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महेश कटारे - पहरूआ

महेश कटारे -कहानी-पहरूआ

गोधन की नींद टूटी तब रात आधी से उतरने लगी थी, क्योंकि सोते में जागते हुए उसे लगा था कि तीसरे पहर का पहरूआ अपने अंतिम हुंकारे भर रहा है। वैसे नींद टूटने से पहरूए का कोई संबंध नहीं था, नींद पर तो ट्रैक्टर की भट्भट् भटभटाती आवाज ने पत्थर फेंके थे, जो धीरे-धीरे बढ़ती हुई गाँव भर पर फैलती आ रही थी। उसने अनुमान लगायाकि ट्रैक्टर गड्ढों और धचकों से भरी डामर रोड़ से, उससे भी दयनीय गिट्टीवाली सड़क पर उतर आया होगा, क्योंकि ट्राली से लटकनेवाली जंजीर झुँझलाती हुई झनझनाहट के साथ ट्राली की टिन पीट उठती थी।
इस समय ट्रैक्टर की आँखों से फूटती रोशनी में तिवारी का पूरा पिछवाड़ा गहगह हो उठा होगां सड़क से उतरी रोशनी सबसे पहले वहीं पड़ती है और झलक मारकर अक्सर ठाकुरों के मुहल्ले की ओर मुड़ जाती है। इस रास्ते पर गड्ढे कुछ अधिक ही हैं जिन पर कूदती-फलाँगती धचाक-’भचाक से गोधन का दिल डूबने-उतराने लगता है और वह कोई चालीस साल पहले की कौंध में पहुँच जाता है जब इसी पहर पुलिस की लारी उतरकर ठाकुरों के मुहल्ले की ओर मुड़ी थी....और वह अगली झपकी में ही था कि चबूतरों पर चढ़ खुरहरी खटिया आ घेरी थी। कुंदे की कोंच से उठकर वह राम-राम जुहार-बंदगी भी न कर पाया था कि लात-घूँसों, बट की मार से चबूतरे पर ही पसार दिया था उसे। घड़ी-भर में मुहल्ला ही नीं, गाँव-भर इक्ट्ठा हो गया था, पर टोकने की हिम्मत किसे थी उन दिनो ? केवल उसकी घरवाली ही रोती-बिलखती बीच में आकर कुछ चोंटे अपनी देह पर झेल पलक झपने को राहत दे जाती थी।
बताया गया कि वह बऊपुरा की चोरी में शामिल था। बऊपुरा उसने कभी देखा भी नहीं था। बड़ा मारते खाँ था झण्डासिंह थानेदार....बत्ती लगाना बहुत मशहूर था उसका। बत्ती यानी पेट्रोल में भीगी चिंदी पाखने की राह घुसेड़ देना...। पक्के से पक्का चोर भी तोते की तरह पढ़ने लगता था। आँतें इस तरह जलने लगती थीं जैसे हजारों-हजार किर्चें चुभों दी हों। चिंदी निकलने के बाद भी दस-बारह घण्टे पेट में अलाव सा सुलगता रहता था।
गोधन ने कबूल कर लिया था कि वह चोरी में शामिल था और बँटवारे में मिली चाँदी की हँसुली उसकी पत्नी के पास है। उसे छठे दिन फिर लाई थी पुलिस गाँव में। सूजे चेहरे, लँगड़ाते, घिसटते से चलते गोधन के दोनों हाथ कलाइयों से ऊपर तक खपंचेनुमा हथकड़ी में फँसे थे। अपने हाथों सेस वह सिर्फ चिलम पी सकता था या ओक लगाकर पानी, जिसमें से आधा कुहनियों के सहारे नीचे बह जाता था। मंदिर की चौपाल पर वह गाँव-भर के बच्चों के लिए तमाशा बन गया था।
पत्नी के सामने न जाने वह किस-किस तरह गिड़गिड़ाया था कि उसने हँसुली लाकर थानेदार के हाथ में धर दी थी। थानेदार जब्ती के कागज बना ही रहे थे कि बवंडर की तरह आई थीं पाराशर काकी।
‘काय रे गोधन ! जे हँसुली चोरी में मिली है तोकूँ ?’’
सब सन्न थे। झण्डासिंह की तफ्तीश के बीच दखल ! अब डुकरिया की इज्जत गई। कहीं वह पाराशर काकी को भी न बाँध ले, इल्जाम लगा दे कि बुढ़िया चोरी का माल गलाती है। गोधन सिर नीचा करके आँसू टपकाने लगा था। तमाशबीन सकपका गए कि गोधन तो आदमी है-छोटी जाति से है-मार-पिटाई, जेल आदि कोई अनहोनी नहीं, पर पंडिताइन काकी के साथ कुछ जा-बेजा हो गया तो गाँव भर की इज्जत मिट्टी हो जाएगी।
खटिया पर बैठे थानेदार ने हुमचकर काकी को देखा था-‘‘तू कौन है बुढ़िया ?’’
‘‘मैं पुरोहित हूँ जा गाँव की। सीधा माँगती हूँ, सीधा खाती और सीधा बोलती हूँ। पर महाराज। तुम तो बड़े आदमी, ऑफीसर हो। जाँचपरखि के इन्साफ तो करते कि हँसुली कौन की है ?’’
व्यंग्य से मुँह टेढ़ा करके थानेदार बोला-‘‘अच्छा...इन्साफ ! तो तू ही बता किसकी है हँसुली, तेरी ?’’
‘‘मेरी नई, जा भकचोदरे की लुगाई की है पूरे पाव-भर की। मैंने अपने हाथन गढ़वाई हती सुनार पै जाके ब्याह में। पूरे चालीस गिने हते। ब्याह के दो सौ रूपया में सालभर नौकरी करी हती जा गोधना के बाप ने मेरे ह्नां।’’
‘‘अच्छा ! तो ये कैसे बता रहा है कि चोरी के बाँट में मिली है ? इकबालिया ब्यान !’’ थानेदार ने कड़कती धौंस के साथ पूछा।
‘‘सीधी बात है-मार के डर से। हाड़ कुटवायने से अच्छा है कि पाँच टका दै परिहरौ अनचाहे का संग।’’
‘‘बहुत जबान चलाती है बुढ़िया ! जानती है किससे बात कर रही है ? ’’ थानेदार गुर्राया।

‘‘जानत हौं महाराज ! थानेदार झण्डासिंह को भला को नहीं जानत ? जेऊ सुनी है कि बड़े इन्साफी आदमी हो....सोई देखन चली आई। साँची-सूधी तिहारे सामने धर दई, अब तुम जानो। हम तो परजा हैं- राजा मारे मरें, जियाये जियें।’’ पाराशर काकी ने कहा था।
थानेदार ने कुछ सोंचते हुए भौंहे ऊपर-नीची कर गोधन की घरवाली से पूछा था-‘‘अब तू बता। बुढ़िया सही बोलती है कि तेरा आदमी ?’’
घरवाली केक बोल न फूट पा रहे थे। दूसरी डाँट पर बोल पाई थी कि काकी की बात ही सच्ची है।
थानेदार ने खड़े हो गुस्से से फनफनाते हुए उकरूँ बैठै गोधन को थप्पड़ो लातों से लुढ़का दिया था और हँसुली गोधन की घरवाली के सामने फेंक हथकड़ी खोल कूच कर गया था। चालीस साल पहले का यह अहसान गोधन अब तक पाराशर काकी के नाती-बच्चों तक को चुकाअता आ रहा है। यहाँ तक कि वोट पड़ने के एक दिन पहले वह काकी के द्वार जाता है। काकी तो मर सरग गई, उनके लड़के से पूछता है-‘‘कहो पंडिज्जी, बोट कहाँ दें ?’’
पंडिज्जी सीधे कुछ नहीं कहते क्योंकि इस मामले में अब कोई सगा नहीं रहा। वोट आदमी को नहीं, जातियाँ जाति को देती है, फिर भी इशारा कर देते हैं कि ‘दद्दू हम तो अमुक को दे रहे हैं।’’ फिर चाहे घरवाले मानें या न मानें, गोधन का वोट वहीं जाता है जहाँ के लिए इशारा होता है। इस मजबूत रिश्ते को वह छिपाता भी नहीं है।
हाँ, रात के चौथे पहर जब किसी इंजनप की घर्र-घर्र-घर्र या हॉर्न की पें-पें से उसकी नींद टूटती है तो सीले मौसम में पुरानी चोटों की तरह कुछ यादें उभरकर कसकने लगती हैं, फिर वह सो नहीं पाता।
धचकों की आवाज के तार जाने कैसे उसके बचपन को छूने लगते जब वह अपेन हमउम्र तीन-चार लड़कों के साथ प्रमुख चरवाहे का सहायक हुआ करता था। हफ्ते में एक दिन ढोर खादर में चरने जाते जहाँ गाँव भर के मृत पशु फेंके जाते थे। कुत्तों और गीधों के दाँवपेंच और चालें देखने में उसे बड़ा मजा आता था। वे लोग कंकालों के सींगवाले सिर पत्थरों के निशाने लगाकर फोड़ा करते थे और हर सिर को गाँव के किसी चलते पुर्जा का नाम दे लेते थे।
समय की पलट ही है कि आज वह स्वयं चलता पुर्जा लोगों में से है। जिस वर्दी से उसकी रूह काँपती थी, आज उसके बेटे के पास है। जिन ठाकुर साब ने उसे फँसाया था, उन्होंने चौधराहट झटककर दीनों की पाँत पकड़ ली है। कहते हैं तुम दलित हम पिछड़े...भाई..भाई ही तो हैं। उनका समधी दलितों की पार्टी से विधायक है...ठाकुर साब भी कोशिश में हैं। पहले ऊपर होने का लाभ था, अब ऊपर-नीचे दोनों ओर पलटियाँ मारने की सुविधा है।
गोधन की नींद अभी पूरी नहीं हुई। वह कुछ देर और सोना चाहता था। आदमी के लिए नींद भी तो जरूरी है। पर जब से मेहनत छूटी है, नींद भी साथ छोड़ गई। कुछ लोग दिन में सोकर जरूरत पूरी कर लेते हैं। कुछ बिना जरूरत भी सो लेते हैं। उसे ये दोनों आदतें नहीं .....और जब इस तरह उसकी नींद टूटती है तो अगला पूरा दिन टूटन-भरा बीतता है।
दो दिन से रातों की ठण्ड कुछ ज्यादा ही झमक आई है। जो रजाई देवउठनी ग्यारस से घरी की हुई पैताने धरी रहती थी, वह एड़ी से नाक तक फैद उठी है। आधी रात के बाद तो हाथ बाहर निकालते ही चींटियाँ सी काटने लगती हैं नसों में। गोधन ने सिरहाने के पायेय से रखा लोटा टटोला और घूँट फरफराते हुए कुल्ला थूका। आदतन खाँसा भी जो मात्र सूचना होती है कि कोई जाग रहा है ब्रह्मा ने चारों के खाते में रखा है। भीतर गेंउड़े में ब्यानी-बखानी भैंस और बैलों की नई जोड़ी बँधी है। जिस पर इलाके के कारू आदमियों की आँखें हैं। सोते बखत वह दो लोटा पानी चढ़ा लेता है जो उसे दो-तीन बार खटिया छोड़ने को विवश करता रहता है। पानी चुकने तक किसी न किसी मुहल्ले की चकिया घरघराने लगती है...चार छह ठौर से खाँसा-खखारी शुरू हो जाती है- मतलब निशाचरी समय बीता।
गोधन ने रजाई समेट हाथ भीतर कर लिये। भट्भट् के कर्कश शोर से गायों की रंभाहट व बकरियों में मिमियाहट शुरू हो गई। चौधरी ठाकुर ने बगलवाली सरकारी गोचर पहाड़ियाँ घेर नई कोठी बनवाई है- पुराना घर ढोर-डंगर, भुस-काकस के लिए रख छोड़ा है। दो चौक की उस हवेली में अब भूत बियाते हैं। पहले गोधन जब चौधरी ठाकुर के यहाँ हलवाही करता था तब उसकी घरनी बतसिया भ्ज्ञी टहल करती थी भीतर से बाहरत क। गौने में आई बतसिया होगी तो सोलह-सतरह की, पर देह की उठान गजब की थी। चौधरी ठाकुर की दुलहिया ने पहलौटा जना तो हवेली में खुशी दुगुनी हुई, काम चौगुना। मूल नक्षत्र में जन्मा था बच्चा, सत्ताईस दिन तक प्रसूता सूरज की किरन न देख सकती थी। बतसिया माँ बेटा दोनों का सहेज अधरत्ता पड़ते लौटती। छठे दिन लहँगा-लुगरा मिला तो फूल-सी खिल गई। अट्ठे बाद चौधरी ठाकुर ने बतसिया की ओढ़नी का छोर पकड़ा तो अकबा गई वह। चौधरी ने छोर में पाँच चांदौरी कलदार बाँध दिए, विक्टोरिया छाप-और खींचकर छाती से लगा छोड़ दिया।
भरभराती देह लिये वह घर पहुँची और कलदार अम्मा की गोद में फेंककर कहा- ‘‘अब नहीं जाऊँगी हवेली !’’
अम्मा के माथे पर कई लकीरें बनी-बिगड़ी। रात-भर बापू की चिलम सुलगी और सुबह अम्मा ने कलदार फिर उसकी ओढ़नी में बाँध दिए, यह कहकर कि ‘‘उनका धरम उनके संग है और अपना धरम अपने हाथ। ठौर-कुठौर पग धरेेंगे तो जात भी उनकी ही बिगडेंगी ना।’’
गोधन को अच्छी तरह याद है कि इस घटना के कुछ ही दिन पहले बापू ने जभारलाल को बोट दिया था।
चौंतरे के पास कुछ कुत्ते आकर घुघियाने -लड़ने लगे थे। किसी दूसरे मुहल्ले का ुत्ता आ गया होगा-उसने सोचा। मुहल्ले के भी लड़ जाते हैं किसी कुतिया के पीछे। कभी इनकी रितु क्वार तक सीमित थी, अब बारहो महीने जारी रहती है। उसने एक वजनदार गाली से कुत्तों को हँकारा। अब लड़के चौधरी की बराबरी करना चाहते हैं। कर लेंगे ? चौधराइन क्या बतसिया बन जाएगी ? बड़ा बेटा बड़ों की तर्ज पर खेतों को फारम बोलता है। आने-जाने के लिए सायकिल भली थी कि फटफटिया उठा लाया-तेल खाती है और धुआँ हगती है। फिर टी0बी0 आई। ऐसी पुतरिया छाप लुगाइयाँ कि बूढ़ी बतसिया के साथ भी चरित्तर न देखे जाए-मार चिपटा-चिपटी, चूमा-चाटी। कमर हर वक्त पुकारती ही रहती है। जनकी जचगी का अनाजतक नहीं पटा, ससुरे वे लौण्डे भी सीटी मारते हुए कमर को आगे-पीछे झटका देवे हैं। तुर्रा ये कि जरा-सा कलपुर्जा इधर-उधर होते ही लादो शहर के लिए-पैसा फूँको, घिघियाओ और चक्कर काटो। गाँठ ढीली कर चिंता क्यों खरीदते हो भाई ?
बेटे कह देते हैं- ‘‘तुम नहीं समझते। आज के जमाने में दिखावे के लिए भी बहुत कुछ करना पड़ता है। नहीं तो दौड़ में पिछड़ जाते हैं।
गोधन नहीं समझ पाता कि आँख पर पट्टी बाँध दौड़ने का चलन कहाँ ले पहुँचेगा ? अब राजाराम देखा-देखी में द्वार पर ट्रेक्टर का हाथी बाँध रहा है। दोपहर से एजेन्सी वाले कारिंदा के साथ शहर निकल गया है। कल आया था कारिंदा...बड़ी मुलायम बानी बोलता था -सहद की माफिक मीठी। चाय-पानी का कोई परहेज न देख गोधन ने कुछ संदेह, कुछ अपनापे से पूछ लिया-‘‘कौन दूध हो भैया ?’’
‘‘दूध .... ? दूध क्या ? वह समझ नहीं पाया।
‘‘मतलब किस देहरी का जनम है तुम्हारा ? ’’
‘‘ओ ! आप कास्ट पूछ रहे हैं ....’’
‘‘नहीं, कष्ट नहीं।’’
वह हँसा था- ‘‘कष्ट नहीं बाबा, कास्ट...जाति ना !’’
गोधन ने सिर हिलाया तो राजाराम की आँखें बरजने की मुद्रा में थिर हो गई- वह कुछ गलती हो जाने की आशंका में सिकुड़ उठा था।
कारिंदा ने कहा था- ‘‘यूँ समझो दादा ! मैं कोई जाति-वाति नहीं मानता। उसके होने-न होने से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।
गोधन की शंका और गहरी हो गई। पहले उसके बड़ी जाति होने का संदेह था, अब लगा कि जमादार, बाल्मीकि या खलखेंचा चमार भी तो हो सकता है। उसे कारिंदा की आँखों में कांइयांपन की हल्की-सी लकीर दिखी थी जिससे आँखें कुछ छोटी और तीखी हो उठी थीं। लगा कि वह जाति छिपाना चाहता है।
उसने बात का रूख मोड़ा-‘‘हम तो किसान हैं भैया ! दो के आसरे जीवत हैं-रूखी और राम-भजन।’’
राजाराम को भय हुआ कि अब बूढ़ा बाप जाने क्या उगले, सो बीच में बोल उठा- ‘‘दददू ! ये शर्माजी हैं-ब्राह्मण।’’
गोधन झटका खा गया, जैसे चढ़ते-उतरते कोई सीढ़ी चूक गया हो। नतीजा तो एक ही होता है-नीचे की ओर लुढ़कना तथा देह की टूट-फूट। पर उसे छाती में कोई संतोष सा पींगे लेता अनुभव हुआ। एक ब्राह्मण बिना आड़-ओट खा रहा है, उसके द्वार पर। उसे बेटे पर भी गर्व हो आया जो बराबरी के साथ बड़ों की संगत कर लेता है। पाराशर काकी लाख सच्ची और हमदर्द थीं, पर छुआछूत का रोग न छूट पाया उनसे, और ये अगर छूआछूत नहीं मानता तो आँखों में ईमान और बात में सचाई का दम भी होना चाहिए था। अजब है जहाँ चने के भण्डार हों वहाँ दाँत नहीं और जहाँ दाँत वहाँ चने गैर-हाजिर।
गुत्थी सुलझाते हुए वह मौन हो गया।
राजाराम किसी काम से भीतर गया तो गोधन पूंछ बैठा-‘‘ट्रैक्टर में कितनी रकम लगेगी- सरमा जी महाराज ?’’
शर्मा हँसकर सांत्वना देता बोला- आप घबराइये मत दद्दू ! बैंक फायनेंस करेगी, मतलब खरीदने का पैसा देगी।’
‘‘पर भैया ! बैंक तो करज देगी । नहीं ?
‘‘हाँ ! पर हरिजनों को करज पर भी छूट मिलती है, यानी दो लाख मंे पचास हजार सरकार भरेगी।’’
‘‘हमारा करजा सरकार कौन मतलब से भरेगी ? कछू न कछू स्वारथ तो होवन ही चाहिए- सुर नर मुनि सबकी यह रीति, स्वारथ हेत रकें सब प्रीती।’’ गोधन हँसा जैसे उसने अपने ज्ञानी होने का प्रमाण दे दिया हो।
‘‘वो तो है दद्दू ! पर सोचिए कि हमारी कम्पनी के ट्रैक्टर से इज्जत कितन बढ़ती है...सबको नहीं मिल पाता।’’ कह शर्मा जी पेंट के बटन छूते हुए एकांत कोने की ओर बढ़ गए और गोधन उस सूत के सिरे मिलाने लगा जिसमें कर्जदार होकर इज्जत बढ़ जाती है।
दोनों के फटफटिया पर जाने के बाद गोधन की शाम जाने क्या-क्या मीज़ान लगाते बीती, जैसे यही कि जिसके दूर की घरघराहट और धचाक-फटाक से उसकी नींद गायब हो छाती दहल जाती है, तो वह सामान उसके बराबर आ बैठने पर क्या गुजरेगी ? जाने किसके पुन्न प्रताप और हड़कुटई के बाद पीढ़ी दर पीढ़ी चले आते कर्ज से मुक्ति मिली तो तो बैठे ठाले यह नई गठरी ! कितनी पीढ़ियों चलेगी ? ...कौन जाने ! कर्ज हमेश बँधआ बनाता है और बँधुआ के बीबी-बच्चे भी उसी माला के मनके होते हैं। बतसिया के छोर में पाँच विक्टोरिया बँधे थे तो अब कोई पाँच गांधी-छाप बाँध देगा। तब जबर लाठी के तेल की चमक थी, अब कड़क नोट की खरखराहट हो जाएगी। करज का मतलब ही चुक जाने तक की गुलामी है।
घबरा उठा था गोधन ! ...किससे बात कर राहत पाए ? संतान दौड़ में है- पास बैठ समय गँवाने पर पीछे रह जाएगी-गोधन भी इतना समझने लगा है। बतसिया की पहुँच घर जँवार की सलामती तथा भरपेट होने से ज्यादा नहीं। पुराने संगी-साथी या तो कम बचे हैं या पहला सा अपनापा नहीं बचा।...फिर भी शायद कोई मिले जो मन से मन की बात करे शायद! दुनिया है तो वे लोग भी होंगे ही जिनकी वजह से ये रहने लायक है। आखिर रह ही रहे हैं लोग। सिर्फ बड़े मकानों, बड़ी दुकानों और भाँति-भाँति के सामानों के ही सहारे तो नहीं रह सकता आदमी।
इसी तरह की उधेड़बुन में वह स्कूल की ओर मुड़ गया जहाँ छुट्टी की घंटी बजने के बाद चौपड़ मढ़ जाती है। भदौरिया मास्टर खुद नहीं खेलते तथा औरों को रोकते भी नहीं। अच्छी काश्तवाले दबंग आदमी है। मर्जी से स्कूल खोलते और बंद करते हैं। कुछ कह दें कोई तो सीधा बोल देते हैं- ‘‘नेतागिरी न छाँटो ! गूदा हो तो तबादला करवा दो। सोलह साल से सड़ रहा हूँ इस गाँव में। नेता और अफसर मजे करते हैं शहर में। खुद रकम चीरते हैं और ईमान मास्टर की धोती की कांछ में लटका दिए हैं। कहते हैं-गुरू को ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए। घंटा होना चाहिए गुरू को। जिन्हें नाक पोंछने का शऊर नहीं, वे भी दन्न शिकायत कर देंगे मास्टर की। पटवारी-पुलिस की नहीं करते जो दामाद बनकर नज़राना लेते हैं..... उनके मारे फटती है। बस, एक मास्टर है गाय, जैसे चाहो पूँछ मरोड़ो।....स्कूल में ताश क्या, जुआ खेलो, मेरे बाप का क्या जाता है ? ’’
राजाराम से कुछ ऊँची उमर होगी। कभी-कभार उठक-बैठक कर लेता है, साथ-साथ फरागती के लिए निकल पड़ा था। गोधन को देखते ही हँसकर बोला-‘‘ट्रैक्टर तो कल आएगा दद्दू। आज ही हेरने निकल पड़े ?’’
‘‘अरे कहाँ ....मैं तोा वैसे ई .....।’’
‘‘अरे हमसे सना छिपा कुछ भी। दलाल के साथ राजाराम हमारे हिंयई होता गया है।’’
‘‘दलाल .....? वे तो पंडितजी हते, सरमा जी...?
भदौरिया जोर से हँसा- ‘‘पंडित का दलाल नहीं होते ? यों समझो कि ढाई लाख में जो चीज तुम्हारे हिंयन आय रही है....उसकी लागत है डेढ़ लाख।’’
‘‘तो ढाई काये लगेंगे ?’’
‘‘काये लगेंगे कि िबचत में एक बड़ा हिस्सा परदेसी कम्पनी को जाएगा...काये से किसी देसी सेठ से उनकी हिस्सेदारी है....या कहो कि परदेसी का सूबेदार है देसी। देसी के छोटे-बड़े कारिन्दे हैं कई .....तो इन सबकी भी चुपड़ी हम-तुम जैसों से ही चल रही है। फिर तुम्हारी सरार है तो सरकारवालों के खर्चे भी तुम्हें ही उठाने हैं....उनके भी दलाल हैं....।’’
‘‘तो ह्नयां सरकारें भी दलाली पै चल रई हैं। ? ‘‘गोधन ने कुछ अनखनाकर पूछा।
‘‘अरे द्ददू ! सरकारों की बात का, देश दलाली पे चल रहे हैं। ’’ मास्टर खिलखिलाया - ‘‘तुम समझ रहे हो कि बुरे दिन बीत गए- मेहनत कर कमाते-खाते हो- तरक्की कर रये हो, पता है कि हमारा तुम्हारा रोयाँ-रोयाँ कर्जे में बिंधा है...।’’
‘‘बिना लिये ही ? ’’गोधन चकराया।
‘‘लिया तो है मगर औरों ने। पचा गए वो ! हवा में उड़ते, कालीनों पर चलते हैं- उनका लिया भरना तुम्हें हैं। देखना किसी दिन तुम्हारे खेत-आँगन के नीम और जाने किस-किस पर किसकी तख्ती ठोंक दी जाएगी...।’’
‘‘मज़ाक कर रहे हो मास्टर ! गोधन ने स्वयं को सांत्वाना-सी दी।
‘‘मजाक नहीं कर रहा दद्दू ! मैं किस खेत की मूली हूँ ? मजाक बड़े बड़े लोग कर रये हैं...फँसाने के बहाने खींेच रहे हैं वे। समझो, चाहे न समझो।’’ कह भदौरिया फरागत होने बढ़ गया।
गोधन ने स्वयं को ऐसे कुरूक्षेत्र में खड़ा महसूस किया जहाँ अंधे, अभिमानी, लालची, महत्वाकांक्षी तो हर ओर हैं-कृष्ण कोई नहीं। लौटकर ब्यालू के बहाने, पानी के सहारे कुछ कौर गटक लिये थे...पर रात भर-मन में रई-सी घूमती रही।
किसी चक्की मंे दाने पड़ गए थे। कुछ देर वह सिमटा सा उकरूँ बैठा रहा फिर टाँगे सीधी पसार लेट गया। आँख खुलने तक भुनसारा पीछे छूट चुका था। बतसिया दो-तीन चक्कर चारपाई के लगा गई कि आज क्या बात है ? इस बरिया तक तोकभी नहीं सोतें ।
अगले चक्कर पर झिंझोड़ दिया उसने-‘‘का भया तुम्हें आज ? एक पगहिया दिन चढ़ि आवा और तुम खाट में धरे-धरे पाद रये हो !’’
हड़बड़ाकर उठा तो पाया कि घर-भर में नइ्र चीज़ आने की उत्सुकता फैली थी। बच्चे तक भोर से ही जगकर भीतर-बाहर चक्कर काट रहे थे। अलाव की आँच तक न करेदी थी किसी ने, अर्थात् कोई तापने बैठा ही न थां वही चिलम लेकर आग खखोरने आ गया। एक लिम बुझी तो दूसरी जमा ली। उसे बीड़ी में स्वाद नहीं आता-चिलम की खुशबू ही अलग होती है।
बतसिया ने सुबह का लोटा पास रख दिया तो उबासी और अँगड़ाई लेते हुए, उठकर वह गाँव के बाहर की ओर बढ़ लिया। खेत में बैठे-बैठे उसे लगा कि कोई घरघराहट धचाक्-पचाक् करती उसी के मुहल्ले की ओर बढ़ रही है। उसकी धड़कन तेज हो गई-राजाराम लेकर आ गया ट्रेक्टर....। भले ही कर्ज की गठरी लादकर आई हो...है तो नये जमाने की चीज़। घर का मुखिया अभी राजाराम नहीं, गोधन है...गरी और गुड़ बँटवाना ही पड़ेगा। लौण्डे-लपाड़े रस के साथ सुख बाँटना कहाँ जानते हैं ! देहरी की मरजाद तो उसे ही रखनी है।
गोधन ने कसकर लाँग लगाई और घर की ओर बढ़ लिया।
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