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कोट - २

कोट-२

कोट को लिए मैं मैदान की सीढ़ियों पर बैठ जाता हूँ। झील से आती चंचल हवायें धीरे-धीरे मन की उधेड़बुन में पसरने लगीं। इसी बीच मुझे ताई जी द्वारा बतायी बातें याद आ गयीं। वह कहा करती थी कि ताऊ जी जब अपनी बहिन से मिलने गरुड़ जाया करते थे तो कोट और धोती पहन कर जाते थे। बीच में आठ मील का घना जंगल पड़ता था। ताऊ जी अन्य सामान के साथ हाथ में दही की ठेकी लेकर जाते थे। जब वे पहाड़ के शिखर से नीचे उतरते तो जंगल और घना दिखता था। धीरे-धीरे उनके हाथ की ठेकी असहनीय भारी महसूस होने लगती थी।फिर वे ठेकी को जमीन पर रख देते और कोट उतारकर अपने कुल देवता को याद करते थे। उसके बाद ठेकी उठाते तो ठेकी उन्हें सामान्य भार की लगती। उन्हें लगता एक साया वहाँ से दूसरी पहाड़ी की ओर जा रहा है।
बुआ के घर पहुँचने पर मास दाल(उड़द )और चावल के मिले दाने उनपर छिड़के जाते जिससे छ-झ पय्ट ( छल-झ पय्ट) यदि कुछ उनके साथ आया हो तो उसे उतार दिया जाता और वह घर के अन्दर न आये। वैसे यह परंपरा महिलाओं और बच्चों पर अधिक प्रचलित है। इसे छल को खिचड़ी देना कहते हैं। लेकिन ताऊ जी अपने साथ घटित घटना के कारण अपने पर इस परंपरा को प्रयोग कराया करतेथे।बीस साल बाद मुझे इस जंगल से जाने का अवसर मिला,अकेले। डर लगना स्वभाविक था लेकिन मैं इतना थक जाता था कि डर मन में घुस, वहीं दुबुक जाता था। वृक्षों में अपना एक दैवीय सौन्दर्य होता है जो मन में सदैव बैठ जाता है और जीवन को निरंतरता प्रदान करता है। तभी मेरा ध्यान टूटता है और
बैठे-बैठे फिर मैं पढ़ने लगता हूँ-
"आँखमूद कर घर से निकल लो
चाहे टहलना हो
गपसप करनी हो
अपने आप में खोये रहना हो
या बचपन के साथी से मिलना हो
या जवानी का इंद्रधनुष देखना हो
लड़कपन को याद करना हो
विद्यालय की लड़के-लड़कियों से मिलना हो
परिवर्तन सुडौल हो या बेडौल
चर्चाओं को चलने दें।
कोई राजनैतिक सभा हो
खुले मन से बात करनी हो
पहाड़ पर चढ़ना हो
बर्फ की बात करनी हो
या उस पर चलना हो।
हो सकता है वह लड़की या लड़का
तुमसे बात न करे
पर तुम वहाँ तक पहुँच तो सकते हो
चलते समय मन बहुत सी बातें पगडण्डीनुमा बना
बाग-बगीचों में नाच चुका होगा।
आँखमूद कर प्यार कर लो
चाहे सदियां बदलनी पड़ें
परंपरायें तोड़नी पड़ें
प्यार , गुणा-भाग तो नहीं
जीवन की तल्ख सच्चाई से परे
कुछ क्षण उड़ लो
खट्टे-मीठे अनुभव, और रोमांचक किस्से
जो साँप की तरह जीवन में घुस,
कहने लगे हों-
यही तो मजा है बिना जहर होने का।

दोस्तो, आओ झील के किनारे
बहुत अच्छी धूप खिली है
आँखमूद कर लेट जाओ
मेरी कहानी नहीं तो
अपनी ही कहानी कह जाओ
या फिर समाज की समस्या ले लो
कोई हल बताओ
सभ्य होने के लिये।
उधर से हवा में दुर्गंध आ रही है
तुम सांस बंद कर लो
लेकिन कितनी देर कहा नहीं जा सकता,
फिर भी कहूँगा
आँखमूद कर कुछ कर लो
कोई हाथ दे तो उसका हाथ पकड़ लो,
कोई मन दे तो मन पकड़ लो।

मित्रो, आओ विचार करने
कि हम अभी भी सदियों पुराने
अक्षर पढ़ते हैं, अ,आ,क,ख
गिनती भी उतनी ही प्राचीन है
अनाज भी उतना ही प्राचीन खाते हैं
स्वाद बिगड़ा नहीं अच्छा ही है सबका
अतः आँखमूद कर कुछ काम कर लें
वृक्ष लगाने हैं तो वृक्ष लगा लें
नदी स्वच्छ करनी है तो साफ कर दें
कटाव रोकना है तो उसे रोक दें
पूजा करनी हो तो नमन कर लें।"

* महेश रौतेला