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पप्पन

’’पप्पन, ओ पप्पन,’’ पड़ोस की पुकारों ने मुझे जगा दिया। मैं झुंझलाकर उठ बैठी और बड़बड़ाने लगी, ’’उफ, ये गंवार और अशिक्षित लोग। चैन की नींद तक नहीं लेने देते।’’

मुझे अपने पड़ोसी बिल्कुल पंसद नहीं थे। दिन भर छोटे बच्चों का रोना, मांओ का चिल्लाना और अशिष्ट व्यवहार। हां, एक पसंद था उन सभी में पप्पन। कोई आठ-नौ बरस का बच्चा। केवल नाम के लिए स्कूल जाता था यानि रूपए में साठ पैसे तो घर पर ही रहता। कुछ भी हो वह मुझे बहुत सुंदर और सुशील लगता था। गोरा, स्वपनिल आंखों वाला पप्पन सदा ही अपने गुलाबी होंठों को खिला रखता।

यह उसका ननिहाल था। दो मामा के बच्चों को मिलाकर इसके साथ घर में कुल नौ बच्चे थे। वह हमेशा धूलि-धूसर और मैले-कुचैले कपड़ों में दिखता। तब भी उसके मुख का तेज, चमक और उज्ज्वलता देखते ही बनती थी। वह अक्सर आंगन में बैठे बड़े और बहुत छोटे-छोटे बच्चों के साथ घिरकर बैठा रहता था और आर्कषण का केन्द्र बनता था। एक बार मैं भी उसकी टोली में शामिल हो गई। वह कह रहा था, ’’देखो मेरा मनपसंद हीरो,’’ और फिर उसी हीरो की प्रशंसा की लड़ी लग जाती वह बातों में बड़ा तेज था।

मैंने जब तस्वीर देखी, अचम्भे में पड़ गई उस पर आश्रित निशानी पाकर चीख उठी, ’’शरारती पप्पन, यह तस्वीर मेरी है। मैं कब से इसे खोज रही थी। तूने ही जी थी। ला दे दे।’’

बड़ा चालाक था पप्पन। फुर्ती से भाग लिया। उसकी दौड़ का मुकाबला मेरे बस का नहीं था। मैं दिन भर उससे नहीं बोली। शाम को दौड़ता हुआ आया कहने लगा, ’’नाराज हो दीदी? छोटी सी तस्वीर का इतना दुःख। लो सम्हालो अपने प्रिय हीरो को, ’’हंसता हुआ तस्वीर छोड़ गया वह। उसे सचमुच मेरी नारज़गी की फिक्र थी। मुझे तो बिल्कुल कृष्ण सा नटखट लग रहा था।

हां, दिल का बहुत धनी था पप्पन। मैंने अक्सर उसे नन्हें बच्चों को अपने पैसों से मिठाई बांटते हुए देखा था। वह बच्चों से बहुत प्यार करता था। नीम के तले उन्हें झुलाना, पीठ पर बैठाकर बारी-बारी खेलना और ये किलकारियां देर रात तक चलतीं टूटतीं तो मामाजी के कनपट्टी पर थप्पड़ से। मामाजी गुस्से में पैर पटकते हुए आते, उसके कन्धे से बच्चे को पटकते और भारी थप्पड़ रसीद देते, ’’अबे सूअर, भला और कोई काम नहीं है क्या? चल मेरे जूते मोची को दे आ चल,’’ उसे घसीटकर कहते। मेरा ह्रदय उस समय करूणा से भर उठता। लगता जैसे गुलाबी गुलाब मार खाकर लाल हो आया है।

वह मामाजी के तेज कदमों के पीछे नन्हें कदम धर देता। मेरे सामने से निकला तो मैंने हाथ पकड़कर खींच लिया, ’’क्यों रे इसमें तेरी क्या गलती थी? अनपढ़ कहीं के, प्यार से ही कह देते?’’ बात काटकर वह कहता, ’’जाने दो दीदी। छोड़ो....।’’ ’’लेकिन, पप्पन एक बात बता, तूं यहां रहता ही क्यूं है? तेरा अपना घर नहीं है क्या?’’

पर जवाब देने की फुरसत ही कहां थी उसके पास। विचारों में खोते खोते ध्यान जब जूते पर गया तो वह फिर दौड़ गया। काम करके लौटने के बाद वह फुरसत में बताता। लेकिन बहुत गिड़गिड़ाने और फुसलाने के बाद भी मैं सिर्फ उसके बहाने ही जान पाती। कुछ दिन बातों-बातों में रजनी ने बताया, ’’पप्पन को जान का खतरा है।’’ ’’खतरा’’? मैंने हैरानी से पूछा। हां, इस नन्हें बच्चे के पीछे जीवन से टकराती कहानी है, एक धारा है जिसे बहना चाहिए, बहना चाहती है लेकिन रूक गई है। इसकी किस्मत इसे यहां ले आई है। धूल भरे, कांटों भरे जीवन में वरना यह वो नहीं जो आज है’’ ’’मतलब क्या है तुम्हारा।’’

’’पप्पन, जमींदारों की इकलौती औलाद है जिसक हक न जाने कितनी हेक्टेयर भूमि पर है लेकिन दुश्मन इसे खत्म करना चाहते हैं ताकि उस जमीन का वारिस कोई ना रह सके।

और मालूम हुआ कि उसकी मां उसे यहां अपने भाइयों के पास छोड़ गई है ताकि वह हिफाज़त से जी सके। विश्वास नहीं हो रहा था कि ये नन्हीं सी जान कितनी मंहगी है और आज भी जमींदार जायदाद के लिए इस तरह एक बच्चे को मारने पर उतारू हैं और ममता है कि अपना आंचल फैलाकर उसे छुपा देना चाहती है।

उसका गांव सचमुच बहुत प्यारा था या यूं कहिए उसे बहुत प्यारा था। यह उसकी बातें, ऊंची-ऊंची उड़ाने भरती कल्पनाएं और क्षितिज के पार देखती चमकती आंखें ही बता देती। पप्पन गांव का नाम लेते ही गांव में खो जाता। अपने छोटे से छोटे खेल, नौकरों के साथ की शरारत, सभी कुछ काॅमेंट्री की तरह बोल जाता।

’’हमारे चाचा थे न। हमें बहुत प्यार करते थे पर हमारी समझ में नहीं आता कि मां और वकील चाचा हमें उनसे दूर रहने को क्यूं कहते थे।’’ फिर वह सोच में डूब जाता।

’’मां आ रही है, दीदी मां आ रही है, ’’कहता हुआ मेरा दुपट्टा सरका गया था वो। अपनी मां के आने का समाचार वह अपनी मीठी बोली की मिठाई सा बांट आया था। उसकी मां अक्सर महीने में एक चक्कर लगा जाती थी। एक महीना कहने को सिर्फ एक महीना था, लेकिन थे पूरे तीस दिन और तीस रातें। ये सोचते ही कि वह इन्हें कैसे बिताता था आंख भर आती थी।’’

’’मां-मां।’’ चीखता हुआ वह दौड़ता जा रहा था गली के छोर पर। वहीं वह मां से लिपट गया। उसकी मां ने उसे बार-बार चूमा। गालों पर, माथे पर, आंखों पर और उसकी हालत देखते हुए कहती ’’अरे। मेरे लाल। यह क्या हाल बना रखा है बेटा चल मुंह हाथ धोकर तेरे कपड़े बदलूं।’’

वह अपनी मां का हाथ थामे भाग लेता और मैं सोच रही थी क्या वे कपड़े सिर्फ मां के आने पर ही बदलता है? क्या होता है उसके जाने के बाद। मां नए कपड़े दे जाती तो भाभियां उन्हें अपने बच्चों को पहना देती, ’’थोड़ा सा ही तो बड़ा है। क्या हुआ फिर? अगले बरस मेरा पप्पू भी ठीक समाएगा इसमें।’’

फिर क्या था पप्पन के लिए बच जाते घिसे-कुचले वस्त्र।

’’बेटा मामा और बच्चों को भी तो दे, ’’पप्पन की मां की आवाज़ ने मेरे विचारों को तोड़ा। पप्पन मां की टोकरी से फल और मिठाई निकालकर जल्दी-जल्दी खाने लगा था। शायद जानता था कि अभी बंट जाएगी, इतने दिनों पर मिली है और अभी-अभी शिष्टाचार का पाठ मिलने वाला है।

’’बेटा, तूं तो बड़ा है, समझदार है, जा मिठाई बांट और, ’’इस तरह उसकी रही सही भूख भी मारी जाती। लौटते वक्त भी मां उसे समझा जाती बल्कि समझना पड़ता। भाई का घर था तो क्या आव-भगत और लल्लो-चप्पो तो करनी ही पड़ती है।

’’मेरा अच्छा बेटा, मामा जी की बात न ठुकराना। अब तो यही तेरा सहारा हैं।’’

इस तरह न जाने उसकी मां अपने भाई को पप्पन की देखभाल के लिए क्या कुछ नहीं कह जाती, कब वह ओझल हो जाती और पप्पन के आंसू सूखने से पहले कोई रोता हुआ बच्चा फेंक दिया जाता उसकी गोद में। जब बहुत देर तक बच्चा चुप न होता तो डांट पप्पन को ही पड़ती। मैं पूछ लेती,

’’क्यों रो रहा है यह,’’ ’’भूख लगी है।’’ लगा पप्पन भी तो रो रहा था, उसे भी भूख लगी थी। शायद अपने आपको उत्तर दिया था उसने। मैं उसका ध्यान बांटने कि लिए फिर बोली।

’’तो ले जा मामी के पास,’’ ’’मामी इसकी आदत बना रही है भूखे सोने की।’’ और अचम्भे में पड़ जाती मैं। एक नटखट से बालक में इतना चिंतन जैसे कोई छिपा साधु बोल रहा हो उसके भीतर से।

एक दिन गर्मियों की कड़ी धूप में मैंने खिड़की से पप्पन को हांफते हुए देखा। बड़ी तेजी से चला आ रहा था कि अचानक सामने पत्थर पर पैर पड़ा और मुंह के बल गिर पड़ा। मैंने दौड़कर दरवाजा खोला, उसे उठाया तो ’आह’ निकल पड़ी। उसकी आंखों में आंसू और माथे पर तेज खून की धार थी। घुटनों पर हाथ रखकर वह उठा। उसकी आंखें तेज सूरज के कारण नम पड़ गई थीं। मुंह पसीने से भरा हुआ था।

’’रोता है? चल ठीक हो जाएगा, ज्यादा चोट नहीं आई, भगवान का शुक्र है।’’

जानती थी एक बच्चे के लिए यह काफी चोट थी। चाहती तो लाड़ कर लेती लेकिन सोचा उसे पत्थर बनाना ज्यादा उचित है। यही समय की मांग भी थी।

’’दीदी। अब तो मुझे मार पड़ेगी। लस्सी का लोटा जो गिर गया।’’ अब उससे पूछने की जरूरत नहीं थी कि वह कहां, क्यूं, कब गया था। समझते देर न लगी कि कड़कड़ाती धूप में नंगे पांव, खुले सिर में उसे लस्सी लाने गांव भेजा गया था। यही कोई दो किमी0 का पैदल रास्ता था। मैं पप्पन की हिम्मत देखकर हैरान थी। वह मेरे आंगन में दीवार के साथ हांफते-हांफते बैठ गया था। मैंने उसका सिर पोंछा बांधा और पूछा,

’’घर नहीं जाओगे?’’ उसकी आंखों में ’न’ थी। मैंने उसके सिर और गालों पर प्यार से हाथ फेरा, ’’बहुत थक गए हो न।’’ उसने अपनी झुकी, थकी पलकों को मेरी ओर उठाया और प्यासे होंठों से बोल उठा।

’’आज धूप कुछ तेज थी दीदी मैं रोज फैक्टरी पर रूककर सांस लेता था, आज डाकघर पर ही रूकना पड़ा।’’

अब भी वह मुस्कुरा रहा था समझ नहीं पा रही थी कि पप्पन वह महान संत तो नहीं जो जानता था अपना दुःख लेकिन व्यस्त करके और दुःखी नहीं होना चाहता था या शायद जताना नहीं चाहता था या शायद इतना मासूम था कि अपने दुःख को पहचान भी नहीं पा रहा था। मैं सोचती रह गई। क्या यही है वे जमींदारों की इकलौता वारिस जिस सुस्ताने के लिए घर तक नसीब नहीं।

वह प्यासा था। उसे पानी की जरूरत थी, छांव की जरूरत थी, आराम की जरूरत थी।

’’बतिया रहा है? चोर, साला’’, उसके मामा ने बाहर निकलते ही उसकी कच्ची बंद मुट्ठी से पैसे छीन लिए। पप्पन मौन उनका मुख देखता रहा मानो कह रहा हो कि मेरी मुट्ठी में वह जकड़न और ताकत कहां जो पैसे इसमें समा जाएं।

इस बार दो रूपए कम थे। मामा के आव-भाव देखकर वह रूप्ए ढूंढने दौड़ पड़ा। वह कुछ ही दूरी पर था कि बच्चे उसके साथ हो लिए। बच्चों ने खेल, खेल में तू-तू.....मैं-मैं शुरू की दी और हाथापाई शुरू हो गई पप्पन उन्हें छुड़ाने लगा तो एक गिर गया। बस रोना शुरू और अपने बच्चों की चीख सुनकर दोनों मामियां दौड़ी आई। आव देखा न ताव पप्पन के कान खींच कर दो-दो थप्पड़ रसीद कर दिए। पप्पन तो सिर्फ बच्चे को उठाने में लगा था। चांटों ने उसका सिर झंकृत कर दिया। एक पल तो उसे कुछ नज़र ही नहीं आया। इसके बाद उसके बाल नोचे गए, गालियां खाई, ’’जाने कब मरेगा तूं, बच्चों को तो एक पल जीने नहीं देता। अपने बाप को खा गया अब हमारे बच्चों को खाएगा। मुफ्त की रोटियां तोड़ रहा है बैठे-बैठे। ठहर, आज तुझे खाना नहीं मिलेगा। कैसे भागकर आता है खाने को....।’’ और न जाने क्या-क्या कहती गई थी उसकी मामी। पप्पन सिर्फ अपनी सफाई पेश करने के लिए ’’मामाजी....। मामीजी....वो....मैं....ही करता रह गया। शायद शाम को वह भूखा रह गया था।

मुझसे ही कहां रहा जा रहा था उसकी ऐसी हालत देखकर। मैं खिड़की से झांकती रही कि वह बाहर , मैं उसे इशारे से बुलाऊं और कुछ खिला दूं मगर न जाने क्यूं वह नहीं आया और बत्तियां बुझ गईं। निराश होकर मैं भी सो गई करवट बदलते।

’’अगले दिन सुबह मैंने उसके सिर पर साफा बंधा देख तो पूछ बैठी, यह नौटंकी क्या है अच्छा, कल रात कुछ खाया या नहीं?’ जवाब मिलने से पहले ही मैंने उसके हाथ में बिस्कुट थमा दिए। वह खाते-खाते बोला, ’’दीदी मैं गंजा हो गया। पता है क्यूं, कल जो सर में चोट आई थी और जो बाल नोचे थे मामी ने और मेरे सिर में फोड़े थे, इसीलिए मैं गंजा हो गया।’’

कहकर उसने साफा फेंक दिया और ताली पीटकर हंसने लगा। उसे देख और बच्चे भी उसके पीछे ’गंजा ए गंजा कहकर दौड़ पड़े।’

लगा यह कल की बात भूल गया है, बच्चा था ना या फिर उसे याद था उसकी मां आने वाली है। इसी खुशी ने उसके सारे गम भुला दिए थे। इस बार उसकी मां आई तो आंचल पकड़कर वह फिर बोला मां, ’’मैं तुमसे दूर क्यूं हूं?

कितनी दफा कहा है कि मेरा यहां दिल नहीं लगता। इस बार तो मैं तुम्हारे साथ चलूंगा।’’

जैसे वह सब्र के सारे बांध तोड़ चला था। यह भी भूल गया था कि इस बात से बाद मे उसे मार पड़ सकती है, ’’क्यों बे क्या हम तुझे ठीक से नहीं रखते, रोटी नहीं देते, आ हा-हा......और न जाने क्या क्या......।’’

वह भूल चला था। मां ने प्रेमपूर्वक फिर से गोद में बैठाया और हर बार की तरह समझाने लगी, ’’वहां तेरा चाचा है रे। दष्ट तुझे मार डालेगा। तू ही तो बचा है मेरे कुल का दीप। तू दीर्घायु रहे। जा लौट जा मेरे लाल, फिर ले जाऊंगी तुझे।’’

कह कर पल्लू छुड़ाना ही पड़ा था मां को।

इस बार पप्पन कुछ ज्यादा उदास था। कुछ ज्यादा ही गुमसुम था वह। मैं पूछ बैठी, ’’बहुत याद आ रही है मां की।’’ ’’हां। मां तो हमेशा ही ले जाने को कहती है और इस नरक में फैंक जाती है।’’ कहकर वह दीवार की ओर पलट गया और सिसकने लगा। मैंने उसका मुंह अपने हाथों में लिया, गरम था मैंने कहा, ’’अरे तुम्हें तो बुखार है पप्पन।’’ लेकिन मेरी बात की परवाह किए बिना वह दौड़ पड़ा शायद किसी कोने में अकेले में सिसकने के लिए।

अगले दिन सुबह ही मुझे शोर सुनाई पडा। पप्पन नहीं मिल रहा था। हां, भाग गया था। इस नरक को छोड़ जाने कहां चला गया था। मामा मामी को तो हार्दिक क्षोभ नहीं था लेकिन बहन की अमानत थी इसीलिए वे खोज कर रहे थे।

मुझे उसकी याद सताती रही आंगन में बैठी तो लगा कि अभी कोई चिउंटी काट भाग पड़ेगा। अभी कोई चोटी खींचेगा और हाथ नहीं आएगा या फिर नन्हीं खुली हथेलियों को देख मैं डांट दूंगी।

’’नहीं खाने है कच्चे चावल समझे ना’’

लेकिन यह सिर्फ गूंज थी। कोई नहीं था। दिन बहुत खल रहा था।

अगले ही दिन वह आ गया। उसे घसीटकर लाया गया। निर्दोष अपराधी की तरह। वह गली में चीखता रहा, ’’नहीं मूझे मेरी मां से अलग मत करो। गावं जाने दो मुझे। मैं वहीं रहूंगा। पूरी शक्क्ति लगाने पर भी वह इस कैद से नहीं छूट पा रहा था।

’’निकम्मा, शैतान। रेल से उतरकर भाग खड़ा हुआ था।’’

मालूम हुआ कि फिर वह खेतों हीे में चने चबाता पकड़ा गया था और तब से इसी तरह रो रोकर आंखें लाल कर बैठा है और दहलीज़ तक आते-आते उसकी आंखें सूख गई, नम पड़ती गई। आवाज़ धीमी होती गई, होंठ  भींच गए और वह सम्पूर्णतः क्षीण पड़ गया। वह गिर पड़ा। वह मासूम गोरा सा मुख जमीन पर चित्त पड़ा था। शायद उसका बुखार सिर चढ़ गया था। एकाएक भीड़ एकत्र हो गई। उस पर पानी डाला गया। तभी भीड़ से चीरती हुई एक आवाज़ सुनाई दी। एक राह सी बन गई। आखिर कब तक सहती वह यह बिछोह आज ममता उसे खींच लाई हां यह उसकी मां थी। अपने सपूत को गोद में बैठाकर चूमने लगी, ’’मेरे लाल, तू मेरे पास ही रहेगा तू मेरा है रे, तू जो कहेगा वही होगा। उठ मेरे लाल तूं ही राज करेगा और वह चीखकर रोने लगी। धीरे-धीरे पप्पन की तंद्रा टूटी। उसने आंखें खोली। वह मुस्कुरा रहा था। शायद जानता था कल सुबह उसे झटककर अधूरी नींद नहीं जगाया जाएगा और वह बेझिझक होकर नीम के झूले पर ऊंची पींगे भरेगा, कंचों से जेब गरम करेगा, खुले साफ आकाश में पतंग उड़ाएगा। पतंग काटेगा और कटी पतंग के पीछे दौड़ेगा, डोर बटोरेगा।

मगर आज भी मुझे खल रहा है मेरा आंगन, मेरा आंगन जहां खेलता था एक पप्पन और अब भी अक्सर मैं बैठी रहती हूं शायद आ जाए कोई......पप्पन।