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विरासत

सुबह के 7 बजे घंटी बजी, यह नाश्ते के लिए मैस के खुलने का संकेत था।
“मृणालिनी लैट्स गो फॉर ब्रेक्फ़स्ट” शमा ने चिल्लाते हुए कहा कि दूसरी मंज़िल तक आवाज़ पहुँच सके। और ठीक उसी अंदाज़ में मृणालिनी ने उत्तर दिया -
“यसऽऽ…कमिंगऽऽ.. वेट फाॅर मी”
मृणालिनी ने पानी की बोतल उठाई, कमरा बंद किया और जल्दी-जल्दी नीचे पहुँच गई जहाँ शमा उसका इंतज़ार कर रही थी।
“लेट्स गो” मृणालिनी ने शमा को एक चौड़ी सी बत्तीसी दिखाते हुए कहा और दोनों मैस की तरफ़ चल दीं।
मैस से लौटने के बाद मृणालिनी ने अपना फ़ोन उठाया तो देखा कि फ़ेसबुक मैसेन्जर पर एक संदेश और एक छूटी काॅल का नोटिफ़िकेशन आ रहा था। वो उल्लास एवं अफ़सोस के भाव को एक साथ व्यक्त करते हुए बोली
“अरे! वाह प्रज्ञा मैम का मैसेज़..ओह! आई मिस्ड हर काॅल”
‘कैसी हो मृणालिनी ?’ मिसेज़ प्रज्ञा ने लिखा था। मृणालिनी को जितनी खुशी यह पढ़कर हुई उतनी ही ग्लानी काॅल छूट जाने की भी थी। उसने तुरंत ज़वाब भेजा
‘अच्छी हूँ मैम। आप कैसी हैं ?’ साथ ही काॅल न उठा पाने के लिए माफ़ी भी माँग ली।
मृणालिनी को तुरंत जवाब मिला जिसमें मिसेज़ प्रज्ञा ने अपना नम्बर दिया था और समय मिलने पर काॅल करने को कहा था। साथ ही एक तस्वीर भेजी थी जिसके नीचे उन्होंने लिखा था
‘इन पंक्तियों का सही अर्थ बताओ’
पंक्तियां थीं –
“फूल देई, छम्मा देई,
देणी द्वार, भर भकार,
ये देली स बारंबार नमस्कार,
फूले द्वार…..फूल देई छम्मा देई।”
इन पंक्तियों को पढ़कर मृणालिनी की खुशी का ठिकाना न रहा। उसने पहाड़ी भाषा में लिखे इस गीत का हिंदी अर्थ लिख मिसेज़ प्रज्ञा को भेजा जो इस प्रकार था-
“यह दरवाज़ा हमेशा फूला – फला रहे,
यह दरवाजा हमेशा खनकता रहे, यहाँ हमेशा आबादी रहे,
इस दरवाजे से कभी कोई भूखा न जाए,
यहाँ के भंडार हमेशा भरे रहें,
इस देहली को हमारा नमस्कार।”
इस अनुवाद को पढ़कर मिसेज़ प्रज्ञा ने उत्तर दिया ‘वाह शुक्रिया मृणालिनी, शुभ आशीष। इस तरह की और मदद के लिए मैं तुम्हारा सहयोग चाहूँगी। बहुत सारा प्यार’
‘बहुत-बहुत धन्यवाद मैम’ मृणालिनी ने जवाब भेजा।
अगले दिन शाम के समय मृणालिनी ने मिसेज़ प्रज्ञा को फ़ोन किया
“गुड ईवनिंग मैम” उसके चेहरे पर एक बत्तीसी थी जो फ़ोन से दिखाई तो नहीं दे रही होगी परंतु आवाज में ज़रूर सुनाई दी होगी।
“गुड ईवनिंग मृणालिनी..कैसी हो?”
“अच्छी हूँ मैम”
“बच्चे मुझे तुम्हारी एक सहायता चाहिए”
“जी मैम बताइए”
“अपने एक लेख के लिए मुझे तुम्हारी संस्कृति से जुड़े एक त्यौहार के बारे में जानना है। क्या तुम मुझे फूलदेई के बारे में कुछ बता सकती हो?”
“जी मैम..मैम यह उत्तराखण्ड का एक इंपोर्टेंट फेस्टिवल है। ‘फूलदेई’ का संबंध प्रकृति से है, यह चैत्र मास की एकादशी को बसंत ऋतु के आगमन पर मनाया जाता है। बच्चे फूलों से भरी टोकरी लेकर फूल खेलने गाँव में घूमते हैं और हर घर की देहली पर फूल डालकर उसे पूजते हैं।”
“फूल देई, छम्मा देई गाते हुए?” मिसेज़ प्रज्ञा ने पूछा।
“यस मैम..वो फूल खेलने जिस-जिस घर में जाते हैं वहाँ से उन्हें गुड़, चावल और पैसे मिलते हैं।”
“ब्यूटिफुल, तुमने भी फूलदेई खेली होगी बचपन में”
“यस मैम मैंने भी खूब खेली है फूलदेई..और मैम जो गुड़ और चावल फूल खेलने के बाद मिलता था उससे हम मम्मी से कह कर साई बनवाते थे। ये चावल को पीस कर उसे गुड़ में पकाकर बनाया जाता है।”
“बहुत सुंदर मृणालिनी, शुक्रिया तुमने मुझे काफ़ी जानकारी दी, मैं आगे भी तुमसे उत्तराखण्ड की खूबसूरत संस्कृति को जानना चाहूँगी।”
“मैम मुझे खुशी है कि मैं आपकी हैल्प कर पाई।”

मिसेज़ प्रज्ञा के साथ हुई इन बातों ने मृणालिनी को एक ऐसा एहसास दिलाया जो उसने कभी महसूस नहीं किया था। वो अभिभूत अनुभूत कर रही थी। इस समय वो उस खुशी और जिम्मेदारी को अनुभव कर पा रही थी जिसे उसने दो दिन पहले हुई संगोष्टि में आए प्रवक्ताओं को निभाते देखा था। जिन्होंने अपनी सारी ज़िंदगी अपनी सभ्यता और संस्कृति को भविष्य के लिए जीवित रखने में समर्पित कर दी और आज उसने खुद से यह वादा किया कि वो अपनी संस्कृति और उसकी खूबसूरती को इस प्रकार संजोएगी कि आने वाली हर पीड़ी आधुनिकता के साथ अपनी संस्कृति से भी जुड़ी रहे।