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अनिल करमेले - बाकी बचे कुछ लोग

अनिल करमेले बाकी बचे कुछ लोग

अनिल कर मेले का दूसरा कविता संग्रह बाकी बचे कुछ लोग लगभग 20 वर्ष के अंतराल बाद सेतु प्रकाशन से आया है। अनिल की कविताओं में अनुभूति और संवेदना के स्तर पर परिपक्वता मौजूद है। वह एक साफ स्पष्ट सोच और निष्पक्ष नजरिए के साथ कविता लिखते हैं ।अपनी यादों में बसे कस्बे के अपने मित्रों, वहां के वातावरण, स्थानीय मुद्दों ,सामाजिक सरोकारों से लेकर देश की हालत, विश्व सुंदरी , सांवली युवतियों की झिझक, विज्ञापन, जगत आउट वर्तमान युग में चल रहे पृथकतावादी विचार और साम्प्रदायिक शक्तियों की मानसिकता के खिलाफ भी कविता लिखते हैं।
उनकी कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता है छोटे आकार की विचार वादी कविताएं । सरल सहज और बोधगम्य भाषा को उपयोग में लाकर वे कविता को बोझल होने से बचाते हैं। इस कारण उनकी कविता सामान्य पाठकों और युवा पीढ़ी तक भी पहुंचती है ।
इस संग्रह में कुल 63 कविताएं हैं , संग्रह की कविता " गोरे रंग का मरसिया" शुरू तो होती है सौंदर्य का प्रतीक माने जाने वाले त्वचा के गोरे रंग को कोसने से, लेकिन धीरे-धीरे इसमें गोरे रंग पाने को आजमाएं जाते टोटके नुमा उपाय और गोरे रंग की स्त्रियों की त्रासदी तक चली आती है। अपने कस्बे छिंदवाड़ा को लेकर लिखी अनिल की अनेक कविताओं में से पांच कविताएं इस संग्रह में शामिल हैं, जिनमें पुराने आत्मीय लोगों से भरा छिंदवाड़ा, बाहर सेवा आए कर्मचारियों में खो गया छिंदवाड़ा , सामाजिक सांप्रदायिक सद्भाव वाला छिंदवाड़ा, शहरीयत में खोकर बदहाल हो चुका छिंदवाड़ा और नित्य बदलता छिंदवाड़ा आता है। यूं तो हर कस्बे की यही नियति है और यह कविता किसी भी कस्बे की हो सकती है ; लेकिन अनिल द्वारा इसमें सायास लाए गए विष्णु खरे ,बरारीपुरा पोला दशहरा, पाटनी टॉकीज, फल और पुराने घास बाजार तथा कोल्डफील्ड रेमंड्स,हिंदुस्तान लीवर जैसी खास चीजें और संस्थाएं इसे प्रॉपर छिंदवाड़ा ही बनाती हैं।
अनिल द्वारा आयोजित गोष्ठियों में जिस गहरी संवेदना की चर्चा की जाती है ,वह उनकी अनेकों कविताओं में इस तरह आती है कि सब की संवेदना बन जाती है। श्रम शील समाज में जब दुख आता है तो धरती से आसमान तक पता लग जाता है हमारे यहां दुख (31)नामक कविता देखिये
हमारे यहां दुख नहीं आता चुपचाप
दहाड़े मारता हुआ बजता है शोक गीत की तरह
गांव के हर घर आंगन में
*
कई दिनों तक चुप रहती है
मसाला पीसने वाली सिल
उदास पड़ी रहती है धान
ओखली के पास जैसे शोक संतप्त मूसल
*
मजूरी छोड़कर आधे दिन की
आते हैं आसपास के गांवों से
नाते रिश्तेदार रोटियां लेकर
फिर लौट जाते हैं तड़के उठकर
दुख का कोहरा तोड़ कर
कोई नहीं जाता महीनों पास वाले शहर
हर चीज जैसेपहले से और धुंधली दिखाई देती है
स्त्री के लिए अनिल बहुत आदर और अदब से बात करते हैं । संग्रह की अनेक कविताओं में स्त्री के प्रति उनकी संवेदना और सहानुभूति प्रकट होती है , कविता स्त्री :छह कविताएं (72 )बैंडिट क्वीन के एवजी दृश्य में (79) सपनों की लड़कियां (96 )गोरे रंग का मरसिया (43) इसी भरोसे के लिए (83) सहित दूसरे विषयों पर लिखी कविताओं में भी स्त्री अनायास अपने पूरे हक हकूक और पीड़ा के साथ चली आती हैं ।कविता स्त्री :छह
कविताओं का एक अंश देखिए-
बहुत कुछ होने के बावजूद
भूमंडलीय सुंदरी
तुम किसके लिए क्या करना चाहती हो?
तुम किसकी प्रतिनिधि हो ?
एक देह के अलावा तुम्हारे पास
और कुछ नहीं है
और हमारे पास हमारी देह भी नहीं
अन्य कविता किसी स्त्री ने नहीं कहा का अंश देखिए
तसलीमा!
किसने कहा था ढोल पशु नारी बराबर
किसने कहा था श्रद्धा बराबर नारी किसने कहा था त्रिकालदर्शी त्रिलोक गामी नहीं जानते स्त्री का चरित्र
किसने कहा है हर धर्म का झंडा स्त्री की योनि में गढ़ता है
तस्लीमा किसने कहा था यह सब
इतना तय है किसी स्त्री ने नहीं कहा।73

गोरे रंग का मर्सिया कविता का अंश देखिए-
सुंदरी की परिभाषा में
समाया हुआ है गोरा रंग
देवताओं से लेकर देसी रजवाड़ों के राजकुमार तक
सदियों से मोहित रहे होते रहे इस शफफाक रंग पर
**

इतिहास में जंग जीतने के लिए राजाओं ने
ऐसी ही स्त्रियों को अपना अस्त्र बना डाला
*
अपने इस रंग को बचाने के लिए
बादाम के तेल से लेकर गधी के दूध तक से
नहाती रही सुंदरियां
और हल्दी चंदन और मुल्तानी मिट्टी को घिस घिस कर ।
अपनी त्वचा का रंग बदलने को आतुर रहीं
हर उम्र की स्त्रियां
**
उजली और रेशमी काया से उत्पन्न उत्तेजना के एवज में
अक्सर मर्सिया दबे हुए रंगों को पढ़ना पड़ा
आखिर गोरा रंग
हमेशा फकत रंग ही तो नही रहा (43)

अनिल जितना प्रेम स्त्रियों बच्चों के प्रति करते हैं उतने ही वे मानवीय था और समानता वादी विचारों के प्रति निष्ठा से समर्पित हैं संग्रह में उनकी कविता एक सुखी आदमी के बारे में (11) भाषा की तमीज (13) कैलेंडर (15) बाकी बचे लोग (27) आदि नागरिक (47) और राहत (64 )सहित बहुत सारी कविताएं हैं जो इसी विषय पर लिखी गई है , जबकि दूसरी कविताओं में भी यह नजरिया साफ झलकता है।
प्रेम अनिल का प्रिय विषय है ।उनकी प्रेम कविताएं हल्की नहीं होती ।कस्बाई युवकों के मन में पलता प्रेम अनिल का प्रेम है प्रेम पर कुछ बेतरतीब (53) प्रेम के 2 बरस (55 )पहला प्रेम (57) कस्बे की माधुरी दीक्षित ( 108) विलक्षण प्रेम कविताएं हैं प्रेम पर कुछ बेतरतीब कविता का अंश देखिए--
नहीं मालूम था मुझे
कि और चीजों की तरह
तुम तक पहुंचने के भी
हो सकते हैं कई रास्ते
सिर्फ प्यार नहीं
*
मैं चुप रहूं
फिर भी कहूं
तुम नहीं तो कुछ भी नहीं है मेरे पास
बस तुम ही रहती
मैं ना भी कहूं
तो तुम सुन लो
प्रेम के 2 बरस कविता का अंश देखिए-
बे ही दो बरस एक तरह जीते हुए
पच्चीस बरस बीत गए
मगर उन छोटे से दो बरसों की
धूप छाया और बारिश संग साथ साथ चलती रही
*
उन छोटे से दो वर्षों में
ऐसा भी नहीं कि हमने
प्रेम के गीत गाए हो साथ-साथ
या खाई हो साथ साथ जीने मरने की कसमें
पर सच कहूं तो उन छोटे से 2 वर्षों ने
मेरे अंधेरे में कई दीप जलाए
मेरी चोटे से लाई खड़ा किया मुझे सिखाया मनुष्य होने का सलीका(55)

बचपन व कस्बे की पुरानी यादें अनिल के मन से नहीं छूटती उनकी कविता छिंदवाड़ा ,(66) टेलीग्राम (22) चिट्ठियां (34 )डायरी( 37 )एक नई राह (92) अपने कस्बे और लोक जीवन से जुड़े पुराने मुद्दों को और चीजों को गहराई से याद करता हुआ कभी अपनी संवेदना से पाठक को भिगो देता है। कविता छिंदवाड़ा के कुछ अंश देखिए -
जो पहुंचे कभी कभार
जिन्होंने फागुन या कार्तिक में गुजारी करवटें बदलती शामें
और रुई जैसी रातों के आगोश में अलमस्त रहे छिंदवाड़ा में
*
वही छिंदवाड़ा जहां बरारीपुरा से निकलकर
कवि विष्णु खरे पहुंचे सब की आवाज के पर्दे में
*
कहां गया वह शहर
जहां साल में वारदातें हत्या व मुश्किल होती
जहां छोटी बाजार की रामलीला
पोला ग्राउंड का पोला दशहरा
और स्टेडियम का होली कवि सम्मेलन होते रह वासियों के मनोरंजन के साधन
*
जहां आकर पहुंचती दिखाई देती
पाटनी टॉकीज से तीन देखकर निकलती महिलाएं
टोकरी में फल और फुटाने रखकर
घर घर आवाज लगाती फलवालियाँ
*
नए जमाने की नजर लग गई उसी छिंदवाड़ा को
जहां सैकड़ों कॉलोनियों में बस कर भी गुजर गई उसकी आत्मा
*
जहां कभी घास बाजार था
और टोकरी में फल बैठती थी फल वालियां
जिला अस्पताल, बैल बाजार ,नागपुर नाका ,
फव्वारा चौक, सीएस कंपलेक्स ,और बस स्टैंड
जहां मजे से साइकिल लेकर टहला जा सकता था
अब सड़क डर सड़क पटी पड़ी हैं दुकानों से

*
कोलफील्ड, रेमंड्स, हिंदुस्तान लीवर जैसे छोटे बड़े
गोंडवाना के जनपद की फसलों पर चलते पचासों उपक्रम
इस जनपद के बाशिंदों को
खलासी और लोडर के अलावा कहां कुछ बना पाए
मसे भीगते ही लड़के
शामिल होते रहे बेरोजगारों की भीड़ मैं तंबाकू चबाते
कभी इस बिग्रेड कभी उस बिग्रेड के हाथों में खेलते
पहुंचाते रहे अपना इस्तेमाल करने वालों को सदनों में (66 से 69)
वर्तमान समय की भयावहता अनिल की कविताओं में पूरी ताकत से आती है. तस्वीर (18) पुराना खेल (20) कामयाब लोग (75) भले आदमी( 32 )और यह समय (89) ऐसी ही कविताएं हैं जो अनिल की वर्तमान समय के प्रति चिंता को प्रकट करती हैं ,जिसमें मनुष्य का जीवन ,मनुष्य का स्वास्थ्य और किसी की अस्मिता सुरक्षित नहीं रह गई है। यह डर जब कविता में से होके निकलता है तो पाठक पर कई गुना भारी हो जाता है । जो डराने के लिए नहीं बल्कि सावधान होने के है और इन परिस्थितियों को बदलने की बेचैनी मन में पैदा करता है ।

लड़कियों का जन्म हमारे समाज की पितृसत्ता पको कभी भी प्रसन्नता नहीं देता ,इस विषय पर अपनी कविता में वह जिक्र करते हैं (39 )

पिता के प्रति अनिल बहुत संवेदनशील हैं वे अपनी कविता पिता( 33) में पिता का जमीन के प्रति प्यार प्रकट करते हैं,
इस बार पिता कविता देखिए -
इस बार लगे पिता
ज्यादा थके हुए ज्यादा उदास
लगा तेजी से लौट रहे हैं बचपन की ओर रह नहीं पाते अब अकेले
याद करते हैं सब को बार-बार
*
जब आता है शहर से चाचा का पत्र
कि बेचना है जमीन
जमीन का बंटवारा
दिखने लगता है पिता के चेहरे पर
हम जानते हैं
जमीन मां की तरह है पिता के लिए(33)

संग्रह में एक तरफ तीन तीन पेज की लंबी कविताएं हैं तो वहां एक तरफ बहुत छोटी कविता अनुवाद (41)भी है जो सिर्फ छोटी-छोटी 3 पंक्तियों की है लेकिन एक मुकम्मल कविता के रूप में पाठक को एक अनूठे अहसास से भर देती है। यह कविता अनुवाद देखिए
मेरी भाषा के तमाम शब्द
तुम्हारे मौन के अनुवाद में
असमर्थ हो जाते हैं
एक लंबे इंतजार के बाद अनिल ने अपना संग्रह हिंदी साहित्य को दिया है लेकिन देर आए दुरुस्त आए इस कविता संग्रह में मौजूद कविताएं समकालीन कविता की चिंता और सब मैना को एक में करती हुई पाठक तक बहुत ताकत के साथ पहुंचाती हैं इस संग्रह की निश्चित ही चर्चा होगी...
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राजनारायन बोहरे