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कोट - १०

कोट-१०
एक रात चश्मेवाला अचानक मेरे कमरे में प्रकट हुआ। उसने मेरे से पूछा," तुम्हारा कोट कहाँ है?" मैंने अलमारी से निकाल कर उसे कहा ये है। उसने कोट लिया और स्वयं पहन लिया। मैंने कहा कोट बहुत मैला है लेकिन परिश्रम और प्यार का प्रतीक है। पसीने की गंध इसमें आ रही होगी। पगडण्डियों में तेज चलने पर ,पहाड़ियों में चढ़ने पर, खेतों में काम करने पर अक्सर पसीना निकल जाता था जिसकी गंध कोट में बैठ जाती थी।बर्फ की फाँहें कोट के ऊपर जब-तब गिरकर अनिर्वचनीय दृश्य उत्पन्न करते थे। चश्मेवाला बोला अपने हाथ दिखाओ मैंने उसे हाथ दिखाये। उसने हाथ छूकर देखा। मेरे कठोर हाथों को महसूस कर वह बोला मेहनत तो बहुत किये हो। मैंने फिर कहा इसमें प्यार के कुछ क्षण भी चिपके हैं जो दिखायी नहीं दे रहे हैं लेकिन मेरा मन उन्हें महसूस कर सकता है। उसने कोट को ध्यान से देखा और खोलकर मुझे दे दिया। जैसे ही मैंने कोट को पकड़ा एक तारा आकाश से गिरता मैंने देखा। चश्मेवाला तब तक जा चुका था। वहाँ पर हवाई जहाज के टिकट छोड़ गया था। एक मंबई से मस्कट और मस्कट से पेरिस की। दूसरी म्युनिख से मंबई की। टिकट के पीछे लिखा था ,"वसुधैव कुटुम्बकम" और "सत्यमेव जयते" तभी जब शक्ति से परिपूर्ण हों। मैंने खिड़की से बाहर झांका और चश्मेवाले को पुकारा," अरे भाई,कहाँ जा रहे हो?" वह बोला," अनन्त की खोज में जा रहा हूँ।" मैंने मन ही मन सोचा," हरि अनन्त, हरि कथा अनन्ता।" इस बार मैंने उसे वायुयान पर बैठते देखा। कुछ क्षण में यह दृश्य आँखों से ओझल हो गया। मैंने कोट के पास देखा एक कलम पड़ी है, जैसे ही मैंने उसे पकड़ा वह अद्भुत चित्र गढ़ने लगी। उसने सबसे पहले वसंत के वृक्ष बनाये। उनको फूल-फल से लादा। पके फलों को धरती पर गिरा दिया। बच्चे उन वृक्षों पर चढ़-उतर रहे थे।
फिर कुछ लोग आते हैं और उन वृक्षों को काटने लगते हैं। जो बचे उनपर पतझड़ दिख रहा था और कुछ सूख चुके थे। आगे जाकर वृक्षों को काटने वाले लोगों को राजा के सैनिक बन्दी बना कर ले जा रहे थे। बन्दी जोर-जोर से रो रहे थे।क्षमायाचना मांग रहे थे। लेकिन सैनिकों पर कोई असर नहीं हो रहा था।
सैनिक कुल्हाड़ी के डंडे से उन्हें बीच-बीच में मार रहे थे।उन्हें राजा के सामने ले जाया गया। वे राजा से प्राणों की भीख माँग रहे थे। राजा ने कहा बचपन में जिन वृक्षों की छाँव में तुम खेले-खाये, उन्हीं पर तुमने अपनी क्रूर कुल्हाड़ी चलायी है। राजा की आज्ञा से सबको कारागार में बन्द कर दिया गया। जिसने जितने पेड़ काटे थे, उसको उतने साल की सजा दी गयी। कलम ने आगे फिर एक हराभरा जंगल का चित्र खींच दिया। जहाँ पक्षियों के झुंड दिखायी दे रहे थे। पास के गाँवों में प्रेम गीत गाते लोग दिखायी दे रहे थे। एक जीवन्त चहल-पहल वहाँ दिख रही थी।
कलम चलते जा रही थी। कभी धीरे, कभी तेज। वह नदियों का खाका खींच रही थी, लेकिन सूखी नदियों पर रूक जा रही थी।मानों विक्षुब्ध हो सूखी नदी के दुख पर। फिर पत्थरों से टकरा -टकरा कर आगे बढ़ रही थी।कलम रूक नहीं रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे उसमें जादुई प्राण सुगबुगा रहे थे।

( क्रमशः
* महेश रौतेला