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प्रेमचन्द का समाज

कृष्ण विहारी लाल पाण्डे
लेख-
प्रेमचन्द का समाज
हिंदी कथा साहित्य के प्रतीक रचनाकार प्रेमचंद के अन्य प्रदेशों के साथ उनकी प्रासंगिकता का विशेष उल्लेख किया जाता है । प्रासंगिकता के 2 आयाम होते हैं -एक अपने समय में सार्थक होना और दूसरा इस समय का अतिक्रमण करके भविष्य की स्थितियों में भी संगत बने रहना।
समय बोधक होते हुए भी समकालीनता केवल काल की अवधारणा नहीं है, वह अपने समय के मात्र भौतिक उपस्थिति नहीं है । समकालीनता अपने समय के साथ ऐसी वर्तमानता है, कि इसमें हम उस समय के प्रभावों और दबावों के साथ अंतः क्रिया और प्रतिक्रिया करते हैं । उस समय का जीवन और घटित हमारे बोध को विचलित प्रभावित करता है। समकालीनता अपने समय के साथ हमारा संवाद है और अनुभूति के स्तर पर उसकी समीक्षा है । यह समीक्षा तभी हो सकती है जब हमारी रचना संवेदना अपने समय के बंधुओं को पहचान कर अतीत संदर्भों के रूप में उसकी परख करें। समकालीनता किसी समय की स्थिति का यथा तथ्य भी नहीं है। उस समय में बने या बन रहे मूल्यों के प्रति रचनाकार का व्यवहार है अर्थात समकालीनता का एक प्रत्यय मूल्यपरकता भी है।
अपने समकाल को रचनात्मकता में अभिव्यक्त करते करने के लिए लेखक की तीव्र संवेदना और माध्यम की संप्रेषण इयत्ता जरूरी तत्व है। इस आधार पर अपने समय को जितनी व्यापकता में प्रेमचंद ने समझा और व्यक्त किया है, उतना शायद किसी और ने नहीं। रवि रंजन ने अपने एक लेख में लिखा है कि उस समय के परिवेश को कितने साफ ढंग से प्रेमचंद के साहित्य के माध्यम से देखा जा सकता है, उतने सही ढंग से उसे ना तो किसी इतिहासकार के वर्णन से और ना किसी समाजशास्त्री के विश्लेषण से समझा जा सकता है। इसीलिए यह कहना ज्यादा अतिश्योक्ति ना होगी कि यदि समाजशास्त्रीय दृष्टि से साहित्य अपने समय का एक दस्तावेज है, तो प्रेमचंद के कथा साहित्य से बढ़कर उसका कोई प्रामाणिक रूप कम से कम 1937 ईस्वी तक तो दिखता ही दिखलाई पड़ता है।

समकालीनता का एक पक्ष और है कि हम कितने अतीत को अपने समकाल में शामिल करें। स्थितियों की वर्तमानता जितने पूर्व और उपस्थित समय को प्रमाणित करें उतनी वह, अब जितनी वह हमारे जीवन को प्रभावित करें, वह हमारी समकालीनता है । यह अल्पायु भी हो सकती है और उम्र दराज भी ।
आज परिवर्तन की प्रक्रिया इतनी तीव्र है कि हमें वर्तमान को भी अपने बोध में लेना पड़ता है। एक गति से हो रहे इस परिवर्तन के तत्काल को हम रह रहकर स्थिर नहीं कर सकते कि अभी इसे बैंक तो होना है।

प्रेमचंद के कथा साहित्य में ऐसे ही तत्काल उसका समकाल बनाते हैं । दोस्त और सरोकारों की दृष्टि से अपने समय को देखना और लिखना लेखक को प्रामाणिक बनाता है। वह चाहे बेस्ट का देखना, नमक का दरोगा, बड़े घर की बेटी, सद्गति, ठाकुर का कुआं ,मंत्र ,ईश्वर, मोटे राम ,दो बैलों की कथा, पूस की रात और शतरंज के खिलाड़ी जैसी कहानियों का रंगभूमि कर्मभूमि , निर्मला और गोदान तथा मंगलसूत्र जैसे उपन्यासों उस समय का उससे अधिक प्रामाणिक यथार्थ और कहां मिलेगा ?
एक लेखक के रूप में प्रेमचंद का उदय अपनी मान्यताओं धारणा और पक्षधर अदाओं के साथ हुआ । उनकी प्रतिबद्धता स्पष्ट थी अगर उनमें कोई बदलाव मिलता है तो वह सुधार और आदर्श के प्रति आस्था का धीरे-धीरे मोह भँग होना और यथार्थ को पूरी तरह स्वीकार कर लेना। हालांकि वह जानते थे कि चेतना के विचार धरातल पर सभी अर्थों में यथार्थवादी हो पाना आसान नहीं है यथार्थ वस्तु भी प्रतिलिपि नहीं है, वह विचार की पूरी संहिता है ,जीवन दृष्टि का घोषणा पत्र है ।
प्रेमचंद के समय अभिजात्य में बदलता सामंतवाद था। अपनी निर्भय और शोषक शक्तियों के साथ साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, जमीदारों और साहूकारों के नीचे रिश्ते मिटते किसान थे । अपनी रूढ़ परंपराओं में ग्रस्त मध्यमवर्ग था। जातियों के बेदर्दऔर त्रासद विभाजन थे। दलित और स्त्री के प्रति हमारी धारणाओं के प्रश्न थे ।नवजागरण से प्रेरित सामाजिक, सांस्कृतिक पुनर पाठ के गुलामी के विरुद्ध आजादी का संगठित हो ना था और पश्चिम से आती हुई आधुनिकता के प्रभाव थे। संयुक्त परिवार, विधवा विवाह ,बाल विवाह जैसी सामाजिक मुद्दे नई तरह संबोधित हो रहे थे।
साहित्य अपने कलात्मक मनोरंजन और रहस्य रोमांच के अंतरिक्ष से उतरकर धरती पर आ रहा था। तब प्रेमचन्द अपने साहित्य का उद्देश्य शीर्षक अपने लेख में पूरी साहित्य की तैयार कर रहे थे। इस में बदलते हुए रचना मूल्य थे, वंचितों- पीड़ितों और दलितों की पक्षधरता थी.. खुद उठाई वे शपथ थी, जिन्हें उन्होंने कभी नहीं तोड़ा ।
साहित्य की सबसे सही परिभाषा मानते थे कि वह जीवन की आलोचना है साहित्य का उद्देश्य हमारी अनुभूतियों को तीव्र बनाना है और साहित्य केवल मन बहलाव की चीज नहीं है ।मनोरंजन के सिवा उसका और कुछ उद्देश्य है और यह उद्देश्य जीवन की समस्याओं पर विचार करना और उन्हें हल करना है ।साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन को सामान में जुटाना नहीं है। वह देश भक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं ,बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई सच्चाई है। जब साहित्य जीवन और जगत के यथार्थ के इतने करीब आ जाएगा तो स्वाभाविक है कि हमारी दृष्टि भी बदले । इसलिए प्रेमचंद कहते हैं कि अब इससे हमारी सुंदरता की कसौटी बदलना होगी, अब वह बच्चों वाली उस गरीब स्त्री में भी देखा जाएगा ,जो बच्चे को खेत की मेड़ पर सुला पसीना बहा रही है ।वह मानते थे कि हमारी कसौटी पर वहां वही साहित्य खरा उतरेगा इसमें उच्च चिंतन हो , स्वाधीनता का भाव, सौंदर्य का सार हो, सजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाई यों का प्रकाश हो; जो हम हर गति और संघर्ष और बेचैन पैदा करें ।
प्रेमचंद उपयोगिता की तुला पर चलते थे। यही समय अपनी समस्याओं और लेखक के सरोकारों के साथ प्रेमचंद के उपन्यासों और उनकी कहानियों में मिलता है। सेवासदन उपन्यास में त्यक्ता पत्नी भी दुखद समस्या है ,उसमें उसे देह व्यापार तक जाना पड़ता है, पर वह अपनी स्वतंत्र अस्मिता के लिए संघर्ष करती है। प्रतिज्ञा उपन्यास में विधवा के पुनर्विवाह का प्रश्न उठाया गया है। प्रेमाश्रम में प्रेमचंद सामंती स्थान के पूंजीवाद में बदलने और किसानों पर होने वाले अन्याय की कथा कहते हैं । यहां शोषण के विरुद्ध विद्रोह उभरने लगता है । रंगभूमि उपन्यास में औद्योगिक शोषण का एक सामान्य व्यक्ति के का कथानक है । कर्मभूमि में सरकार के विरोध में किसान नेतृत्व का उदय होता है । गोदान उपन्यास तक आते-आते वह विभिन्न सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को अपनी पूरी संवेदना से उतार रहे थे। प्रारंभ में समाज सुधार से की गई उनकी उम्मीद टूटने लगी थी।उसके विरोध में बैठकर की बीवी को दान में किसान से लेकर उद्योगपति तक और अपनी रूढ़ियों से लेकर मालती और प्रसन्न मेहता तक का व्यापक समाज अपनी पूरी विविधता के साथ प्रस्तुत है। किसान के जीवन की त्रासदी का यह उपन्यास ही प्रेमचंद की समकालीनता का संपूर्ण अभिलेख है। उसकी प्रासंगिकता या उसका सार का लेख महत्व इस बात में नहीं है कि किसानों की दशा आज भी वही है, बल्कि इस बात में है कि जीवन की विशद व्याख्या वह व्यापक संदर्भों में करते हैं और वे संदर्भ मानवीय होने के कारण समय के साथ विगत नहीं होते।

सोजे वतन से दुखी प्रेमचंद गोदान में विरुद्ध दुकान थी कि रिश्ते हैं। लेकिन विरोध और बदलाव का प्रारूप प्रस्तुत करते हुए गोदान उपन्यास यह भी सिद्ध करता है कि भारतीय समाज में एक ही समय में कई समय कई समाजों सकते हैं। राव साहब, उद्योगपति खन्ना और अफसर मेहता मालती और होरी, धनिया, मातादीन इस के प्रतीक हैं । नमक के दरोगा कहानी आदर्श की आशा है तो ईदगाह संवेदना की मासूम उम्मीद है। मृतक बहुत जैसी कहानी सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार है तो सद्गति ठाकुर का कुआं जैसी कहानियां दिवस की प्रमाण है। स्त्री की नियति को तो प्रेमचंद बिल्कुल सही भोक्ता की तरह देखते थे । सवा सेर गेहूं का कर्ज 20 साल तक चलता रहता है । पूस की रात , कफन और शतरंज के खिलाड़ी कहानियां समाज की अनेक परतें खुलती चलती हैं। यह वह समय है जब प्रेमचंद्र जीवन की अंतिम सांसे लेते हुए अपने प्रिय जिनेंद्र से कह रहे थे- आदर्श से कामना चलेगा!
जैनेंद्र उन्हें नास्तिक संत कहते थे । करुणा का गोदान जैसा आख्यान का बहुत बड़ा उदाहरण है ,उसका तो अंत ही विडंबना से होता है ।जीवन भर घर में गाय रख पाने की निराशा लिए मरते होरी से अंतिम समय मुक्ति के लिए गोदान करवाया जाता है ,तो धनिया जीवन भर की कमाई के बीसआने पंडित के हाथों में रख देती है।
प्रेमचंद के कथा साहित्य की पृथ्वी का क्षेत्रफल कितना बड़ा है। तो स्वाभाविक है कि उस में निवास करती जनसंख्या भी बड़ी होगी। प्रेमचंद के पदों की संख्या अधिक होने के कारण एक जैसे हैं । व्यक्तित्व रामविलास शर्मा मानते हैं कि प्रेमचंद में विभिन्न पात्रों का भारी जमावड़ा है । स्त्री पात्रों के प्रति प्रेम चंद अधिक संवेदनशील हैं । मैनेजर पांडेय के अनुसार "प्रेमचंद के नारी पात्र तेजस्वी और अधिक साहसी हैं। एक तो प्रेम की संवेदना और रचनात्मकता, फिर भी बड़े लेखक और भी हो सकते हैं। अच्छे इंसान और भी हो सकते हैं ,लेकिन इतना बड़ा लेखक और इतना बड़ा इंसान एक साथ हो तो समझ लीजिए कि प्रेमचंद है। "वही कह सकते हैं कि मैं मजदूर हूं जिस दिन ना लिखूं उस दिन मुझे रोटी खाने का अधिकार नहीं है।"
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