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पूनम शुक्ला- उन्हीं में पलता रहा प्रेम

पूनम शुक्ला के सँग्रह की समीक्षा

पूनम शुक्ला का कविता संग्रह " उन्हीं में पलता रहा प्रेम " आर्य प्रकाशन मंडल नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इस संग्रह में पूनम जी की लगभग 62 कविताएं हैं।
इसके पहले पूनम जी का कविता संग्रह "सूरज के बीज " प्रकाशित हुआ था जो अनुभव प्रकाशन गाजियाबाद से आया था उस संग्रह की भी तमाम अच्छी कविताएं पढ़ने से श्रोता पाठकों में पूनम के प्रति एक जिज्ञासा जागृत हुई थी, वह जिज्ञासा इस संग्रह से भी जागृत होती है ।
इस संग्रह के अवलोकन से प्रथम दृष्टया महसूस होता है कि इसमें शामिल कविताओं में लगभग 75 फ़ीसदी कविताएं स्त्री और उसके इर्द-गिर्द लिखी हुई कविताएं हैं। संग्रह का ब्लर्ब लिखते हुए जैसा कि वरिष्ठ कवि मदन कश्यप ने लिखा है "पूनम शुक्ला की कविताएं एक ओर जहां स्त्री विमर्श के दायरे को मजबूत करती हैं वहीं दूसरी ओर उसे विस्तार भी देती हैं स्त्री के दुख और संघर्ष को ही नहीं उसके अधिकार और ताकत को भी पहचानती हैं और उसे तर्क की ठोस भूमि पर निरूपित करती हैं । एक संवेदनशील स्त्री कविता की प्रचलित अवधारणा से अलग एक संवेदनशील मनुष्य की तरह समय के बीहड़ में प्रवेश करती हैं और समाज की विषमताओं और विसंगतियों को देखने में भी सफल होती हैं, जिन्हें देखने के लिए एक वर्ग दृष्टि चाहिए।"
वे यह भी लिखते हैं कि "पूनम शुक्ला अपने समय के विमर्श से प्रभावित तो हैं लेकिन वे ज्ञान और सूचनाओं का उपयोग उन्हें अपने जीवन अनुभव में शामिल करने के उपरांत ही करती हैं इसलिए वे पाठकों को चौंकाती नहीं हैं बल्कि बेचैन करती हैं!"
संग्रह की कविताएं स्त्री की क्षमता को बहुत सूक्ष्म विवरणों के साथ दर्शाती हैं। ऐसी अनेक कविताएं हैं, जिनमें वे बताती हैं कि पुरुष की अपेक्षा स्त्री ज्यादा क्षमतावान है ।
महत्वपूर्ण बात यह है कि पूनम बहुत छोट-छोटी बातों पर कविता लिखती हैं और उनका स्वर वही स्त्री विमर्श का आता है। पूनम बचपन की स्मृतियों से भी कविता उठाती हैं और इन स्मृतियों से अपनी कविता में ताकत भी लेती हैं। ताकत तो वे प्रकृति से भी लेती हैं, कुदरत से जुड़ी अनेक कविताएं इसमें हैं और कुदरत की प्रवृत्तियों को अपने भीतर डालती स्त्री को वे बार-बार हमारे सामने ताकतवर अंदाज में खड़ा कर देती हैं। नकार दी गई चीजों व रंगों में भी पूनम शुक्ला जीवन खोजती हैं ,यह उनकी एक बड़ी सकारात्मक दृष्टि है ।
उनकी कविता "वे पिघली और बह चली" (13) मैं नदियों को स्त्रियों के रूप में प्रस्तुत करती कविता लिखती है -
कहीं पहाड़ों पत्थरों के बीच
स्त्रियां तो जमी हुई थी हिमखंड सी
उनके देह से फूटता था
उज्जवल प्रकाश
और भीतर धीरे-धीरे
पलता बढ़ता था जीवन
पुरुषों के प्रेम की ऊष्मा से
वे पिघलीं और बह चलीं
उनके पीछे-पीछे
पर जल्दी ही सुनाई पड़ी
उन्हें आवाजें ...
बांधों इन्हें बांधो
आखिर सफल हो ही गई हमारी योजना
**
उन्हें बांध दिया गया है
नदियों सा
उर्वर करने हैं उन्हें
बंजर खेत
**
बांध दिया गया है उन्हें
और कहा गया
इसी बंधन में है तुम्हारी मुक्ति
इस कविता को पढ़ते हुए सुप्रसिद्ध कथाकार मैत्रेयी पुष्पा की वे पंक्तियां याद आती हैं ,जहां वे कहती हैं कि मैंने मंगलसूत्र उतार दिया अपने बिछुए व पायले भी उतार दी । स्त्री को इन सब बंधनों से हीं तो बांध कर रखा है पुरुष ने।

एक अन्य कविता "शरीर धरने का दंड'
(16) देखिए-
हममें भी बहता है
लाल ही रक्त
हममें भी हाड़ माँस ही तो है
आते हैं स्तनधारीजीवो की श्रेणी में ही
बस अंतर इतना ही
हैं कि वे पुरुष थे
और हम स्त्री
पर दंड खूब मिला हमें
इस शरीर को धरने का
शारीरिक संरचना के अनुसार
हम ज्यादा संतुलित थीं और अग्रणी
ऐसा लिखा था
जीव विज्ञान की पुस्तक में
*
यह शरीर धरने का ही दंड ही तो है
कि घर में रखते हुए सब का ख्याल
हम पा जाती हैं लड़कों से अधिक अंक
फिर भी असमय ही
रोक दी जाती है हमारी पढ़ाई
कि कहीं हम सीख ना जाएं गुर
खुद का भी ख्याल रखने का
**
यह शरीर धरने का दंड ही तो है
कि थक कर नहीं बैठती है
एक भी पर चलना ही पड़ता है
उसे निगलते हुए गोलियां
हो कोई पीड़ा या ज्वर
**
मरने के बाद
दोबारा हम बनेंगी स्त्री ही
तुमसे कहाँ समझ पाएगी दुनिया

स्त्रियों जो कभी श्राप में अहिल्या बन जाया करती थीं ,जड़ हो जाया करती थी, भले ही गलती उनकी ना हो ; अब "स्त्रियां पत्थर नहीं बनती "यह घोषणा करती हुई पूनम शुक्ला ने अब अहिल्याये नहीं बनती पत्थर (34) कविता में लिखा है-
देखना तुम ही ना बन जाओ
सड़क नदी के भीतर
सड़क बन कर मुझ में ही समाओगे
मेरे आसपास की जमीन
उर्वर ही बनाओगे
अब अहलयाएँ नहीं बनती पत्थर
पत्थर तो तुम स्वयं हो
पर मेरा स्पर्श पाकर
अभिभूत हो जाओगे

कविता "काश कि" (42) में लिखती है-
यह शरीर कितना जला कितना ठंडा हुआ
थर्मामीटर ने क्षण भर में ही जानकारी दी
रेते लैनेक ने हृदय की गति नापी
वक्षस्थल पर रखते ही स्टेथोस्कोप
निकली ध्वनियां कुछ नियमित कुछ अनियमित

पर यह एक यह दर्द है कि इस को नापने का कोई यंत्र ही नहीं
काश कि एक यंत्र होता इस दर्द को भी नापने का
तो नाप कर दिखा दिया जाता सबको कि देखो
वह स्त्री जो सुबह से ही उठ
लगातार काम पर लगी हुई है
**
उस स्त्री को सचमुच दर्द हो रहा है
उसकी टांगें कांप रही हैं
कंधे दर्द से झुके जा रहे हैं
आंखों के आगे अंधेरा छा रहा है
और वह नाटक नहीं कर रही है
उसे अब सचमुच आराम की जरूरत है।

गुलाबी रंग स्त्रियों से जोड़कर देखा गया है यह कोमलता का रंग है और कोमल भावनाओं का भी ।"गुलाबी रंग" शीर्षक से एक कविता(24) पूनम ने लिखी है ,इसमें वे कहती हैं गुलाबी जानबूझकर बनी रहना चाहती हूं कविता देखिए-
आज फिर लिया है मैंने
एक गुलाबी रंग
जैसे ही कम पड़ने लगता है
गुलाबी रंग
उठा लाती हूं
कभी बाल्टी कभी चादरें कभी कपड़े
*
बढ़ने लगता है अंधेरा
रुंधने लगते हैं पात्रों के गले
खुलने लगते हैं भीतरी दरवाजे
और सुनाई पड़ने लगती हैं
कुंडली मारे भीतर सोए
इच्छाओं के शेषनाग की
फुंफकारने की आवाज
मैं झट से खरीद लाती हूं गुलाबी रंग
और उड़ेल देती हूं भीतर बाहर।

ताजमहल और सम्राट शाहजहां की प्रिया मुमताज़ को वह प्रेम का प्रतीक नहीं मानतीं । उन्होंने बहुत निडर और बेलौस अंदाज में कविता लिखी है -मत कहो इसे प्रेम का प्रतीक(44) वे लिखती हैं -
मुमताज
क्या शाहजहां सचमुच करता था तुम्हें प्रेम
और बनवाया था ताजमहल
ताकि जीवित रहे उनका प्रेम युगों युगों तक
या बस उन्हें अनगिनत संताने चाहिए थी तुमसे
तुम तो तब्दील कर दी गई थी एक यंत्र में
जिसे हर वर्ष जननी थी एक संतान
चौदह संतानों के जनने के बाद
आखिर क्या बचा था तुम्हारी अपनी देह में
क्या कभी पूछा तुमसे शाहजहां ने
कितनी है शरीर में पीड़ा
किस तरह ऐंठती है तुम्हारी नसें
नसों में रक्त दौड़ता भी है
या थम गया है
अपनी संतानों को देते देते
अपनी हड्डियों का अंश
*
मत कहो इसे प्रेम का प्रतीक
यह बस मकबरा है जिस से मरे हुए लोगों की बू आती है।

स्त्री को इस दुनिया में घर के भीतर ही कैद किया गया है ,वह हंसती भी है तो छुपकर और रोती भी है तो छुप कर। कविता का नाम है "छुपकर" (52)
वे हंसती हैं
किवाड़ ओटकर
सांकल लगाकर
पिछवाड़े अहाते में जाकर
क्योंकि सामने हंसना
यानी किसी विवाद में फंसना
आ जाना किसी शक के दायरे में
वे रोती है
पिछले आंगन में
धीमी आवाज में
स्नान के जल सँग
बहातीं हैं खारा जल
क्योंकि सामने रोना
यानि विवाद का बढ़ना
विषाद का और घेरना
एक स्त्री को रोना होता है छुपकर
तो हंसना भी होता है छुप कर।

"कुल सात लोग रहते हैं इस घर में (36) कविता में भी पूनम लिखती हैं कि एक घर में कितने लोग क्यों ना रहते हो अगर स्त्री बीमार है तो सारा घर अस्त-व्यस्त हो जाता है ।
दूध जो सुबह उबलते उबलते गिर पड़ा था
शाम तक अब फटने वाला है
*
कोई रसोई में बस बर्तन खड़खड़ा रहा है कोई बड़बड़ा रहा है कोई लड़खड़ा रहा है
**
धूल की आदर चादर ओढ़े फर्श ऊँघ रही है
गमलों में प्यासे पौधे खोज रहे हैं पानी
*
शायद रसोई में कुछ पका है
कुछ जला है कुछ होटल से आ गया है चेहरे सबके लटके हुए हैं
चारों तरफ उदासी का मंजर है
अब सोने की तैयारी है रात होने को है
घर का मुख्य दरवाजा खुला ही छूट गया है
बीमार है बस एक स्त्री उस घर की
और कुल सात लोग रहते हैं उस घर में

हमारे समाज में लड़के के जन्मदिन की खुशी ऐसी होती है कि मिनटों के भीतर सब जगह खबर भेज दी जाती है, पर बेटी की नहीं ।कविता "खबर"(19) देखिए-
रात के नौ बजे
बहू को ले गए अस्पताल
रात तीन बजे
बेटे का जन्म हुआ
और रात में ही
तीन बजकर पांच मिनट पर
गांव से यहां
आ गया फोन
बेटा हुआ है
दो साल पहले
बेटी हुई थी
बीस दिनों बाद
किसी और के मुंह से
वह खबर सुनी थी...
स्त्री से जुड़ी अन्य कविताएँ हैं में नदी बन गई हूं (20 )नहीं लाऊंगी बोनसाई (26) जब थम जाएगी ऐसी हंसी (28) मैं वह हरा बोर्ड नहीं हूं (30) अब वह फिर से पढ़ेगा (78 ) चार स्त्रियां (56) चरित्रहीन (90 से 93 )/तुम्हारा स्पर्श (102/ 103) कुछ नया हुआ इस बार (104 ) । बाकी विषयों में पूनम के पास समाज के ढेरों विषय है वे कुदरत पर कविता लिखती हैं ,आसपास के बच्चों पर ध्यान देती हैं, बुजुर्गों पर उनकी कविताएं हैं और समाज के सत्य और असत्य पर भी उनकी कविताएं हैं।
यह संग्रह पूरी सावधानी से लिखी गयी कविताओं का संग्रह है।
पूनम अभी पूरे उत्साह से रोज रोज लिख रही हैं, आगे उनसे और अच्छी कविताओं की उम्मीद है जिनमे कि उस संग्रह की थोड़ी सी उन कविताओं की तरह विषय चयन में असावधानी,सन्देश की अस्पष्टता, भाषा की चूक नही होगी जो इसमे रह गई।
अलबत्ता वे संभावनाशील कवयित्री हैं।
राजनारायण बोहरे