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कोट - ३

कोट-३
जो कोट मेरे हाथ में था उसे मैंने वर्षों पहना था। उससे एक और याद लिपटती मुझे मिली।
हमारे गाँव से बीस मील दूर, घने जंगल के बीच एक प्यार की चादर होने की बात हम प्रायः सुनते थे। उस चादर का अस्तित्व कब तक रहा, यह किसी को पता नहीं था। लेकिन लोगों में उसकी आस्था बन चुकी थी और साथ-साथ परंपरा भी चल पड़ी थी, उसके प्रभाव को मानने की।तीर्थ स्थलों की तरह वह भी मन को शान्ति प्रदान करता था। लोगों की मान्यता थी कि जब किसी परिवार में अधिक झगड़े होने लगते थे या अशान्ति छाती थी तो उस परिवार के लोग वहाँ जाकर चादर चढ़ाते थे और वहाँ से एक चादर ले आते थे जो प्यार और स्नेह की प्रतीक मानी जाती थी। उस चादर को जो ओढ़ता था उसमें स्नेह का एक कुंड बन जाता था,ऐसी मान्यता थी।यह उसी प्रकार की मान्यता थी जैसी महाभारत के बारे में है। सुना जाता है कि महाभारत को घर में नहीं रखना चाहिए। उसे रखने से घर में झगड़े होते हैं जबकि गीता भी महाभारत का भाग है ।और महाभारतमें रोमांचक, अविस्मरणीय और अद्भुत कहानियां , कथाएं एवं घटनाएं हैं। जो हमें सदैव आकर्षित करती हैं। यदि कभी पूरी चादर किसी को नहीं मिलती तो वह उसका टुकड़ा लाकर ही संतुष्ट हो जाता था।
कभी-कभी छिना-झपटी में चादर फट भी जाती थी। कभी कोई उसे चुरा कर अपने घर ले आता था।मन को शान्त करने भी लोग वहाँ जाया करते थे।वहाँ का प्राकृतिक वातावरण भी लोगों को वहाँ जाने के लिए आकर्षित करता था। एक बार मैंने भी वहाँ जाने की योजना बनायी लेकिन आधे जंगल में पहुँच कर बाघ की भयंकर दहाड़ सुनकर मैं डर गया और वापिस लौट आया। मैं शान्ति की खोज में नहीं गया था, मात्र जिज्ञासा वश गया था। भगवान बुद्ध शान्ति और ज्ञान की खोज में बहुत भटके लेकिन अन्त में उन्होंने ज्ञान स्वयं ही प्राप्त किया। वे अपने प्रिय शिष्य आनन्द से कहते भी हैं कि प्रत्येक मनुष्य को स्वयं ही अपनी मुक्ति के लिये उद्यम करना पड़ता है। जब मैं लौट रहा था तो मुझे रास्ते में एक चश्मा पहना अद्भुत व्यक्ति मिला। उसका चश्मा विचित्र था। मैंने पूछा तो उसने कहा लगा कर देखो। मैंने जैसे ही चश्मा आँखों पर रखा मेरे सामने के सभी दृश्य बदल गये। हिमालय बहुत पास दिख रहा था।धूप में वह सुनहरा लग रहा था,जैसे अभी-अभी सुबह हुयी हो।ब्रह्मांड के नक्षत्र चारों ओर घूम रहे थे। नदियों में स्वच्छ,चमकता जल बह रहा था।परियाँ उनमें स्नान कर रही थीं। पशु-पक्षी शान्ति से पानी पी रहे थे। झरनों में अद्भुत सौन्दर्य झलक रहा था। सभ्यताओं और संस्कृतियों का उदय और अस्त दिख रहा था। प्यार की सुगंध पूरे वातावरण में छायी थी। दूर एक स्थान पर ऐसा लग रहा था जैसे उसमें सब कुछ लय हो रहा था, आदि और अन्त का अद्वितीय आभास।
धरती पर बहुत उथल-पुथल थी। मैंने पूछा कहीं आप सात अमर व्यक्तियों हनुमानजी, पशुराम जी, विभीषण, वेदव्यास,कृपाचार्य , अश्वत्थामा और राजा बलि में से तो नहीं हैं? वे चुप रहे।
(--- क्रमशः )

* महेश रौतेला