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कोट - ८

कोट -८
" मैं पृथ्वी सा घूमता रहा
मानो सूरज की परिक्रमा करता रहा,
शाम आते-आते अगली सुबह की कल्पना करने लगा।"
कोट पहना,संपादित कागज जेब में है या नहीं उसे देखा। वाक्य को दो-तीन बार पढ़ा। एक जादुई अहसास मन को हो रहा था। मेरा आवास जंगल के बीच था, अतः अचानक राजा दुष्यंत का कथानक दुबक कर मेरे मन में आ गया। दुष्यंत और शकुंतला का वर्णन महाभारत के आदि पर्व में है। दुष्यंत जंगल में शिकार करते समय अपने साथियों से बिछुड़ गये थे। और शकुंतला से उनकी भेंट होती है जो प्यार में बदल जाती है। शकुंतला ऋषि विश्वामित्र और मेनका ( अप्सरा) की पुत्री थी। शकुंतला का जन्म होते ही मेनका ने उसे त्याग दिया। ऋषि कण्व को वह मिलती है और वे उसका लालन-पालन करते हैं। दुष्यंत ,शकुंतला से गंधर्व विवाह करते हैं और एक अंगूठी शकुंतला को देते हैं। एक दिन शकुंतला, दुष्यंत की याद में खोयी रहती और उसी समय ऋषि दुर्वासा वहाँ पहुँचते हैं लेकिन शकुंतला को उनके आने का आभास नहीं होता है। ऋषि दुर्वासा समझते हैं शकुंतला उनका अपमान कर रही है। वे क्रोधित हो जाते हैं और श्राप देते हैं," जिसकी याद में तू इतनी खोयी है, वह तुझे भूल जायेगा।" शकुंतला घबरा जाती है वह क्षमा माँगती है तो ऋषि दुर्वासा बोलते हैं," उसकी कोई वस्तु तुम उसे दिखाओगी तो वह तुम्हें पहिचान जायेगा।" लेकिन दुष्यंत की अँगूठी शकुंतला से खो जाती है। वह राजा के दरबार में जाती है, लेकिन दुष्यंत उसे पहिचाते नहीं। शकुंतला लौट जाती है और कुछ समय बाद एक पुत्र को जन्म देती है। समय बीतता जाता है। एक दिन एक मछुआरे को मछली के पेट से अँगूठी मिलती है और वह राजा को अँगूठी देने जाता है। अँगूठी देखते ही राजा को शकुंतला की याद आ जाती है। वह शकुंतला को खोजने वन में जाता है। फिर शकुंतला और पुत्र भरत को अपने साथ लेकर महल आता है। कहा जाता है हमारे देश का नाम भारत उनके पुत्र भरत के नाम से ही है। आगे चलकर पाण्डव और कौरव उन्हीं के वंश में हुये।
आवास से निकला तो देखा, नीचे सीढ़ीनुमा खेतों में माली ने आलू खोदकर उनके छोटे-छोटे ढेर लगा रखे थे। नैनीताल का आलू अपने विशेष स्वाद के कारण प्रसिद्ध है। और पका हुआ तोड़ने पर चमचम करता है। मुझे लगा यह शुभ मुहूर्त का उदय है। मैं खेत में गया और एक आलू हाथ में लिया। तभी देखा एक लंगूर दौड़कर मेरी ओर आने लगा और मैंने आलू फेंक दिया। लंगूर उस आलू को लेकर दूसरी तरफ चला गया। मेरी दिल की धड़कनें कुछ देर तक
तेज चलती रहीं। शुभ मुहूर्त की धारणा क्षणभर में ही छिन्न-भिन्न हो गयी। मैं उस दिन के अपने स्नेहिल विचार को स्थगित करने की सोचने लगा।
मन सोचने लगा उसमें कुछ दिखता था लेकिन क्या था,पता नहीं!
मैं ये सब बातें सोच ही रहा था कि बच्चे आकर मुझसे पूछते हैं," बाबू जी,वह चश्मे वाला अभी कहाँ है?" मैंने कहा ," वह अभी हिमालय की कन्दराओं में तपस्या करने गया है।" वे बोले," वह भी उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव की तरह तपस्या करता है क्या?

( क्रमशः)