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महेश कुमार मिश्र मधुकर - प्राथमिक शिक्षण की बुंदेली-परिपाटी

महेश कुमार मिश्र मधुकर -पुस्तक-प्राथमिक शिक्षण की बुंदेली-परिपाटी

पुस्तक समीक्षा

समीक्षक- राजनारायण बोहरे

पुस्तक-प्राथमिक शिक्षण की बुंदेली-परिपाटी

लेखक-महेश कुमार मिश्र मधुकर

प्रकाशक- आदिवासी लोक कला अकादमी मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद भोपाल (म.प्र.)

पुस्तक समीक्षा-

बुन्देली परिपाटीः बुंदेली भाषा में पढ़ाई के लुप्त सूत्र

लोक साहित्य और परम्परागत शिक्षण पद्धतियां आरम्भ से ही भारतीय समाज में पठन-पाठन के लिये सहज-सरल रूप में गेय पदों के स्वरूप में विद्यमान रही है। जिनके माध्यम से शिक्षित बालक-बालिका कहीं कभी भी गणित और भाषा में मात नहीं खा सकते थे। समय बदला, तो अंग्रेजों ने अपनी शिक्षण पद्धति भारतवर्ष पर थोप ही, और फिर उसी की नकल पर हिन्दी की शिक्षण पद्धति विकसित की गई तो देश के गांव-गांव में प्रचलित असरदार और अचूक नुस्खों सह भरी देशज शिक्षण पद्धतियां धीरे-धीरे विलुप्त हो गई। ये पद्धतियां हर क्षेत्र में अलग नाम से जानी जाती थी। और रह देशज प्रणालियां बड़ी कारगर भी होती थी। इन वाचिक परम्पराओं पर काम कराने की दृष्टि से म.प्र. आदिवासी लोककला अकादमी ने नई शुरूआत की हैं, यह क्रम चर्चा के योग्य है।

श्री महेश कुमार मिश्र मधुकर बुन्देली भाषा के गहन अध्येता और शास्त्रीय व लोक संगीत के निष्णांत संगीतज्ञ हैं- परम्परागत शिक्षण पद्धतियों में जब बुन्देली पद्धति की छानबीन की जाना हो तो मिश्र जी से ज्यादा उपयुक्त भला और कौन हो सकता था। बुन्देलखण्ड़ क्षेत्र में प्राथमिक शिक्षा, वाचिक परम्परा और आंशिक रूप से लिखित परम्परा से प्रदान की जाती थी। प्रस्तुत पुस्तक बुन्देली-परिपाटी में मिश्र जी ने बड़े परिश्रम के बाद प्रचलन से बाहर हो चुकी पाटियां, चरनाइके, तेत्तीस अक्षरी और तेरा लेख आदि, संग्रहीत करके व्याख्या सहित पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किये है। पाटी शोधार्थियों के लिए प्रेरणा का विषय और सामान्य पाठकों के लिए अचरज भरी कविताऐं सी लगती है। शंकर जी के साबर मंत्रों की तरह बेतरतीब और अस्मरणीय सी ये कवितायें संस्कृत के आलोचना शास्त्र और व्याकरण शास्त्र के उन सूत्रों की स्मृति दिलाती हैं जिनके माध्यम से छात्र संस्कृत भाषा को हृदयगंमं कर पाता था।

अनेक दुर्लभ प्रस्तकों, लुप्त प्राय पांडुलिपियों व बुंदेली परिपाटी से शिक्षित लोगों को खोजने व उनसे प्राप्त मूल पाठ का शुद्धिकरण और उसकी व्याख्या करने में मधुकर जी शोधप्रवृत्ति और अभिरूचि ने उन्हें निराश नहीं होने दिया, जिसके परिणाम स्वरूप यह पुस्तक पाठकों को देखने व पढ़ने-गुनने को मिल सकी। बुंदेली की पाटियां चार हैं, और कुल मिलाकर इनकी पंक्तियां 113 है। प्राचीनकाल में हर गांव में कोई जानकार शिक्षक सामूहिक उच्चारण की पद्धति से अपने छात्रों को अपनी अशासकीय पाठशालाओं में ये पंक्तियां रटाते रहते थे। दूसरे साल से इन पंक्तियों के अर्थ खुलते थे। तीसरी साल में अर्थ विस्तार व अंकगणित लेखा से सम्बन्धित पहाड़े आदि पढ़ाये जाते थे। छात्रों को उस वक्त चटियां और शिक्षक को पांडेजू कहा जाता था, यह पाडेंजू किसी भी जाति के हो सकते थे।

चरनाइके दरअसल नैतिक शिक्षा के सूत्र है। कुछ लोग इन्हें चाणक्य के राजनैतिक उपदेश भी मानते है। तेत्तीस अक्षरी एक अतुकांत और द्विपंक्तीय कविता है,ं जिसका आशय साहूकार लोग अपने खाते लिखने के नियम के रूप में मानते थे तो पंड़ित लोग इस दोहा नुमा रचना का हर अक्षर एक देवता का बीजाक्षर मानते थे। इसी तरह तेरा लेखे में तेरह तरह का गणित होता था। जो चटिया (छात्र) अनिवार्यतः रटता था। पहला लेखा गणित का, दूसरा 2 लेकर 40 तक के पहाड़े का और तीसरे से लेकर तेरहवें तक आंशिक संख्याओं अर्थात् पउअड ;1ध्4द्ध अद्धा (1ध्2) पौना (3ध्4) से बढ़ते हुये हूंठा ;3 1ध्2 ढ़ौचा ;4 1ध्2द्ध पौंचा ;5 1ध्2द्ध के पहाड़े होते थे, जो छात्र को पांडेजू के अधीन रहते हुये आरम्भिक तीन बरस के प्रशिक्षण काल में रटते हुये (अर्थात् परमाच करते हुये) अपने अवचेतन मन में बिठा लेना होता था।

समूचे प्राचीन बुन्देलखण्ड़ में उपरोक्त पद्धतियों में आंशिक फेरबदल करके अमूून हर जगह इसी तरह प्रारम्भिक शिक्षक प्रदान किया जाता था, जिसका परिणाम यह होता था कि तीन साल बाद चटिया इस योग्य हो जाता था कि कठिन इबारत (इमला) भी वह लिख लेता था तो गणित के छोटे-मोटे हिसाब और भिन्नों से जुड़े पहाड़े भी वह मुंहजुबानी सुना देता था, अर्थात् बच्चे की हार्डड़िस्क (स्मृतिकोशु ) में पाटी, चन्नाइके, लेखे व तेतीस अक्षरी और चौंतीस दोहे स्थायी रूप से लोड़ (स्मरण) हो जाते थे। जिसके लिये आज कम्प्यूटर या कैल्क्यूलेटर की मदद लेना पड़ती है, और शब्दकोश देखना पड़ता है। फिर भी भिन्न संख्याओं अर्थात् पउआ से लेकर ढ़ौचा-पौंचा तक के लिये कोई वैज्ञानिक साधन विकसित नहीं हो पाया है। दशमलव पद्धति से ही ऐसेसवाल हल करना पड़ते हैं।

इस तरह विलुप्त प्राय बुन्देली परिपाटी को खोजकर शिक्षा विदों व सामान्य पाठकों के समक्ष नाले के लिय लेखक श्री महेश मधुकर सराहना के पात्र है। सवाल यह उठता है कि आज की नई पीड़ी एवं इस युग में प्रचलित कान्वंट व मान्टेसरी शिक्षा पद्धतियों और सरकारी स्कूलों के इस जमाने में यह परिपाटीयां किस हद तह प्रासंगिक हैं? क्या आज का बालक इस पद्धति से पढ़कर इस योग्य बन सकेगा कि वह अंग्रेजी पद्धति के स्कूलों के एड़वांस पाठ्यक्रम पढ़ने वाले छात्रों से मुकाबला कर सकें......। एक पद्धति मात्र पढ़ लेने वाले बालक क्या यह कोई छोटा-मोटा व्यापार चला सकेंगे....।

क्या यह उपयुक्त नहीं होगा कि स्कूल न जा पाने वाले कर्मशु ल बालक, प्रौढ़ निरक्षक और घरेलु स्त्रियों को गांव के गुरूजीयों के माध्यम से इसी परिपाटी से अनौपचारिक तरीके से, सुविधाजनक स्थान समय का निर्धारण कर पढ़ाना आरम्भ किया जावे?

इन देशज पद्धतियों की प्रांसगिकता, उनकी वैज्ञानिकता और व्यवहारिकता (प्रेक्टीकल) पर मिश्र जी की इस पुस्तक से बहस आरम्भ की जा सकती है, और शायद बबाल भी पैदा हो सकते है.... होना भी चाहिये, तभी निष्कर्ष निकलेगा, पुस्तक सार्थक सिद्ध होगी।