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मां ! पराई हुई देहरी तेरी

नीलम कुलश्रेष्ठ

कमरे में पैर रखते ही पता नहीं क्यों दिल धक से रह जाता है । मम्मी के घर के मेरे कमरे में इतनी जल्दी सब कुछ बदल सकता है मैं सोच भी नहीं सकती थी ? कमरे में मेरी पसंद के क्रीम रंग की जगह हलका आसमानी रंग हो गया है ।पर्दे भी हरे रंग की जगह नीले रंग के लगा दिये गये हैं, जिन पर बड़े बड़े गुलाबी फूल बने हुए हैं ।

मैं अपना पलंग दरवाज़े के सामने वाली दीवार की तरफ़ रखना पसंद करती थी । अब भैया भाभी का दोहरा पलंग कुछ इस तरह रखा गया है कि वह दरवाज़े से दिखाई न दे । पलंग पर भाभी लेटी हुई हैं । जिधर मेरी पत्रिकाओं का रैक रखा रहता था । अब उसे हटा कर वहाँ झूला रख दिया गया है, जिस में वह सफेद मखमल सा शिशु किलकारियाँ ले रहा है, जिस के लिए मैं भैया की शादी के दस महीने बाद बनारस से भागी चली आ रही हूँ लेकिन यहां आकर ऐसा लग रहा है कि मेरा वजूद ही इस घर से किसी ने मिटा दिया है ।

“आइये दीदी !आप की आवाज़ से तो घर चहक रहा था, किंतु आप को तो पता ही है कि हमारी तो इस बिस्तर पर कैद ही हो गई है ।” भाभी के चेहरे पर नवजात मातृत्व की कमनीय आभा है । वह तकिये का सहारा लेकर बैठ जाती हैं, “आप पलंग पर मेरे पास ही बैठ जाइये ।”

मुझे कुछ अटपटा सा लगता है । मेरी मम्मी के घर में मेरे अपने ही कमरे में कोई बैठा मुझे ही एक पराये मेहमान की तरह आग्रह से बैठा रहा है ।

“पहले यह बताइये कि अब आप कैसी हैं ?” मैं सहज बनने की कोशिश करती हूँ ।

“यह तो हमें देख कर बताइये । आप चाहे उम्र में छोटी सही, लेकिन अब तो हमें आप के भतीजे को पालने के लिए आप के निर्देश चाहिये । हमने तो आप को ननद के साथ गुरु भी बना लिया है । सुना है, तनुजी ‘बेबी शो’ में प्रथम आये थे . ”

मैं थोड़ा सकुचा जाती हूँ । भैया मुझ से तीन वर्ष ही तो बड़े थे, लेकिन उन्हीं की ज़िद थी कि पहले मीनू की शादी होगी, तभी वह शादी करेंगे । मेरी शादी भी पहले हो गई और बच्चा भी ।

भाभी अपनी ही रौ में बताये जा रही हैं कि किस तरह अंतिम क्षणों में उनकी हालत ख़राब हो गई थी । ऑपरेशन द्वारा प्रसव हुआ ।

“आप तो लिखती थीं कि सब कुछ सामान्य चल रहा है फिर ऑपरेशन क्यों हुआ?” कहते हुए मेरी नज़र अलमारी पर फिसल जाती है, जहाँ मेरी अर्थशास्त्र की मोटी मोटी किताबें रखी रहती थीं । वहाँ एक खाने में मुन्ने के कपड़े, दूसरे में झुनझुने व छोटेमोटे खिलौने । ऊपर वाला खाना गुलदस्तों से सजा हुआ है ।

“सब कुछ सामान्य ही था लेकिन आजकल ये प्राइवेट नर्सिंग होम वाले कुछ इस तरह ‘गंभीर अवस्था’ का खाका खींचते हैं कि बच्चे की धड़कन कम हो रही है और अगर आधे घंटे में बच्चा नहीं हुआ तो मम्मी-बच्चे दोनों की जान को खतरा है । घर वालों को तो घबरा करऑपरेशन के लिए ‘हाँ’ कहनीही पड़ती है ।”

“अब तो जिस से सुनो उस के ही ऑपरेशन से बच्चा हो रहा है । हमारे ज़माने में तो इक्कादुक्का बच्चे ही ऑपरेशन से होते थे ।” मम्मी शायद रसोई में हमारी बात सुन रही हैं, वहीं से हमारी बातों में दखल देती हैं ।

मेरी टटोलती निगाह उन क्षणों के ढ़ेर को छूना चाह रही है जो मैंने अपनी मम्मी के घर के इस कमरे में गुज़ारे हैं । परीक्षा की तैयारी करनी है तो यही कमरा । बाहर जाने के लिए तैयार होना है तो ड्रेसिंग टेबल के सामने घूम घूम कर अपने आप को निरखने के लिए यह कमरा । पता नहीं क्यों हमारा जीवन उल्लू सा निकल गया ? न कॉलोनी के ,न कॉलेज वाली फ़्रेंड्स के दोस्त बने ,जो मैं सोचती कि इसी कमरे में सैंट में डूबे लवलैटर्स लिखे थे।

मम्मी या पिताजी से कोई अपनी ज़िद मनवानी हो तो पलंग पर उलटे लेट कर रूठने के लिए यही कमरा या किसी बात पर रोना हो तो सुबकने के लिए इसी कमरे का कोना। मेरा क्या कुछ नहीं जुड़ा था इस कमरे से । अब यही कमरा इतना बेगाना लग रहा है कि यह अपनी उछलती कूदती मीनू को पहचान नहीं पा रहा ।

“तू यहाँ छिपी बैठी है, मैं तुझे कब से ढूँढ़ रहा हूँ ।” भैया आते ही एक चपत मेरे सिर पर लगाते हैं । भाभी के हाथ में कुछ पैकेट थमा कर कहते हैं, “लीजिये, बंदा आप के लिए टॉनिक्स व फल ले आया है।” फिर मुन्ने को गोद में उठा कर अपना गाल उस के गाल से सटाते हुए कहते हैं, “देखा तू ने इसे । मम्मी कह रही थीं, बचपन में तू बिलकुल ऐसी ही लगती थी । अगर यह तुझ पर ही गया तो इस के नखरे उठाते उठाते हमारी मुसीबत ही आ जायेगी ।”

“मारूँगी, ऐसे कहा तो ।” मैं तुनक कर जवाब देती हूँ । मुझे यह दृश्य भला सा लग रहा है । अपने संपूर्ण पुरुषत्व की पराकाष्ठा पर पहुँचा पितृत्व के गर्व से दीप्त मुन्ने के गाल से सटा भैया का चेहरा । सब कुछ बेहद अच्छा लगने पर भी, इतनी ख़ुश होते हुए भी एक कतरा उदासी चुपके से आ कर मेरे पास बैठ जाती है । मैं भैया की शादी में भी कितनी मस्त थी । भैया की शादी की तैयारी करवाने पंद्रह दिन पहले ही चली आई थी । मैंने और मम्मी ने बहुत चाव से ढूँढ़ढूँढ़ कर शादी का सामान चुना था । अपने लिए शादी के दिन के लिए लहंगा व स्वागत समारोह के तनछोई की साड़ी चुनी थी । बरात में भी देर तक नाचती रही थी ।

मम्मी व मैं घर पर सारी खुशियाँ समेट कर भाभी का स्वागत करने के लिए खड़ी थीं । भैया भाभी के आँचल से अपने फेंटे की गाँठ बाँधे धीरे धीरे दरवाज़े पर आ रहे थे ।

“अंदर आने का टैक्स लगेगा, भैया !” मैंने अपना हाथ फैला दिया था ।

“पराये घर की छोकरी मुझ से टैक्स मम्मीग रही है, चल हट रास्ते से ।” भैया मुझे ख़िझाने के लिए आगे बढ़ते आये थे।

“मैं तो नहीं हटूँगी ।” मैं भी अड़ गई थी ।

“कमल ! झिकझिक न कर, नेग तो देना ही होगा ।” मम्मी और एक बुज़ुर्ग महिला ने बीच बचाव किया था ।

“तुम्हीं बताओ इसे कितनी बख़्शीश दें ?” भैया ने स्नेहिल दृष्टि से भाभी को देखते हुए पूछा था ।

भाभी तो संकोच से आधे घूँघट में और भी सिमट गई थीं किंतु मुझे कुछ बुरा लगा था । मुझे कुछ देने के लिए भैया को अब किसी से पूछने की ज़रूरत महसूस होने लगी है ।

अपनी शादी के बाद पहले विनय का फिर तनु का आगमन, सच ही मैं भी अपनी दुनियाँ में मस्त हो गई थी । मुझे ख़ुश देखती मम्मी, पिताजी व भैया की खुशी से उछलती तृप्त दृष्टि में भी एक कातर रेखा होती थी कि मीनू अब पराई हो गई। मम्मी तो मुझ से कितनी जुड़ी हुई थी । घर का कोई महत्त्वपूर्ण काम होता है तो मीनू से पूछ लो, कुछ विशेष सामान लाना हो तो मीनू से पूछ लो, शायद मेरे पराये हो जाने का एहसास ही उन के लिये मेरे विछोह को सहने की शक्ति भी बना हो ।

“संभालो अपने शहज़ादे को ।” भैया, मुन्ने तो भाभी के पास लिटाते हुए बोले, “अब पड़ेगी डांट । मैं यह कहने आया था कि डाइनिंग टेबल पर सब तेरा इंतज़ार कर रहे हैं ।”

खाने की मेज़ पर तनु नानी की गोद में बैठा दूध का गिलास होंठों से लगाए हुए है ।

मेरे बैठते ही मम्मी विनय से कहती हैं, “विनयजी ! मैं सोच रही हूँ कि तीन महीने बाद हम मुन्ने का मुंडन करवा देंगे । आप लोग ज़रूर आइये क्योंकि बच्चे के उतरे हुए बाल बुआ लेती है ।”

मैं या विनय कुछ कहें इस से पहले ही भैया के मुँह से निकल पड़ता है, “अब ये लोग इतनी जल्दी थोड़े ही आ पायेंगे ?”

मैं जानती हूँ कि भैया की इस बात में कोई दुराव नहीं है पर पता नहीं क्यों मेरा चेहरा बेरौनक हो उठता है ।

विनय निर्विकार उत्तर देते हैं, “तीन महीने बाद तो आना नहीं हो सकता । इतनी जल्दी मुझे छुट्टी भी नहीं मिलेगी ।”

मम्मी जैसे बचपन में मेरे चेहरे की एकएक रेखा पढ़ लेती थीं, वैसे ही उन्होंने अब भी मेरे चेहरे की भाषा पढ़ ली है । वह भैया को हलकी सी झिड़की देती हैं, “तू कैसा भाई है, अपनी तरफ़ से ही बहन के न आ सकने की मज़बूरी बता रहा है । तभी तो हमारे लोकगीतों में कहा गया है, ‘माय कहे बेटी नित नित अइयो, बाप कहे छः मास, भाई कहे बहन साल पीछे आइयो...’” वह आगे की पंक्ति ‘भाभी कहे कहाँ काम’ जानबूझ कर नहीं कहतीं ।

“ मम्मी, मेरा यह मतलब नहीं था ।” अब भैया का चेहरा देखने लायक हो रहा है । लेकिन मैं व विनय जोर से हँस कर वातावरण हलका फुलका कर देते हैं ।

मैं चाय पीते हुए देख रही हूँ कि मम्मी का चेहरा इन दस महीनों में खुशी से कितना खिला खिला हो गया है । वर्ना मेरी शादी के बाद उन की सूरत कितनी बुझी बुझी रहती थी । जब भी मैं बनारस से यहाँ आती तो एक मिनट भी चुप नहीं बैठती थी । हर समय उत्साह से भरी कोई किस्सा सुनाने में लगी रहती थीं ।

“ मम्मी! आप बोलतेबोलते थकती नहीं है ।” मैं चुटकी लेती ।

“तू चली जायेगी तो सारे घर में मेरी बात सुननेवाला कौन बचेगा ? हर समय मुँह सीए बैठी रहती हूँ । मुझे बोलने से मत मना कर । अकेले में तो सारा घर भांय भांय करता रहता है ।”

“तो भैया की शादी कर दीजिये, दिल लग जायेगा ।”

“बस उसी के लिये लड़की देखनी है । तू भी कोई लड़की नज़र में रखना ।”

कभी मम्मी को मेरी शादी की चिंता थी । उन दिनों तो उन के जीवन का जैसे एकमात्र लक्ष्य था कि किसी तरह मेरी शादी हो । लेकिन वह लक्ष्य प्राप्त करने के बाद उन का जीवन फिर ठिठक कर खड़ा हो गया था । कैसा होता है जीवन भी । एक पड़ाव पर पहुँच कर दूसरे पड़ाव पर पहुँचने की हड़बड़ी स्वतः ही अंकुरित हो जाती है।

“ मम्मी! लगता है अब आप बहुत ख़ुश हैं ?”

“अभी तो तसल्ली से ख़ुश होने का समय भी नहीं है । नौकर के होते हुए भी मैं तो मुन्ने की आया बन गई हूँ । सारे दिन उस के आगे पीछे घूमना पड़ता है ।” उन के स्वर में लाड़ भरा उलाहना है । वह मुन्ने को रात के दस बजे अपने बिस्तर पर लिटा कर उस से बातें कर रही है । वह भी अपनी काली चमकीली आँखों से उन के मुँह को देख रहा है । अपने दोनों होंठ सिकोड़ कर कुछ आवाज निकालने की कोशिश कर रहा है । तनु भी नानी के पास आलथी पालथी बना कर बैठा हुआ है । वह इसी चक्कर में है कि कब अपनी उंगली मुन्ने की आँख में गड़ा दे या उस के गाल पर पप्पी ले ले ।

“ मम्मी! दस बज गये ।” मैं जानबूझ कर कहती हूँ क्योंकि मम्मी की आदत है, जहाँ घड़ी पर नज़र गई कि दस बजे हैं तो अधूरे काम भी छोड़ कर बिस्तर में जा घुसेंगी क्योंकि उन्हें सुबह जल्दी उठने की आदत है ।

“दस बज गये तो क्या हुआ ? अभी अमाला मुन्ना लाजा छोया नहीं है तो अम कैसे छो जायें ?” मम्मी जानबूझ कर तुतला कर बोलते हुए स्वयं बच्चा बन गई हैं ।

थोड़ी देर में मुन्ने को सुला कर मम्मी ढ़ोलक ले कर बैठ जाती हैं , “पाँच जच्चा शगुन की गा लें, आज दिन भर वक्त नहीं मिला ।”

मैं उबासी लेते हुए उन के पास नीचे फ़र्श पर बैठ जाती हूँ । उन्हें रात के ग्यारह बजे उत्साह से गाते देख कर सोच रही हूँ कि कहाँ गया उन का जोड़ों या कमर का दर्द ? मम्मी को देख कर मैं किसी हद तक संतुष्ट हो उठी हूँ । अब कभी बनारस में अपने सुखद क्षणों में यह टीस तो नहीं उठेगी कि वह कितनी अकेली हो गई हैं । मेरा यह अनुभव तो बिलकुल नया है कि मम्मी मेरे बिना भी सुखी हो सकती हैं ।

नामकरण संस्कार वाले दिन सुबह तो घर परिवार के लोग ही जुटे थे ।पूजा में पंडित श्लोक पढ़ रहे हैं ,भाई भाभी गाँठ बाँधे बैठे हुए हैं। नन्हा भाभी की गोद में लेटा अपनी दोनों सुकुमार लाल पड़े हाथों से मुठ्ठी बांधे ,उन्हें सिर की तरफ ताने सो रहा है। कभी ज़ोर की आवाज़ होती है तो मिचमिचाकर आँखें खोल देता है और फिर सो जाता है।

भीड़ तो शाम से बढ़नी शुरू होती है । कुछ औरतों को शामियाने में जगह नहीं मिलती, इसलिये वे घर के अंदर चली आ रही हैं । खाना पीना, शोर शराबा, गाना बजाना, उपहारों व लिफ़ाफों को संभालते पता ही नहीं लगता कब साढ़े ग्यारह बज गये हैं ।

मेहमान लगभग जा चुके हैं । कुछ भूले भटके सात आठ लोग ही खाने की मेज़ के इर्दगिर्द प्लेट्स हाथ में लिये गपशप कर रहे हैं । बेयरों ने तंग आ कर अपनी टोपियाँ उतार दी हैं । वे मेज़ पर रखे डोंगों व नीचे रखी व शामियाने में बिखरी झूठी प्लेटों व गिलासों को समेटने में लगे हुए हैं ।

तभी एक बेयरा गुलाब जामुन व हरी बर्फ़ी से प्लेट में ‘शुभकामनाएं’ लिख कर घर के अंदर आ जाता है । लखनऊ वाली मामी बरामदे में बैठी हैं । वह उन्हीं से पूछता है, “बहूजी! कहाँ है, जिन के बच्चे की दावत है?”

तभी सारे घर में बहू की पुकार मच उठती है, भाभी अपने कमरे में नहीं हैं । मुन्ना तो झूले में सो रहा है । मैं भी उन्हें मम्मी, पिताजी के कमरे में तलाश आती हूँ ।

तभी मम्मी मुझे बताती हैं , “मैंने ही उसे ऊपर के कमरे में कपड़े बदलने भेजा है, बेचारी साड़ी व ज़ेवरों में परेशान हो रही थी ।”

मैं ऊपर के कमरे में बंद दरवाज़े पर ठकठक करती हूँ, “भाभी !जल्दी नीचे उतरिये, बेयरा आप का इंतजार कर रहा है ।”

भाभी आहिस्ता आहिस्ता सीढ़ियों से नीचे उतरती हैं । अभी उन्होंने ज़ेवर नहीं उतारे हैं । उन के चलने से पायलों की प्यारी सी रुनझुन बज रही है ।

“बहूजी ! हमारी शुभकामनाएं लीजिये ।” बेयरा सजी हुई प्लेट लिये आंगन में आ कर भाभी के आगे बढ़ाता है । भाभी कुछ समझ नहीं पातीं । मामी बरामदे में निक्की की चोटी गूंथते हुए चिल्लातीं हैं , “बहू! इन को बख़्शीश चाहिये ।”

“अच्छा जी ।” भाभी धीमे से कह कर अपने कमरे में से पर्स ले आती हैं ।

अब तक मम्मी के घर के हर महत्त्वपूर्ण काम में मुझे हीं ढूँढ़ा जाता रहा है कि मीनू कहाँ है ? मीनू को बुलाओ, उसे ही पता होगा । मैं...मैं क्यों अनमनी हो उठी हूं । क्या सच में मैं यह नहीं चाह रही कि बेयरा प्लेट सजा कर ढूँढ़ता फिरे कि इस घर की बेटी कहां है ?

“दो हज़ार ? इतने से काम नहीं चलेगा, बहूजी ।”

भाभी पाँच हज़ार रूपये भी डालती हैं लेकिन वह बेयरा नहीं मानता । आखिर भाभी को झुकना पड़ता है । वह पर्स में से पांच सौ रुपये और निकालती हैं । बेयरे को बख़्शीश देता हुआ उन का उठा हुआ हाथ मुझे लगता है, जिस घर के कण कण में मैं रचीबसी थी, जिस से अलग मेरी कोई पहचान नहीं थी । अचानक उस घर की सत्ता अपनी समग्रता लिये फिसल कर भाभी के उठे हुए हाथ में सिमट आई है । न जाने क्यों मेरे अंदर अकस्मात कुछ चटखता है. मेरे होंठ बुदबुदा उठते हैं, “माँ !पराई हुई तेरी देहरी। “

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नीलम कुलश्रेष्ठ