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खिलवत

झुर्रियों से भरी देह, पके हुए बाल, थकी हुई आँखें, पसीने से लथपथ जगह-जगह से फ़टी हुई कमीज़, माथे से टपकती मेहनत की बूंदें और कमज़ोर, बेबस व पीड़ा से कराहते पैर जो शक्तिहीन होते हुए भी रिक्शे को ढकेल रहे थे। अंधेरा हो गया था, दूर-दूर तक किसी सवारी का मिलना नामुमकिन था। खैर मदन काका के लिए ये कोई नयी बात नहीं थी। वह रोज़ इस समय लाला जी की बिटिया को मैट्रो स्टेशन से बंगले तक पहुँचाते हैं और बंगले से युनिवर्सिटी तक के बाहर लगे चाय की टपरी तक आते हैं। एक गिलास चाय पी कर बड़ी देर तक अपने रिक्शे में बैठकर बीड़ी के कश लगाते हैं और रात उसी रिक्शे की बेआराम सीट पर ही घुटनों को छाती से लगा, हाथों को सिरहाना बना सो जाते हैं।
मदन काका का इस युनिवर्सिटी परिसर तक आना-जाना पिछले पैंतालीस सालों से है। तब उनका शरीर फ़ुर्तीला था और हड्डियाँ मज़बूत थीं, उनका अपना परिवार था। जीवन में थोड़ी ही सही मगर भरपूर खुशियाँ थीं। मगर वक्त का ऐसा संजोग बना कि एक रात मदन काका के घर लौटने से पहले उनकी झुग्गी में आग लग गयी। वह भीषण आग मदन काका के पूरे परिवार को लील गयी। उनके पास बचा रह गया तो बस यह रिक्शा जो भले ही अब खटारा है मगर आज भी उनका साथ निभा रहा है। उस हादसे में अपना सब कुछ गँवाने के बाद इस युनिवर्सिटी की दीवारों ने उन्हें सहारा दिया। उनके पास रात बिताने को न छत थी और न ही कोई साथी जिसे वह अपनी आपबीती सुना सकें। यदि आज लाला जी होते तो शायद मदन काका यूं युनिवर्सिटी की दीवार की आड़ में खुले आसमान की चादर ताने न सोते।
मदन काका जब नए-नए इस शहर में आए थे तब से लाला जी की दुकान के आगे अपना रिक्शा खड़ा किया करते थे और दिनभर में पचासों सवारियाँ लादा करते थे। गठीले शरीर और वाणी के धनी मदन काका को हर कोई जानता था और उनका सम्मान भी करता था। लाला ने एक दिन मदन काका को बुलाकर कहा "मदन तू आदमी नेक है आज से तू मेरे परिवार को लाया लेजाया कर मैं तुझे महीने के तीन सौ रुपये दूँगा"
"लाला जी जैसा आप कहें आपका बहुत बहुत धन्यवाद" कहकर मदन काका ने नौकरी पक्की कर ली और आज भी उस नौकरी को निभा रहे हैं। फ़र्क बस इतना रह गया है कि नौकरी वही है, मालिक वही हैं बस लालाजी जैसा अब उस परिवार में कोई नहीं जो मदन काका से दो मीठे शब्द बोले। अब पहले जैसा कुछ रह ही कहाँ गया है न रिक्शा, न इंसान, न पैसा कुछ भी तो नहीं। हर किसी इंसान, वस्तु व भावों के दाम बढ़े हुए हैं और शारीरिक मेहनत मशीनों में तबदील हो चुकी हैं।
आज भी मदन काका नियमानुसार उस चाय की टपरी पर आए, अपना रिक्शा यथास्थान खड़ा कर चाय की टपरी के पास बने बैंच पर बैठे तो चाय वाला बोला " अरे! काका आज आने में देर कर दी" और उनके हाथ में चाय का गिलास थमाता हुआ कहने लगा "ये लो चाय, मैं आप ही का इंतज़ार कर रहा था"
मदन काका ने थकी हुई एक मुस्कान से उसका धन्यवाद करते हुए चाय की गिलास पकड़ ली।
चाय वाले ने कुछ ग्राहकों से चाय का हिसाब किताब किया और अपना सामान समेट चल दिया।
मदन काका चाय की गिलास लिए अपने रिक्शे की ओर बढ़े और रिक्शे में बैठ गए। अपने बूढ़े चेहरे पर मुस्कान लिए वो कुछ बड़बड़ाने लगे जैसे किसी से बातें कर रहे हों। रात गहरा गई थी, आस-पास कोई भी नहीं दिखाई दे रहा था, कभी-कभी दूर से किसी कुत्ते के भौंकने की आवाज़ सुनाई देती थी और पास में लगी स्ट्रीट लाइट जो कुछ देर तक जल-बुझ रही थी वो भी बंद हो गयी। घुप्प अंधेरे में बैठे मदन काका ने अपना सिर रिक्शे की सीट के बाजू में लगे डंडे से टिका लिया और आँखें मूंद ली। आज उन्होंने बीड़ी का धुँआ भी नहीं उड़ाया और न ही चाय पी। चाय की गिलास उनके दोनों हाथों से घिरी हुई उनके घुटने पर बैठी थी। रात भर वो गिलास वैसी ही मदन काका के हाथों से टिकी रही और मदन काका रिक्शे से। सुबह होते-होते चाय बर्फ़ सी ठंडी थी और मदन काका भी।