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बघेली संस्कृति और प्रेम तपस्वी

बघेली संस्कृति और प्रेम तपस्वी

राजनारायण बोहरे

रेजा (उंपन्यास)

लेखक- स्वर्ण सिंह रघुवंशी

प्रकाशक-राजेश्वरी प्रकाशन गुना

मूल्य-200/- रुपये

रेजा नामक उपन्यास पिछले दिनों पढ़ने को मिला। यह उपन्यास डॉ स्वर्ण सिंह रघुवंशी द्वारा लिखित एक विशिष्ट उपन्यास है जिसमें विंध्याचल या बघेलखंड की संस्कृति का बहुत विस्तृत और सूक्ष्म चित्रण हुआ है । जगह जगह पर चिकित्सक की भाषा और शास्त्रीय विश्लेषण इस उंपन्यास मे दिखता है। कहने को तो यह उपन्यास एक प्रेम कहानी है, लेकिन वास्तव में यह उपन्यास चूना पत्थर खदान और लोक संस्कृति के सुख से चित्रण के द्वारा अपना खास मुकाम हासिल करता है। यह उपन्यास सन 1980 से 87 के बीच में लिखा गया था और अगर फिल्मी पटकथा के नजरिये से देखा जाए तो यह उस युग की इसी मुकम्मल फिल्मी फिल्म की पटकथा बन सकता था। लेखक ने इसे फिल्मी दुनिया तक पहुंचाने का प्रयास नहीं किया अन्यथा यह एक सफल फिल्म का स्क्रीनप्ले और स्टोरी होती।

उपन्यास में अविनाश जी चूना खदान के मैनेजर हैं, एक दिन वह खदान पर काम देखने यूं ही जा रहे होते हैं कि कुछ रेजा आपस में बातें करते दिखती हैं । रेजा यानी स्त्री मजदूरों से उनकी बात होती है और वे काम ना करने की वजह से उन लड़कियों को डांटते हैं । लेकिन वे लड़कियां बुरा नहीं मानती और विनम्र जवाब देकर हंसने लगती हैं । इस तरह अविनाश की भेंट उन लड़कियों में से एक इस उपन्यास की नायिका गुल बसिया से होती है अविनाश को यह लड़की भाग जाती है तो वह किसी ना किसी बहाने उस से भेंट करते रहते हैं पर कभी प्रेम प्रकट नहीं करते ।जबकि एक बार गुलवसिया उनके बंगले पर भी शहर में रात 8:00 बजे से 11:00 बजे तक अकेले में अपना दुख बताने आई थी और 3 घंटे उनके साथ रही थी। पति द्वारा छोड़ देने, भाई-भाभी द्वारा बंटवारा करके अलग कर देने और अविनाश की प्रेम पात्र होने की बदनामी झेल चुकी गुलवसिया चुप रहती है ,कभी ना अविनाश से कोई बात कहती और ना प्रकट में किसी के साथ जाकर किसी तरह की बात करती है । कथा के अंत में वह अपना दुख बताने अविनाश के पास शहर जा रही होती है कि उसके साथ दुर्घटना घट जाती है ।

उपन्यास का आकार बड़ा है लेकिन इसमें गिने-चुने पात्र हैं जो सभी सशक्त और जीवन्त हैं । अविनाश ,गुलवसिया , मुंशी चंद्रभान शर्मा , मनबेसरी इसके प्रमुख पात्र हैं ।मनबेसरी के अलावा बाकी तीनों लोग हर अध्याय में उपस्थित रहे हैं। अन्य पात्रों में गुल वसिया का भाई ,भाभी, मां मनुबेसरी की भाभी व वह नर्स जो अविनाश के एक्सीडेंट हो जाते समय उनकी अस्पताल में देखभाल करती है।

यह उपन्यास बड़े सशक्त चरित्रो द्वारा तैयार किया गया है । अविनाश मुंबई के रहने वाले हैं और एक गांव में खदान के काम में लगभग दिनभर व्यस्त रहते हैं, पुराना गड्ढा भर जाने पर नया गड्ढा खोजने की जिम्मेदारी ,नई जगह लेबर ले जाने की जवाबदारी उन्हीं की है ,वह अपने ड्यूटी में पूरे सशक्त रहते हैं । वहीं चरित्र के मामले में भी बेहद शक्तिशाली चरित्र हैं ,ना तो वे गुल वसिया पर अपना प्रेम प्रकट करते और ना अकेले में मिल जाने पर उसे छूते भी हैं ।गुल वसिया भी ऐसी सशक्त पात्र है, उसका चरित्र बहुत अच्छी तरीके से, सशक्त ढंग से चित्रित किया गया है , वह भी अविनाश की उंगली तक नहीं छूती, हमेशा उन्हें प्रणाम करती है। भले ही वह जानती है कि अविनाश जी उसे प्रेम करते हैं ।पति द्वारा पृथक कर देने, पृथक्करण होने के बाद वह दूसरा विवाह करने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन वह दूसरा विवाह नहीं करती है ।मुंशी चंद्रभान एक बुजुर्ग व्यक्ति हैं ,उनका चरित्र उम्र के अनुसार एकदम सही है वे छोटे मजदूर की लड़कियों को बेटी कह कर बोलते हैं और मजदूर पुरुषों को भैया और बेटा कह कर बात करते हैं ।वे न केवल अपने मजदूरों पर नियंत्रण रखते हैं बल्कि अपनी कंपनी की तरफ से भी एक सशक्त कर्मचारी के रूप में सामने आते हैं ।

इस उपन्यास का एक बड़ा सौंदर्य इसमें लोक संस्कृति का चित्रण है , उपन्यास में नागपंचमी, खजलइया यानी भुजरिया, हरतालिका तीजा के रात जागरण का विवरण, तीजा की पूजन की प्रक्रिया, महिलाओं को व्रत रखने के नियम ,गीत, नवरात्रि में मैहर यात्रा महाअष्टमी का पूजन ऋतु का वर्णन सर्दी आदि मौसम का वर्णन बड़े विस्तार से किया गया है -

खजलइयों (भुजरिया) का त्यौहार जो वर्ष में एक बार आता है। दिन ढलते ही गाँव में चारों ओर धूमधाम मच गई। यह त्यौहार जो ऊंचनीच की भावना को मिटाकर जात-पात के भेदभाव को दूर कर एक धर्मनिरपेक्षता की भावना भर देता है। भारत में यह एक गौरवमयी त्यौहार व विशिष्ट दिन माना जाता है। आज के दिन तो शत्रु भी द्वेषता की भावना भुलाकर गले मिल लेते हैं। आज सभी धर्म के लोग एक दूसरे के गले मिलते हैं।

संध्या का समय।

गाँव के तालाब पर काफी भीड़ थी। जमा भीड़ में बालक बूढ़े, जवान, औरत-मर्द सभी थे। छौला टिसू) के पत्तों से बने बड़े-बड़े दोने में उगाई खजलईयाँ (गेहूँ के पीले पौधे) तालाब के किनारे अलग-अलग झुण्डों में बैठी औरतें उखाड़ रही थीं।थोड़ी देर बाद गाँव के बड़े पुजारी ने, तालाब के घाट पर भगवान की मूर्ति पर, धुली हुई खजलईयाँ चढ़ा कर पूजा की। उसके पश्चात् सभी लोग गाँव की ओर बढ़ चले ।(69)

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तीजा का त्यौहार।

आज का दिन स्त्रियों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं कठिनतम साधना का व्रत माना जाता है। इस दिन स्त्रियाँ अपने पति के प्रेम एवं चिरायु-जीवन की कामना के सम्मान में चौबीस घंटे का व्रत रखती हैं। आज निराहार रहकर वे जल एवं मुखोद्गार-लसिका स्राव (यूंक) तक को उदर में नहीं जाने देती। सारी रात वे भजन-कीर्तन, मंगल गीत एवं सत्संग में ही बिताती हैं। एक पक्ष पूर्व से की जा रही, तीजा की तैयारी का आज समापन होना था।(86)

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बघेलखण्ड के आदिवादियो के घर की सजावट देखिए--

...गेरु के लाल रंग पर सफेद छुही मिट्टी के द्वारा माड़ा गया (बनाया) 'चौक', घर के बाहरी द्वार के सामने आंगन में रेखांकित वह चित्रकला, जो गृहणियों की स्वयं सिद्ध हस्तकला का उत्कृष्ट नमूना होता है। हर घर में भिन्नता के साथ रंग रूप में समता लिए हुये वह चौक-गरीबी के परिवेश में पलता-पोषता, घर के बाहर सदैव स्थिर रहता है-गरीब देह के समान .........कच्चे धूलभरे रास्ते के दोनों ओर छोटे-छोटे से मकानों की लम्बी कतारें, जैसे कह रही हों-"हममें कोई भी बड़ा नहीं है, सभी एक समान हैं। एक दूसरे का सहारा लिए हुए, दृढ़ विश्वास के साथ अन्त तक ऐसे ही रहेंगे-गरीबी की तरह।".(83)

पात्रों के मनोद्वंद्व पात्रों को जीवंत चित्रित करते हैं । अपने आप ही आकर्षण, रिलेशन और भविष्य को लेकर अविनाश और गुल वसिया दोनों बहुत द्वंद्व में रहते हैं । उन दोनों के बहुत विस्तृत द्वंद्व व तर्क विचार के साथ लेखक ने प्रकट किए हैं। दोनों पक्ष मेसे हर एक का धनात्मक और नकारात्मक पक्ष आपस में खूब प्रकट कियेहै और इसमें लेखक ने अपनी बुद्धिमानी और मनोवैज्ञानिक अध्ययन का चित्रण किया है ।(123)

उपन्यास में दलित और स्वर्ण की खाई भी खूब खुल कर आई है। यद्यपि कोई झगड़ा नही हो रहा है पर ऊपन्यास में सर्वत्र ही गुलवसिया को यह अहसास बना रहता है कि वह आदिवासी है।

विवाह संस्था से बंध कर सवर्ण जितना कसा हुआ महसुस करता है उतना श्रमशील वर्ग नही करता,उधर उच्च वर्ग भी आजादी से रहता है,मरना मध्यवर्ग का है- "'एक ऐसा नाम जो हर इंसान की जिंदगी में आगे-पीछे एक प्रश्न चिन्ह बनकर सामने आ जाता है। अमीर समाज-जहाँ इंसान अपनी सम्पन्नता से बनाई गई सोने की मोटी बेढ़ियों में असहाय सा, मजबूर होकर उनमें जकड़ा खड़ा रहता है। सोने का वह बंधन आंखों को चकाचौंध करके उसे इतना विवश कर देता है कि वह जीवन के अंत समय तक उस बंधन से उबर नहीं पाता। और गरीबों का समाज-वह भी एक है। जहाँ सोने का कोई बंधन नहीं होता। उनकी आपसी व्यवस्था, पारस्परिक सूझबूझ और आवश्यकता उन्हें कच्चे धागे में लिपेटे रहती है। बाहर से देखने पर कच्चे सूत से बंधा पर अंदर से

बिल्कुल स्वतंत्र एक खुला जीवन, उन्मुक्त पंक्षी की तरह होता है गरीबों का समाज । गुलवसिया के कारण उन्हें याद आ गया-वहकोल समाज । किसने निर्मित किया था यह समाज, उस समाज की वे परम्परायें जिनसे हर व्यक्ति अपने व्यक्तिगत जीवन के लिए स्वतंत्र था। चाहे वह मर्द हो या औरत, दोनों के लिए बराबर अधिकार था। अविनाश बाबू जो सोच रहे थे, वह उन्होंने स्वयं अपनी आंखों से देखा था। एक ऐसा कटु सत्य था जिसे सुशिक्षित, सम्पन्न सवर्ण कहने वाला उनका अपना समाज गले से नीचे कभी नहीं उतार सकता।'

बघेली भाषा इस उपन्यास की सबसे बड़ी ताकत है ।उपन्यास में बघेली में बोले गए सैकड़ों बाग के मुहावरे देवनागरी में लिखे हुए आए हैं और लेखक ने उनमें संभवत ऐसा परिवर्तन किया है कि वे आम हिंदी बोलने वाले को भी समझने वाले को भी समझ में आ जाते हैं ।भाषा के इस अद्भुत आकर्षण के कारण उपन्यास में एक माधुर्य आ गया है। बुंदेलखंड और मालवा के संधि स्थल गुना में जन्मे लेखक डॉ स्वर्ण सिंह रघुवंशी का बघेली पर ऐसा अधिकार देखकर अचरज होता है-

'बड़ा भोल वनतेउ हैव, जयसन कुछु सुनवय न भय होय” हंसते हुए मनविसरी ने एक हल्की सी चिकौटी काट ली जिससे गुलवसिया उछल पड़ी और “अय मोर दीदी, मर गयेन......” कहकर खिलखिलाती मनविसरी के सीने से लिपट कर झूम गई। दोनों एक दूसरे को बांहों में भर कर हंस रही थीं।

जब गुलवसिया को ध्यान आया कि वह मैनेजर साहब के बारे में कुछ कह रही थी तो सहज होकर उसने मनविसरी से कहा- “अच्छा अव चुप करा । अवहिं तैं-मनेजर सा'ब केर बारे मा, मोसे का कहत रहिही"

"तैं काहे का पुछते हैय,... मय कुछु नहीं कहत रही” कहकर मनविसरी ने अपने हाथ झटक कर दूसरी ओर कदम बढा दिये। (47)

यह उपन्यास भले ही उनका पहला और एकमात्र उपन्यास है ,इसके अलावा लेखक ने कहानी भी लिखी हैं , लेकिन अचरज होता है कि इस उपन्यास के बाद लेखक ने अन्य उपन्यास क्यों नहीं लिखे। वैसे यह उपन्यास एक सशक्त उपन्यास है और अपने आप में कंप्लीट है।

पहला उपन्यास होने के कारण जो भाषाई त्रुटिया या टाइपिंग मिस्टेक हैं, उसके लिए लेखक को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। लेखक कथा कहने ,सुनने, पात्र खड़े करने मनोद्वंद्व लाने और क्लाइमैक्स तक जिम्मेदार होते हैं , हां कहानी को दुखांत करने या सुखांत करने में लेखक की अहम भूमिका होती है। संभवत उस समय की फिल्मों और साहित्य का असर रहा कि लेखक ने एक संभावित सुखांत की कहानी को जानबूझकर दुखान्त कर दिया है , इसके लिए पाठक लेखक से हमेशा सवाल करते रहेंगे।