माँ ने खोला था- उतरे हुए, उजड़े हुए स्याह मुँह से । मैंने अधिक ध्यान नहीं दिया, “शन्नो कहाँ है?”

वह भरे स्वर में बोली थीं, “अंदर वाले कमरे में है ।”

मैं अंदर वाले कमरे में उत्साह से जैसे ही गई, सामने वाला दृश्य मुझे जड़ कर देने के लिये काफ़ी था । पलंग पर तकिये को दीवार से लगाये उस पर अपना पीठ टिकाये शन्नो बैठी थी । बिखरे हुए बाल, रोता चेहरा । नीचे का होंठ व एक गाल सूजा हुआ था । दूसरे गाल पर एक लंबा नाखून का निशान बना हुआ था ।

मैं घबराकर उसके पास दौड़ती चली गई ।

“शन्नो! यह क्या हालत बना रखी है ?”

उसने खाली-खाली नजरों से मुझे देखा और अपने घुटनों में मुँह छिपाकर रोने लगी । उसकी मम्मी भी पलंग पर आकर बैठ गई । मैं समझ नहीं पा रही थी, उड़ती हँसती खिलखिलाती चिड़ियाँ के पर नोच उस ज़मीन पर किसने पटक दिया है ? मैं इतना भर पूछ पाई, “शन्नो ! क्या हुआ?”

उसकी मम्मी मेरे पास बैठ सिसकने लगी, “हमारी तो तकदीर फूट गई।”

“लेकिन हुआ क्या ?” उन दोनों की हालत देखकर मेरी भी आँखें डबडबा आई थीं ।

“वी.जी. ने इसे पहली रात से ही मारना शुरू कर दिया था ।”

“लेकिन इसने पहले कुछ भी नहीं बताया ।”

“हमें यही लगता था कि शादी से बहुत ख़ुश है ।”

“हाँ, तब कुछ नहीं बताया । ये बंबई छोड़ने गये थे तब वह इनके साथ बुरा व्यवहार करता रहा। मेरी बेटी ने तीन रात बाहर उसकी सीढ़ियों पर ही गुज़ारी हैं । जब सहा नहीं गया तो वहाँ से भागकर ये घर चली आई ।”

“वह तो पढ़ा लिखा है फिर कैसे....?”

“हमने शादी में इतना दिया है फिर भी वह ख़ुश नहीं है ।”

“मैं मान ही नहीं सकती कि वह शादी के लेन देन के लिये इसको तंग कर रहा है । कोई भी आदमी पहली रात को ही कैसे पत्नी को मारना शुरू कर सकता है?”

“पता नहीं, क्या बात है ? शन्नो ने बंबई में स्टेशन पर ही इनसे भरे गले से कहा था की वी.जी. का व्यवहार बड़ा ‘एबनार्मल’ है लेकिन वह कैसे भी उसके साथ ‘एडजस्ट’ कर लेगी । जब इसकी हिम्मत जवाब दे गई तो उस नरक से मकान मालिक की मदद से भाग आई ।”

आज सोचती हूँ, सारे समय मुस्कुराती होशियार-सी लड़की की किस्मत में वही नीच आदमी लिखा था ? नियति कहाँ से ढूँढ़कर उसे बांध गई थी शन्नो से सिर्फ़ तीन महिने के लिए ? उसका चेहरा देखा नहीं जाता था । स्याह पड़ी हुई आँखें, क्षोभ से झुकी हुई गर्दन । सिर्फ़ एक पुरुष के नाम पर हीतीन महीने माँग में सिंदूर भर जाने के लिये?पुरुष भी कैसा ? वहशियाना क्रोध में पागल हो जाने वाला । शन्नो की समस्या का कोई हल नहीं नज़र आ रहा था । उससे दादाजी व चाचा ने पुलिस में रिपोर्ट करने से मना कर दिया था । शन्नो को उन्होंने अपने पास बुला लिया था ।

जोशी जी अस्पताल से घर आ गये हैं । इधर-उधर पास-पड़ौस में कानाफूसी शुरू हो गई कि अब शन्नो यहाँ क्या कर रही है ? बाप के एक्सीडेंट को तो एक महीना बीत गया । शन्नो भी भेदती निगाहों से बची सी घूमती है वह बिल्कुल टूट चुकी है । कहीं भी कुछ करने की इच्छा शेष नहीं रही है ।

एक दिन सहमते दबे स्वर में उसकी माँ ने उससे कहा, “शन्नो ! रिसर्च करना चाह रही थी, कब शुरू कर रही है ?”

“मुझे अब कुछ नहीं करना । सब कुछ ख़त्म हो गया है । मैं अपने ख़त्म होने का इंतज़ार कर रही हूँ ।” वह चीखती तड़पती ज़ोर से रोने लगी ।

“ज़िंदगी एक ठोकर से ख़त्म तो नहीं हो जाती ।”

“लेकिन मेरी ज़िंदगी ख़त्म हो चुकी है । इतना अपमान सहकर मैं तभी क्यों नहीं मर गई। आज भी नहीं समझ पाती । ”

शन्नो गिरती-पड़ती, घिसटती लाश की तरह जी रही है । घर वालों का दिल रखने के लिये दो निवाले मुँह में किसी तरह डाल लेती है । सारा समय पलंग पर करवट लिये लेटी रहती है या फिर अपने कमरे में खिड़की की सलाखें पकड़े आसमान पर टंगे काले बादलों को बुझी आँखों से देखती रहती है । सब की बातें उस पर बेहद धीरे असर करती है । उसने शोध करने का निर्णय ले लिया है ।

मैं इतने दिनों तक उससे अकेले में मिलने की हिम्मत नहीं जुटा पाई हूँ । एक दिन वह स्वयं ही मेरे दरवाज़े पर उज़डी हुई आँखें लिये दर्द की तस्वीर सी खड़ी हो जाती है । मैं बाल छितराकर सतरंगी चुन्नी लहराकर, नज़ाकत से चलने वाली शन्नो को ढूँढ़ने लगती हूँ । कहाँ खो गई वह ?

वह बड़े सहमे से स्वर में पूछती है, “आँटी ! आऊँ ! आप सो तो नहीं रहीं?”

“अरे कैसी बात करती है । अंदर आ ना !”

वह सहमी सिकुड़ी सोफ़े पर बैठ जाती है । मैं जान बूझकर उसे शोध की बातों में, जोशी जी की बीमारी की बातों में उलझाये हुए हूँ । उसकी कराहती सी आँखें बीच-बीच में मुझसे शिकायत कर रही हैं । मैंने जो झेला है, उसके बारे में आप पूछने तक की हिम्मत नहीं कर पा रहीं ?

वह अनमनी सी मेरी बातें सुन रही है । अचानक वह तैश में आकर मुझसे पूछती है, “आँटी! एक बात का आप जवाब दीजिये । आप मेरे इस तरह से बंबई से भाग आने को ‘जस्टीफ़ाई’ करेंगी या नहीं ? ”

“बिल्कुल करूँगी । तुम तो बहादुर हो जो इतना सही कदम उठाया । तुम्हारी मम्मी को भी, जिन्होंने तुम्हें वापस नहीं भेजा ।”

“तो लोग ऐसा क्यों नहीं मानते?” कहते हुए वह फफ़क पड़ती है । “मैं जब दादा के घर थी तो सब मुझे वहाँ महसूस कराते रहते थे कि हमारे ख़ानदान में अब तक किसी लड़की ने हमारी नाक नहीं कटाई । जैसी जिसको ससुराल मिली वह वहीं की होकर रही ।”

“तेरी चाची तो बहुत अच्छी है ।”

“वह भी घुमा फिराकर यही जताती रहती थीं कि उनकी लड़कियों की शादी कैसे होगी? उन्हें शायद तब उतनी तकलीफ़ नहीं होती जब सुनती कि शन्नो केरोसिन डालकर आग लगाकर जल कर मर गई है या जला दी गई है । वहाँ नर्क की आग से झुलसने के बजाय मेरे जीने की कोशिश करने से लोगों को तकलीफ़ हो रही है ।”

“शन्नो! वह मौत तो एक कायर की मौत होती। तुमने बहुत अच्छा किया जो भाग आई ।”

“आप समझती हैं, भागने का निर्णय मैंने क्या एकदम ले लिया था ? तीन बार वी.जी.ने मेरी पिटाई करके घर से बाहर निकाल दिया । मैं तीनों रात सीढ़ियों पर पड़ी रोती रही । मकान मालिक के परिवार ने मुझे अपने घर सुलाया । उन लोगों के बहुत कहने पर मैंने दो बार ऊपर जाकर वी.जी. से माफ़ी माँगी जबकि मेरा कोई कसूर नहीं था । तीसरी बार....” बात पूरी करने से पहले ही वह फिर सिसक उठी है ।

“तेरी ये बातें बाद में सुनूँगी । मेरा दिल दहल रहा है ।”

“नहीं, आज आपको मैं बताकर रहूँगी ।” वह बड़ी मुश्किल से अपनी हिचकियों पर काबू पाती है, “आखिरी रात दस बजे तक खाना खाने के लिये उसकी प्रतीक्षा करती रही । मैंने सिर्फ़ इतना कहा कि रात में कम से कम आठ बजे तो घर लौट आया करो । उसने मेरे बाल पकड़ लिये और मेरे चेहरे पर दो तमाचे लगाये व चिल्लाया कि –मुझ पर हुकुम चलाने वाली तू कौन है ? निकल मेरे घर से । उसने मुझे बाहर धक्का देकर दरवाज़ा बंद कर लिया । आप ही बताइये, मैं और कितना अपमान सहती ? उसी रात मकान मालिक का सहारा लेकर भाग आई थी ।”

“शन्नो !असली बात क्या थी ? वह इतने अच्छे पद पर है फिर क्यों जंगलियों जैसा व्यवहार करता था?”

“अपने मामूली परिवार में वह एक ही पढ़ा लिखा है, सारे ख़ानदान में पूजा जाता है । शायद मेरी काबिलियत वह बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था ।”

“इस के अलावा भी ज़रूर कोई बात होगी जो उसने तुझे पहली रात से मारना आरम्भ कर दिया। वह व्यक्ति नॉर्मल तो हो ही नहीं सकता ।”

कितना अच्छा अभिनय कर गई थी शन्नो हनीमून से लौटकर । खूब भारी भरकम साड़ियाँ पहने, गहनों से लदी बात-बात पर खिलखिला उठती थी, बन्नो भी अपनी ससुराल में बहुत ख़ुश आई थी । दोनों बहने घर बाहर चहकती रहतीं । बन्नो मेहुल के किस्से चटखारे लेकर सुनाती, शन्नो वी.जी.के, श्री व श्रीमती जोशी उन्हें देखकर तृप्त हो उठते थे । तब हमें क्या पता था, शन्नो ने बड़ी बड़ी मुस्कराती, हँसी बिखेरती आँखों के नीचे की तरफ़ दर्द की एक कटीली लकीर बड़े यत्न से, गहरे फाउंडेशन से, छिपाकर रखी है । उसकी गहरी लिपस्टिक, काला मस्कारा, किसी बात को छिपाने के प्रयास भर थे ।

उस दिन शन्नो अपने घाव टुकड़े-टुकड़े कर मुझे पकड़ाती जा रही थी । किस तरह वी.जी. उसका मज़ाक उड़ाते हुए हँसा था, “मैडम ! यह बंबई है बंबई । यहाँ आप जैसी हज़ारों लड़कियाँ रिसर्च करने के लिए मारी मारी घूमती हैं । आप अपने ज़ूलॉजी डिपार्टमेंट के रीडर का पत्र लेकर आई हैं तो क्या हुआ ? कौन घास डालेगा आपको ?”

“एक बार मैं उन प्रोफ़ेसर से मिल तो लूँ जिनके नाम से पत्र लाई हूं ।”

दूसरे दिन वह विश्वविद्यालय से बहुत ख़ुश लौटी थी । उसने वी.जी. को बताया था. “पत है वी.जी. वह तो स्वयं ही मुझे रिसर्च करवाने के लिये तैयार हो गये हैं ।”

“ये हो ही नहीं सकता ।” वी.जी. का अहंकार फुँफ़कार उठा था, “वैसे भी तुम घर संभालोगी कि रिसर्च करोगी ?”

“लेकिन मैं घर पर बैठकर सिर्फ़ रोटियाँ नहीं पका सकती । तुम्हें रिसर्च पसंद नहीं है तो मैं नौकरी कर लूँगी ।”

“मुझे तुम्हारा घर से बाहर निकलना या नौकरी करना बिल्कुल पसंद नहीं है ।”

“फिर तुमने एक एम.एससी. लड़की से शादी क्यों की? तुमसे मेरी शादी हो गई है, अब तुम जो कहोगे वहीं करने को तैयार हूँ किन्तु मुझे शांति से जीने तो दो ।”

“तुम बहस बहुत करती हो !” कहते-कहते वी.जी. का हाथ उठना आरंभ हो गया था ।

शन्नो शोध में, जोशी जी मुकदमे के लिये धीरे-धीरे जानकारियाँ इकट्ठी करने में लगे हुए हैं । बड़ी अजीब सी बातें सामने आ रही है । वी.जी. अपनी नौकरानी से ही शादी करना चाहता था । विभाग की दो लड़कियों से भी उसके संबंध थे । शन्नो को विश्वविद्यालय जाते देखती हूँ तो सहम जाती हूँ । उसके सपनों का रंग, पता नहीं कहाँ छिप गया है । आँखों के आंगे काला दायरा बन गया है । अपनी लड़खड़ाई ज़िंदगी को संभालने की जद्दोजहद से वह बार-बार स्वयं लड़खड़ा जाती है ।

बन्नो अपने प्रसव के लिये रिवाज़ के मुताबिक माँ के घर आ गई है । वह जब भी समय मिलता है, भारी उदर से, हल्के कदमों से छत पर टहलती रहती है । शन्नो अपने शोध परिणामों को और भी गंभीरता से लिखने में जुटी रहती है । अपना अधिक से अधिक समय विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला में बिताने लगी है लेकिन बिना अपना दर्द दिखाये बन्नो के प्रसव की भागदौड़ करती रहती है । अस्पताल से वह और उसकी मम्मी बन्नो को उसके गुलगुले बेटे के साथ टैक्सी में वापस लाती हैं । जहाँ तक होता है वह माँ बेटे की साज संभाल में अपनी माँ का हाथ बँटाती है ।

बन्नो एक कमरे में अपने बेटे के गुदगुदे गाल से अपना गाल सटाये हुए नवजात की कोमलता महसूसते हुए ममत्व को गौरव से भर कुछ गुनगुना उठती है । उधर शन्नो डिसेक्शन ट्रे में छोटे-छोटे नवजात सफ़ेद चूहों की गर्दन पर निर्ममता से छुरी चला रही होती है । क्षोभ व क्रोध में वह सिर्फ़ एक की जगह चार चूहों को काट डालती है ।

कभी बन्नो का बेटा झूले पर टंगी घूमती हुई तेज चकरी को देखकर जल्दी-जल्दी पैर चलाकर किलकारी भरने लगता है तो शन्नो घर से निकल मेरे पास आकर बेवजह सिसकने लगती है । गुस्सा कहीं और उतरता है ।

“आंटी! मेरा तो इस कालोनी में रहना भी मुश्किल हो गया है । पहले तो सिर्फ़ लोग मुझे एक दूसरे को इशारा करके ही दिखाते थे । अब तो बस में लड़के भी आवाज़ें कसने लगे हैं –पति को छोड़कर तो हम भी रिसर्च कर लें। कोई कहता है-सुना है, अपने किसी प्रोफ़ेसर के लिये पति छोड़ आई है । कोई कहता है- ज़रूर चालू होगी ।”

“तू दुनिया की परवाह क्यों करती है ? तेरे मम्मी पापा तो तेरे साथ हैं, तेरा सच तो तेरे साथ है ।”

“वे बेचारे क्या करें ? लोगों की बातें सुन-सुन कर उनकी हालत ख़राब हो गई है । कुछ रिश्तेदारों ने तो सिर्फ़ उनसे इसलिये संबंध तोड़ लिये हैं कि उन्होंने मुझे पनाह दी है । उनकी सूरत देखकर मुझे लगता है कि इससे तो अच्छा था, मैं जलकर कहीं मर जाती ।”

“ऐसा क्यों सोचती है ? जीवन में बहुत उतार चढ़ाव आते रहते हैं ।”

“मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ? मैंने किसी का क्या बिगाड़ा था?”

“मैं निरूत्तर हूँ, लड़कियों की तकदीरें उनके किसी को बिगाड़ने या न बिगाड़ने के आधार पर कहाँ लिखी जाती हैं ? कुछ जीवन तो माँ बाप के यही हँसते खिलखिलाते कट जाता है । बाकी का जीवन कैसा होगा, यह उसकी माँग की तरफ बढ़ता एक हाथ निर्णय लेता है, सिर्फ़ एक हाथ जिसकी उँगलियों में चुटकी भर सिन्दूर होता है ।

पता नहीं, कैसा विश्वास मेरे मन में था कि शन्नो जैसी लड़की को इस जरा सी बात के कारण भला कौन दोबारा अपनाने से इंकार कर देगा ? तब मुझे कहाँ पता था, स्त्री की माँग से चुटकी भर सिंदूर का लग जाना एक बहुत बड़ी बात होती है । उस स्त्री की परिभाषा ही बदल जाती है। जोशी परिवार कॉलोनी वालों की बातों से तंग आकर किसी और कॉलोनी में जा बसा है, बिना किये अपराध की सज़ा भोगता हुआ ।

मुकदमा चलते चलते महीने, साल निकले जा रहे हैं । वी.जी. मुकदमें की हर तारीख को गायब ही रहता है । जोशी जी किसी तरह पता लगाते हैं, वी.जी. ने अपने गाँव की किसी लड़की से शादी कर ली है । उसके एक बेटा भी पैदा हो गया है ।

शन्नो की माँ व उसके पिता गाँव जाकर शादी करवाने वाले पुजारी के सामने जब रो उठते हैं तब कहीं वह कोर्ट में गवाही देने के लिये तैयार होता है किंतु कोर्ट में वी.जी. को पहचानने तक से इंकार कर देता है ।

कोर्ट से लौटकर श्रीमती जोशी छटपटातीं है, “वह शादी करके एक लड़की के साथ रह रहा है और हम सबूत तक नहीं जुटा पा रहे ।”

“पुलिस से इसके घर छापा पड़वा दीजिये । सबूत अपने आप मिल जायेगा ।”

“पुलिस उसके घर गई थी । लेकिन उस दुष्ट ने अपनी पत्नी को चचेरी बहन बता दिया ।”

इस मुकदमें की आखिरी आस अब वी.जी. के मकान मालिक पर टिकी हुई है । वह तो वी.जी. को सीखंचों के पीछे खड़ा कराने में मदद करेंगे ही । उनकी गवाही सुनने के लिए मैं भी कोर्ट जाती हूँ ।

वह कोर्ट के कटघरे में बोलना शुरू करते हैं, “जज साहब !वी.जी. हीरा लड़का है, हीरा। यह बात सच है कि इन दोनों की लड़ाई में दो रात मैंने और मेरी पत्नी ने इस लड़की को पनाह दी उसे बंबई से अपने घर तक पहुँचने के लिये रुपये दिये । मुझे बाद में इन दोनों की लड़ाई का कारण मालुम पड़ा । ये लड़की वी.जी. को हाथ तक नहीं लगाने देती थी । उसने इसे समझाया भी था । शादी के पहले इसके साथ कोई दुर्घटना हो गई हो या इसके किसी प्रेमी ने इसे धोखा दिया हो तो वह उसे हाथ भी नहीं लगायेगा । एक साल तक इंतज़ार कर लेगा फिर भी यह घमंडी लड़की उसे छोड़कर भाग गई ।”

मुझे लग रहा है, कोर्ट की एक एक चीज घूम रही है । मैं ही कुर्सी से उठने में असमर्थ हो रही हूँ । इन लांछनों में फँसा दी गई शन्नो की तस्वीर सही है या दस साल मेरी आँखों द्वारा देखी गई या मेरी सहेली व उसकी प्रोफ़ेसर की बात, “जोशी आर वेरी लकी पैरेन्ट्स। दे हैव गाट ए सच ए ब्रिलिएंट डाटर लाइक शन्नो ।”

वी.जी. कोर्ट की तारीख पर कभी आता, कभी नहीं आता, तलाक की अब उसे कोई जल्दी नहीं है । गऊ जैसी पत्नी से पुत्र पाकर वह पिता भी बन गया है । उधर शन्नो ने अपने आप को व्यस्त कर लिया है ।

वह यू.जी.सी. स्कॉलरशिप पाकर ख़ुश है । हर सेमिनार व कांफ्रेंस में उसके शोध पत्रों की तारीफ़ होती है । उसके चेहरे से अब कोई जान नहीं पाता कि अकेले में उन ख़ौफ़नाक यादों के दंश उसे किस तरह छटपटाते हैं ।

एक साथ दो बातें होती हैं । शन्नो बेमतलब की शादी से मुक्त हो जाती है, उसे तलाक मिल गया है । शोध के बाद उसी विश्वविद्यालय में उसे नौकरी मिल जाती है । उसने दिखा दिया है कि चुटकी भर लाल रंग की बैसाखी या केरोसीन के डिब्बे के बिना भी उसे जीना आता है । लेकिन मैं जब-जब उससे मिलती हूँ उसी खिलखिलाती चहकती शन्नो को ढूँढ़ने लगती हूँ । पता नहीं कहां खो गई है वह । वी.जी. ने तो कानून को धता बताकर पहले ही अपना रास्ता निकाल लिया था लेकिन शन्नो की नाव किस किनारे लगेगी, कौन जाने ? उसे अमेरिका में रिसर्च असिस्टेंट की पोस्ट का ऑफ़र मिलता है,वह चली जाती है। बाद में वह अपनी कर्मठता से अमेरिका के विश्वविद्यालय में अध्यापन कर रही है. मैं बहुत आश्वस्त हूँ -यह तो ज़रूर है, वह सुखी न भी हुई तो दुखी नहीं होगी ।

- श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ