Paar - Mahesh Katare - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

पार - महेश कटारे - 2

महेश कटारे - कहानी–पार 2

कमला मोहिनी में बँध उठी। घाटी और उसके सिर पर तिरछी दीवार की तरह उठे पहाड़ पर जगर–मगर छाई थी। जुगनुओं के हजारो–लाखों गुच्छें दिप्–दिप् हो रहे थे। लगता था जैसे भादों का आकाश तारों के साथ घाटी में बिखर गया है। चमकते–बुड़ाते जुगनू कमला को हमेशा से भाते हैं। सांझी में क्वार के पहले पाख में लड़कियाँ कच्ची–पक्की दीवार पर गोबर की साँझी बनाती थीं। दूसरी लड़कियाँ तो अपनी–अपनी पंक्ति तोरई के पीले लौकी के सफेद, या तिल्ली के दुरंगे फूलों से सजाती थीं, कमला अपनी पंक्ति में जुगनू चिपका देती, फिर कुछ दूर खड़ी हो मुग्ध आँखों से अपना करतब निहारती थी। तब यह उसका खेल था– कहाँ समझती थी कि उसके खेल में जुगनू जान से जाते हैं।

इलाके में आतंक है कमला का, अपनी पर आती है तो किसी को नहीं छोड़ती। वह उसका खास था, जाति का था, सप्लाई करता था, सुना जाता है कि कमला उससे जरूरत का काम भी लेती थी। गिरोह तक के लोग दबते थे उससे। अचानक जाने कैसे बिगड़ी कि कमला ने पचीसों के सामने उसके मुँह में मुतवाया और कोहिनी के ऊपर से दोनों हाथ गँडासेस से कतर दिए। जातिवाला था, नहीं तो जैसा कि उसका तकिया कलाम है–अंगविशेष मे गोली घुसेड़ देती। वह आदमी इलाके में कमला का विज्ञापन बना घूमता है।

‘‘चलो।।।माता की म.ढी पै बिसराम करेंगे।’’ कह कमला खड़ी हो गई।

लड़के ने ग्रीनर बाँस की तरह कंधे पर रखी, ढीले बैग के फीते कसे और नाक सुड़कता हुआ ब.ढनेवाले कदमों की प्रतीक्षा करने लगा। जानता है उसे न घाव सहलाने का अधिकार है न दिखाने का। नाक में छल्ला–छिदे बछड़े की तरह उसी ओर मुड़ता है जिधर रस्सी का संकेत मिले।

मंदिर पर पहुँच सबने चबूतरा छू, माथे से लगा, पा–लागन किया और जूते उतार फेरी लगाते हुए म.ढी में घुस गए। मूर्ति के पैरों में एक चीकट दिया जल रहा था जिसकी आभा में मूर्ति प्राणवान् और रहस्यमय दिख रही थी। बाबा अँधेरा होते ही संझा–बत्ती कर शायद नीचे उतर गया होगा।

पहाड़ के छोर पर बना यह छोटा–सा मंदिर रतनग़ढ की माता के नाम से प्रसिद्ध है। किंवदंती है कि दूज–दीवाली के दिन यहाँ आल्हा पूजा करने आते हैं। आल्हा अमर है–युधिष्ठिर का औतार। बड़े–बू.ढों ने रात–बिरात किसी पचगजे ह्यपाँच गज लम्बेहृ आदमी की पहाड़ी च.ढती उतरती झलक देखी है। देखने वालों में ज्यादातर मर–जुड़ा गए। एकाध बचा है जिससे ब्यौरेवार कुछ पता नहीं चलता, बस धुंधा में कोई तस्वीर तनकर रह जाती है।

मंदिर तक पहुँचने के केवल दो रास्ते हैं–एक तो पहाड़ी की कोर–कोर चलती ऊँची–नीची घुमावदार पगडण्डी और दूसरा खण्डहर हुए लौहाग़ढ के किले होकर दीवार की तरह सीधी खड़ी पहाड़ियों के सिर पर माँग–सी–भरती तीन कोसी कच्ची सड़क। म.ढी की छत पर बैठा आदमी पल्टन भी आगे ब.ढने से रोक सकता है। दो चार को तो गोफनी में गिट्टी भरकर निपटाया जा सकताा है।

चौमासे में यह स्थान गिरोहों के लिए मैया का वरदान है। ऋषि–मुनियों की तरह दस्युदल चातुमार्स ऐसे ही ठिकानों पर बिताते हैं। कमला के गिरोह का नाई सदस्य हरविलास जनम का हँसोड़ है। कहता है– ‘‘हम लोग जोगी–जाती हैं। करपात्री हैं। जब जहाँ जो मिल जाए खा लो और मौका मिल जाए तो सो लो। बाकी चलते रहो। जोगी–जती कहीं किसी से नहीं बँधते। हमारी भी वही गति है। न जिंदगी का मोह, न घर–द्वार की मया ह्यमायाहृ।’’

एक वही है जो कभी–कभी मौज में आकर कमला को बीबीजान कह देता है। पहली बार तो सुनकर कमला हत्थे से उखड़ गई थी, पर जब उसने बताया था कि फिल्मों में सबसे सुन्दर और घर की मालकिन को बीबीजान कहा जाता है, तब से कमला यह सुनकर खिल जाती है। कमला ने हरिविलास की हैसियत ब.ढाई है, कैंची–उस्तरा की जगह बारह बोर सौंपी है।

हरिविलास ने ही बताया था कि–‘‘बीबीजान को हम रण्डी समझते हैं।।।।।कुछ जानते थोड़े हैं। जाननेवाले तो दिल्ली–बंबई में रहते हैं। तड़ातड़ मारनेवाले को वहाँ लाखों–करोड़ों, कोठी–कार मिलते हैं। हमें क्या मिलता है ? ।।।।सेंतमेंत की दुÁख–तकलीफ देते–लेते हैं।’’

ऐसे में कमला हँसकर कहती है–‘‘साला नउआ, घरवाली का टेंटुआ चीरकर इधर क्या आ मरा ? निकल जाता बंबई या दिल्ली।’’

‘‘दिल्ली तो हम तुम्हें पहुँचाएँगे, कमला बीबी ! वहाँ अपनी फूलन अकेली है– बस, एक बड़ा स्वयंवर रच दो। दिल्ली–बंबई वाले लार टपकाते तुम्हारे पीछे न घूमें तो मैं मूँछ मुड़ा के नाम बदल लूँगा। फूलन तो शकल–सूरत से मात खा गई। तू पहुँचते ही मिनिस्टर हो जाएगी।’’

कमला सोचती है– ‘‘नउआ ससुरा बड़ा ऐबी है। छत्तीसा साला ! सपनों के हिंडोले पे झुला देता है।’’ प्रकट में कहती है– ‘‘चुनाव तेरा बाप जितवाएगा ?’’

‘‘मेरा बाप तो जाने सरग में है कि नरक में ।।।।पर कोई न कोई बाप मिल ही जाएगा। और चुनाव तो आजकल जाति जितवाती है। तेरी जाति, मेरी जाति और बाप की जाति–बस हो गए पार।’’ हरिविलास खी–खी कर देता है।

‘‘टैम कितना हो गया ? कमला की पूछती निगाह हरिविलास पर घूमी। हरिविलास की घड़ी पानी भर जाने से बंद है। कमला की घड़ी पट्टा टूट जाने से सामान के साथ लद्दू की पीठ पर लदी है। बाकी बे–घड़ी हैं। बादलों की टुकड़ियों से सप्तऋषि और सूका ह्यशुक्रहृ भी दुबके–ढके हैं।

‘‘दस के लगभग होंगे।’’ बन्दूक पर हाथ फेरते हरिविलास बोला।

‘‘अब तो चार घड़ी यहीं बिसराम ठीक रहेगा। भोर में नदी पार कर लेंगे।’’ छत की छॉव और चोटी का पवन पाकर गिरोह में आलस पसरने लगा था।

‘‘थोडा–बहुत पेट में भी डालना है। भागमभाग में दोपहर आधा–अधूरा खाया, तब से एक घूँट चाय भी नहीं मिली।’’

मौन स्वीकृति के साथ सबके झोले खुलने लगे। लड़के ने पीठ का थैला खोलकर कमला के सामने रख दिया। बोतल निकाल कमला ने तीन–चार बड़े बडे घूँट भरे। सबके पास इसी किस्म की बोतले हैं। इनका खास लाभ यह रहता है कि वजन में हल्की होती हैं। लड़का इस उसकी ओर टुकुर–टुकुर ताक रहा था कि कोई उसे दो घूँट पानी के लिए पूछ ले । मुँह से माँगने पर कमला के कोप का शिकार हो सकता है। संग–साथ रहते जान चुका है कि भूख–प्यास के बखत कमला खूँखार हो जाती है। पहाड़ी च.ढते समय भी उसका गला चटका जा रहा था।

प्यास के साथ उसे घर की यादव भी आ रही थी। वहाँ पर वह भरपेट खाकर मजे से सो रहा होता। माँ यााद आई– ‘क्या वह सो चुकी होगी ? ।।।।जग रही होगी। चारों भाई–बहनों पर हाथ फेरकर ही सोने लेटने है। मेरे बदले का हाथ किस पर फेरती होगी ?

भूख–प्यास भूलकर लड़का झर–झर आँसू टपकाने लगा। हिलकियों से देह हिल उठी। कमला बिस्कुट कुतरने में लगी थी। भौंहे च.ढाकर फुफकारती–‘‘क्या हुआ बे ? बीछू लग गया क्या ?’’

हिलकियाँ रोकने की कोशिश में लड़का और भी हिलने लगा।

‘‘बोलते क्यों नहीं मादर।।।।! कुछ खाने बैठो, तभी खोटा करने लगता है। जी में आता है कि ।।।।मैं गोली उतारकर ठूँठ पै टाँग दूँ हरामी को। चप।।।।।’’

कमला ने दो बिस्कुट उसकी ओर फर्श पर फेंक दिये। लड़का आँसू सँभालता हुआ बिस्कुट चबाने लगा। बिस्कुट का गूदा वह बार–बार जीभ से भीतरर की ओर ठेलता, पर प्यासे मुँह लार न होने से पेट में न सरक पाता। लड़का घूँट से भरता बिस्कुट निगलने की कोशिश कर रहा था।

दिए की पीली रोशनी में हरिविलास को लगा कि लड़के की आँखे बिल्कुल वैसी ही हो रही हैं जैसी उस्तरा गर्दन पर रखे जाते समय उसकी पत्नी की हो गई थीं। अनमने हरिविलास ने अपनी बोतल लड़के की ओर सरका दी– ‘‘पानी पी ले पहले।’’

लड़के ने बिस्कुट चबाती कमला की ओर देखा।

‘‘पी ले ना !’’हरिविलास ने नरमी से कहा।

लड़का फिर भी हाथ न ब.ढा पाया।

‘‘पी ना।।।।के ’’ हरिविलास की चीख म.िढया में गूँज गई।

लड़के ने सकपकाकर बोतल झपट ली। कमला मुस्करा उठी। दूसरे हँस पड़े– दीवारों के बीच कहकहे भर गए। माता की मूर्ति उसी तरह अविचल थी– सिंह पर सवार, सिर की ओर त्रिशूल ताने।

सहमते लड़के ने गिनती के चार बड़े–बड़े घूँट भरे और ढक्कन कसकर बोतल हरिविलास की ओर ब.ढा दी।

‘‘अब चल देना चाहिए।’’ हरिविलास की गंभीरता से गिरोह के लोग चौंक गए।

क्यों ? यहाँ बिसराम ।।।।? ’’ दीवार के सहारे अधपसरी होती कमला ने पूछा।

‘‘कान खोलो ! दखिनी तरी में मोर कोंक रहे हैं।।।।सियार भी रोए हैं। दबस ह्यदबिसहृ हो सकती है।’’