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राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 1

भारतीय संस्कृति और भक्ति
राधारमण वैद्य

आचारमूलाः जातिः स्यादाचारः शास्त्रमूलकः।
वेदवाक्यं शास्त्रमूलं वेदः साधकमूलकः।।
क्रियामूलं साधकश्च क्रियापि फलमूलिका।
फलमूलं सुखं चैव सुखमाननन्दमूलकम।।

जाति के इस शास्त्रोक्त सिजरे से आदि स्रोत आनन्द का पता चलता है। वैसे तैत्तिरीय उपनिषद की भृगुवल्ली में वरूण के पुत्र भृगु की एक मनोरंजक कथा भी दी गई है। भृगु ने जाकर वरूण से कहा कि ’’हे भगवान ! मैं बह्म को जानना चाहता हूँ।’’ पिता ने तप करने की आज्ञा दी। कठिन तपस्या के बाद पुत्र ने समझा- अन्न ही ब्रह्म है। पिता ने फिर तप करने को कहा। इस बार पुत्र कुछ और गहराई में गया, उसने प्राण को ही ब्रह्म समझा। पिता को सन्तोष नहीं हुआ। उन्होंने पुत्र को पुनः तप करने को उत्साहित किया। पुत्र ने फिर तप किया और समझा कि मन ही ब्रह्म है। पिता फिर भी असंतुष्ट रहे। फिर भी तप करने के बाद पुत्र ने अनुभव किया-विज्ञान ही ब्रह्म है। पर पिता को अब भी सन्तोष नहीं हुआ। पुनर्वार कठिन तप के बाद पुत्र ने समझा-आनन्द ही ब्रह्म है। यही चरम सत्य था।
मानव ने बनैले जीवन से गांव या गिरोह के सामूहिक जीवन की ओर बढ़ते हुए सभ्यता के विकास में जितने चरण रखे, वे सब आनन्द की प्राप्ति की ओर उसके प्रयत्न थे और संस्कृति के रूप में उसकी उपलब्धि आनन्द की ही उपलब्धि कही जायगी।
सभ्यता और संस्कृति एक ही मानव विकास के दो पहलू हैं-एक, सभ्यता, उसकी स्थूल और आविष्कार की दिशा की ओर, दूसरा संस्कृति, उस विकास के चिन्तन, सूक्ष्म, शालीन, सुन्दर तत्व की ओर संकेत करता है-दोनों मनुष्य की सामूहिक प्रेरणा और विजय के परिणाम हैं, जो आनन्द प्राप्ति की दिशा में सतत की जा रही है।
डा0 हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन है कि ’’नाना ऐतिहासिक परम्पराओं के भीतर से गुजरकर एक और भौगेलिक परिस्थितियों में रहकर संसार के भिन्न-भिन्न समुदायों ने उस महान् मानवीय संस्कृति के भिन्न-भिन्न पहलुओं का साक्षात्कार किया है। नाना प्रकार की धार्मिक परम्पराओं, कलात्मक प्रयत्नों और सेवा, भक्ति तथा योगमूलक अनुभूतियों के भीतर से मनुष्य उस महान सत्य के व्यापक और परिपूर्ण रूप को क्रमशः प्राप्त करता जा रहा है, जिसे हम संस्कृति शब्द द्वारा व्यक्त करते है।’’ अतएव भारतीय ऐतिहासिक भौगोलिक परिस्थितियों में रहकर भारत के मानवीय समुदाय ने जो साक्षात्कार किया है, उसी का लेखा करना भारतीय संस्कृति की चर्चा होगी। भारतीय संस्कृति को हृदयंगम करने के लिये उसका समग्र रूप देखना आवश्यक है, केवल अंशमात्र एक भ्रामक दृष्टि ही उपस्थित करके रह जायगा। अतः वैदिक काल से अद्यावधि का समस्त बाङमय और अन्य कृतित्व ही हमारे चिन्तन का क्षेत्र रहेगा।
समान धर्म, समान विश्वास, समान कर्मकांड, समान आचरण, समान भाषा, समान साहित्य, समान दर्शन, समान भूमि, समान बैरी और मैत्री और समान खतरा संस्कृति को एकरूपता और स्वरूप देते हैं। कुछ काल बाद नये आचार-विचार उससे ऐसे बंध जाते हैं कि वे स्वयं प्रकृति-सिद्ध से हो जाते हैं, प्राकृतिक से भी अधिक महत्व के, जिनके लिए मनुष्य तप, त्याग और कुर्बानियां करता है, और जिनके बिना उसका जीवन नीरस और शून्य हो जाता है।
अब यदि आज से पांच हजार वर्ष पूर्व से प्रारम्भ विकास को देखते हैं, जिसकी विशिष्ट किरणें ऋग्वेद के मंत्रों, मगध के साम्राज्य (700 ई0 पूर्व से 300 ई0), तथा गुप्तकाल (300 ई0 से 750 ई0), तथा कन्नौज साम्राज्य (750 से 1000 ई0) से प्रस्फुटित होती आ रही है, और अगली शताब्दियों में 1000 से 1300 ई0, 1300 ई0 से 1700 ई0 तथा 1700 ई0 से 15 अगस्त 1947 और उस दिन से आज तक जितनी भी भावात्मक और सौन्दर्य तत्व संबंधी उपलब्धियां प्राप्त हुई हैं, सब में एक ही सूत्र पिरोया हुआ है और वह तत्व है धर्म तथा सम्पूर्ण काल की उपलब्धि का नाम है -आनन्द की खोज।
जब जीव-तत्व समस्त विध्न बाधाओं को अतिक्रम करके मनुष्य रूप में अभिव्यक्त हुआ, तब इतिहास ही बदल गया। आर्थिक व्यवस्था, राजनैतिक संगठन, नैतिक परम्परा और सौन्दर्य तीव्रतर करने की योजना-ये सभ्यता के चार स्तम्भ हैं। सभ्यता मनुष्य के ब्राह्म प्रयोजनों को सहज लभ्य करने का विधान है। और संस्कृति प्रयोजनातीत आन्तर आनन्द की अभिव्यक्ति। गीताकार कहते हैं-

इन्द्रियाणि पराव्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्योबुद्धेः परतस्तु सः।।
सदैव ही हमारे सांस्कृतिक जीवन का मेरूदण्ड धर्म रहा है। धर्म बहुत कुछ अपनी कर्तव्य बुद्धि के लिए ही प्रयुक्त होता रहा। इस ‘जीवन जीवस्य जीवनम्’ या जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाले जगत् में यह धर्म भाव ही भारतीय के हृदय से पशुत्व को कम करता रहा और उसका उत्तरोत्तर उन्नयन भी। भारतीय मानव का आदर्श सर्वात्मा रहा। अतः अंश-अंशी भाव से वह अपने में दया, दाक्षिण्य, प्रेम, करूणा, परोपकारवृत्ति को धारण करता रहा। यहां पर नित्यक्रिया शौचादि से विवाह पद्धति इत्यादि बृहत्तर सामाजिक सभी कार्य धर्म के अंग स्वरूप माने जाते रहे। अतएव भारत का प्राण धर्म ही है। योग, कर्म, ज्ञान, भक्ति इन चारों ही मार्गो के अवलम्बन से मनुष्य को धर्म लाभ हो सकता है। महाभारतकार कहता है-
धर्मो यो बाधने धर्म न स धर्मो कुधर्म तत्।
अविरोधी त् यो धर्मः, स धर्मो मुनिसत्तम।।
अपने उद्गम स्रोत तक पहुंचने या उसमें जा मिलने की आकुलता, जिस आनन्द तत्व से हमारा मूल स्वरूप निर्मित हुआ, उसे ही पुनः अनुभव करने की व्यग्रता-ही उपासना का हेतु और लक्ष्य है। इसी की साधना भक्ति है। यह रस स्वादिष्ट है, मीठा है, तीव्र है, जब चढ़ जाता है, रंग गहरा लाता है। यह अति रसीला है। इसकी तुलना में अन्य कुछ नहीं है। उस रस के प्रति उमंगता हुआ मन, जिसे अनुराग से प्रवृत्त होना है, वही भक्ति है। रस की अनुभूति या प्राप्ति का नाम ही आनन्द है।
भक्ति का स्थान मानव हृदय है। यह हृदय द्वारा अर्थात् आनन्द अनुभव करते हुए धर्म में प्रवृत्त होने का सुगम मार्ग है। ’’श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है। जब पूज्य भाव की वृद्धि के साथ श्रद्धा भाजन के सामीप्य लाभ की प्रवृत्ति हो, उसकी सत्ता के कई रूपों के साक्षात्कार की वासना हो, तब हृदय में भक्ति का प्रादुर्भाव समझना चाहिये। भक्ति द्वारा हम भक्ति भाजन से विशेष घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करते हैं- उसकी सत्ता में विशेष रूप से योग देना चाहते हैं।’’
भक्ति के सम्बन्ध में डाक्टर गियर्सन ने लिखा है कि ’’बिजली की चमक के समान अचानक इन समस्त पुराने धार्मिक मतों के अंधकार के ऊपर एक नई बात दिखाई दी।’’ जिस बात को गियर्सन ने ’’अचानक बिजली की चमक के समान फैल जाना’’ लिखा है, वह ऐसा नहीं है। उसके लिए सैकड़ों वर्ष से मेघ-खण्ड एकत्र हो रहे थे। सन् ईसवी की सातवीं शताब्दी से--और किसी के मत से तो और भी पूर्व से दक्षिण में वैष्णव भक्ति ने बड़ा जोर पकड़ा। इसके पुरस्कर्ता आलवार भक्त कहे जाते हैं। इनमें से अनेक ऐसी जातियों में उत्पन्न बताए जाते हैं जिन्हें अस्पृश्य समझा जाता है। इनमंे ‘अन्दाल’ नाम की एक महिला भी थी। भक्तों के अनुभूतिगम्य सहज सत्य को बाद के आचार्यो ने दर्शन का क्रमबद्ध और सुचिन्तित रूप दिया।
उत्तरभारत में भी साधारण जनता के भीतर जो धर्म-भावना वर्तमान थी, उसने शास्त्र अंगुलि पकड़कर अपने को शक्तिशाली रूप में प्रकट किया। इन प्रदेशों में पौराणिक धर्म का प्रचार पहले से ही था। भक्ति के लिए नितान्त आवश्यक है कि भगवान के ऐसे रूप की कल्पना करे जिसके साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध स्थापित किया जा सके। उत्तर भारत की जनता विष्णु के विविध अवतारों में विश्वास करती थी। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार ’’इस युग में अवतार को माननेवाली दृष्टि में थोड़ा परिवर्तन भी हुआ है। पहले विश्वास किया जाता था कि भगवान दुष्टों के दमन और साधुओं के परित्राण के लिए अवतार धारण करते हैं..... इस काल में यह विश्वास किया जाने लगा कि भगवान् के अवतार का मुख्य हेतु भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए लीला का विस्तार करना ही है..... भगवान का मुख्य प्रतिपाद्य विषय एकान्तिक भक्ति ही है। कैवल्य या अपुनर्भव को ही भक्त लोग इसके सामने तुच्छ समझते हैं।
यही कारण है कि मध्ययुग के प्रायः सभी धार्मिक सम्प्रदायों ने किसी न किसी रूप में अवतार की कल्पना अवश्य की है। केवल भगवान् के ही अवतार नहीं, संतों के अवतार की कल्पना है। वैसे तो अवतारों की संख्या बहुत मानी गई है, परन्तु मुख्य अवतार राम और कृष्ण के हैं। शुरू के साहित्य और शिल्प में इनका प्रधान चरित दुष्टों का दमन और भक्तों की उनसे रक्षा ही था, पर धीरे-धीरे दुष्ट दमन वाला रूप दबता गया। कृष्णावतारके दो मुख्य रूप है-एक में वे यदुकल के श्रेष्ठ रतन है, वीर हैं, राजा है कंसारि है, दूसरे में वे गोपाल है गोपी जन वल्लभ हैं, राधाधर सुधापानशाली वनमाली है। श्री रामचन्द्र हमेशा से दुष्ट दमनकारी और मर्यादा पुरूषोत्तम के रूप में चित्रित हुए हैं। 15वीं शताब्दी के बाद के साहित्य में राम के भक्त साहित्यिको में भी लीला गान की दृष्टि समादृत हुई और 18वीं शताब्दी के बाद के साहित्य में श्री रामचरित को भी माधुर्य भावना के रंग में रंगना पड़ा और ऐसे साहित्य की रचना हुई जिसमें प्रेम क्रीड़ा और रासलीला का प्राधान्य था। साहित्य के क्षेत्र के अतिरिक्त शिल्प के क्षेत्र में इस भावना के साक्षी स्वरूप लेखक को राम मन्दिर, सराफा उज्जैन में लास्य भाव सम्पन्न राम की मूर्ति के दर्शन का सौभाग्य लाभ हुआ है।
इस भांति कहीं भी दृष्टि डालें, यही पाते हैं कि श्रुतिवाक्य ’’आनन्द ब्रह्म’ की माया ही सर्वत्र व्याप्त है। अं्रग्रेजी कवि ब्राउनिंग कहता है-’’ईश ! तू ही प्रेम है, मैं अपना विश्वास उसी पर बनाता हूँ’’। चैतन्य चरितामृत में कहा है- ’’प्रेमंरपरम सार तार नाम भाव’’। यही भाव भक्ति है, जो ’’कल्याण करने वाली, दुखों का नाश करने वाली, कृष्ण को आकर्षित करने वाली घनीभूत आनन्द और सुदुर्लभ है तथा जिसके सामने मोक्ष भी हेय है।’’ ईश्वर के प्रति भक्त के मन की अविच्छेद्य स्वाभाविक अनुरक्ति ही प्रेम भक्ति कहलाती है। यह पांच प्रकार की कही गई है- शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य। हर प्रकार की भक्ति के लिए श्री रूपगोस्वामी कुछ स्थितियाँ आवश्यक मानते हैं। उनकी दृष्टि में- ’’उत्तम भक्ति अध्यात्म ज्ञान की प्राप्ति की अभिलाषा न करते हुए कर्म और वैराग्य का भी मोह न रखते हुए और अपने ही किसी स्वार्थ की भावना को स्थान न देते हुए केवल श्रीकृष्ण (अपने इष्ट) की संतुष्टि के लिए उनका प्रेमभाव से चिन्तन करना ही है।
नारदीय पंचरात्र के अनुसार सम्पूर्ण इन्द्रियों को माया के बन्धनों से सर्वथा मुक्त करके अनन्य मनसा हृशीकेष भगवान की आराधना करना ही भक्ति है। भक्ति के साम्राज्य में भोक्ता और भोग्य दोनों ही पारस्परिक साहचर्यजन्य आनन्द का उपभोग करने के लिए चिन्मय देहेन्द्रिय विशिष्ट होते हैं।
शाड्ल्यि सूत्र में ईश्वर के प्रति परानुरक्ति को ही भक्ति कहा गया है और अनुराग पर्याय है। ’’परानुरक्तिरीश्वेरी’’ इस सूत्र का अर्थ हुआ कि आराध्य के प्रति अनन्य अनुराग ही भक्ति है। यह राग आनन्द से परिपूर्ण है। इसीलिए आज का ऋषि अरविन्द भी कह उठता है कि ‘‘प्रेम और आनन्द प्राणि के अन्तिम शब्द हैं, गोपनीयों का गोपनीय, रहस्यों का रहस्य है।’’ भक्ति के आचार्य नारद ने ’भक्ति सूत्र’ में भक्ति का लक्षण दिया है ’’सा तस्मैं परम प्रेम रूपा’’- अर्थात् भगवान् में जो ऐकान्तिक प्रेम भाव है, उसी का नाम भक्ति है।
श्री चैतन्य महाप्रभु के मत से भक्ति के दो प्रकार है- वैधी और रागानुगा। पहले प्रकार की भक्ति में प्रवृत्त होने की प्रेरणा शास्त्र से प्राप्त होती है, जिसे ’’विधि’’ भी कहते हैं। तर्कशील बुद्धि, शास्त्र का ज्ञान, दृढ़ विश्वास, वैष्णव धर्म में नैष्टिकता से ही साधक वैधी भक्ति का अधिकारी है, रागानुगा भक्ति वैधी-भक्ति से भिन्न है। राधाजी का श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम इस दूसरे प्रकार की भक्ति के सर्वोत्कृष्ट एवं गूढ़तम रूप का निर्देशन है।
डा0 हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन है कि- ’’चौदहवीं शताब्दी तक हिन्दी भाषी पूर्वी प्रदेशों में सहजयानी और नाथपंथी साधकों की साधनात्मक रचनाएं प्राप्त होती हैं और पश्चिमी प्रदेशों में नीति, शृंगार और कथानक साहित्य की कुछ रचनाएं उपलब्ध होती हैं। एक में भावुकता, विद्रोह और रहस्यवादी मनोवृ़ित्त का प्राधान्य है और दूसरी में नियम-निष्ठा, रूढिपालन और स्पष्टवादिता का स्वर है, एक में सहज सत्य को आध्यात्मिक वातावरण में सजाया गया है, दूसरी में इहलौकिक वायुमंडल में। चौदहवीं पन्द्रहवीं शताब्दी में दोनों के मिश्रण से उस भावी साहित्य की सूचना मिलने लगी, जो समूचे भारतीय इतिहास में अपने ढंग का अकेला साहित्य है। इसी का नाम भक्ति साहित्य है।’’
हमारे यहां भक्ति विधान के अंतर्गत श्रवण, कीर्तन, स्मरण, सेवा, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन ये नौ बातें ली गई है, पर केवल ऊपर से उन्हें ओढ़ लेने मात्र से कोई साधक भक्त की कोटि में नहीं आता। भक्ति के साम्राज्य में भोक्ता और भोग्य दोनों ही पारस्परिक साहचर्य अंश-अंशी भाव से अन्य सभी संसार को, ’’सियाराममय’’ समझते हैं, वे पर-पीड़ा विगलित होते हैं, निरभिमान उनका स्वभाव बन जाता है। तभी तो नरसी भगत गा उठे थे-
’’वैष्णव जन तो तेने कहीये, जे पीड़ पराई जाणे रे।
पर दुःखे उपकार करे, तोये मन अभिमान न आणे रे।।
सकल लोक मां सहने बंदे, निन्दा न करे केनी रे !
वाच काछ मन निश्चल राखे, धन-धन जननी तेनी रे।।
तुलसी कहते हैं-
कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो।
श्री रघुनाथ कृपालु कृपा तें, संत सुभाव गहौंगो।।
यथा लाभ संतोष सदा, काहू सों कछु न चहौंगो।
पर हित-निरत निरन्तर, मन क्रम बचन नेम निबहौंगो।।
परूष बचन अति दुसह श्रवन, सुनि तेहि पावन न दहौंगो।
विगत मान, सम सीतल मन, पर गुन नहिं दोष कहौंगो।।
परिहरि देह जनित चिन्ता, दुख-सुख सम बुद्धि सहौंगो।
तुलसिदास प्रभु यदि पथ रहि, अविचल हरि भगति लहौंगो।।
....विनय पत्रिका
भक्त के पास चाहने के लिए ‘‘अविचल हरि भगति’’ ही है और उसे जो भी मिल सकता है, वह सब श्री रघुनाथ कृपाल कृपा से, क्योंकि गीताकार श्रीकृष्ण के शब्दों में कहते हैं कि- जो समस्त प्राणियों में दोष रहित है, सबका मित्र है, करूणाभाव से सम्पन्न है, ममता रहित और अहंकार रहित है, जिसके लिए सुख और दुःख समान है, जो क्षमाशील है एवं निरन्तर संतुष्ट रहता है, जिसका चित्त वश में है, जो दृढ़ निश्चयी है तथा मन और बुद्धि का जिसने मेरे अर्पण कर रखा है, ऐसा मुझे प्यारा है।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘‘मुझमें ही मन लगाओ तथा मुझमें ही बुद्धि को स्थिर करो। ऐसी चेष्टा करने पर तुम मुझमें ही निवास करोगे तथा मुझमें चित्त स्थिर करके नित्ययुक्त होकर जो उत्कृष्ट श्रद्धा से मुझको भजते हैं, वे ही भक्तियोग को उत्तम रीति से जानते हैं, ऐसा मेरा मत है।’’
श्री मद्भागवतकार का कथन है कि ‘‘काम, क्रोध, भय, स्नेह, एकता, सौहार्द- इन सबको जो भगवान की ओर लगा सकता है, भगवन्मुखी बना सकता है, वह अन्त में निश्चय ही प्रेम में तन्मयता को प्राप्त होता है। जिस किसी प्रकार से भी हो, भगवान के साथ सम्बन्ध जुड़ जाना चाहिए, जिस किसी भाव से भी वृत्ति भगवान्, में लगने पर मन भगवन्मय हो जाता है।’’
यह स्थिति अन्य कुछ नहीं, वरन् अपने उदगम् स्रोत तक पहुंचने या उसमें जा मिलने की आकुलता- जिस आनन्द तत्व से हमारा मूल स्वरूप निर्मित हुआ है, उसे ही पुनः अनुभव करने की व्यग्रता- यही उपासना का हेतु और लक्ष्य है। इसी की साधना भक्ति है। भक्त की भगवान में आसक्ति के लिए तुलसी को दो ही तत्सम स्थितियां दृष्टिगोचर हुई-
’कामहि नारि पियारि जिमि,लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
निमि रघुनाथ निरन्तर, प्रिय लागहु मोहि राम।।
यद्यपि दोनों के आकर्षण का स्वरूप समान है, पर दोनों के धरातल में स्पष्ट ही महान् अन्तर है- एक अन्तर्मुखी है और दूसरा बहिर्मुुखी।
वैसे तो भक्त और भगवान् में अनेक नाते रिश्ते हैं। आनन्द तत्व की प्राप्ति का आभास कई स्थितियों में होता है, पर अन्यतम भाव दृढ़ रागात्मक स्थिति में ही सम्भव है और यह स्थिति तुलसी ने, सूर ने, मीरा ने, रैदास ने और रसखान ने, महाप्रभु चैतन्य आदि जिस किसी ने प्राप्त की, उसे तन्मयता से आनन्द में गोते लगाने से ही मिली। तुलसी की स्वीकारोक्ति दर्शनीय है-
’’हम तो चाखा प्रेम-रस पत्नी के उपदेश’’, और पत्नी का उपदेश था-
’’अस्थि चर्ममय देह मम, तामें, ऐसी प्रीति।
जो होती रघुनाथ में,तो न होत भव-भीति।।’’
ऋग्वेद का भी कथन है कि ’’जैसे पति जाया के प्रति होता है, वैसे ही हम उस महान् देव के प्रति आकृष्ट हों।’’ रति या काम का जो स्वाद है, वही भक्ति का स्वाद है। स्वाद ही रस है। रस ही वह है, जिससे भारतीय संस्कृति के चारों पुरूषार्थ अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष- सहज हो जाते हैं। तुलसी की परम आकांक्षा है-

अरथ न धरम न काम रूचि, गति न चहऊं निरबान।
जनम जनम रति राम पद, यह वरदन न आन ।।
यह निस्पृह ‘ रति ’ भाव ही भक्ति के लिए अपेक्षित है, जिसके लिए उन्होने ‘ पपीहा ’ को अपना आदर्श माना।
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