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क्षणभर - भाग-२


क्षणभर (भाग-)
४.
इस वर्ष

इस वर्ष
विचार उखड़े
आँधियां चलीं
प्यार की दो-चार बातेन हुयीं,
दो-चार छूट गयीं।
उनसे हुयी मुलाकात
याद आयी,
बीते समय की चिट्ठी
फिर पढ़ ली,
ईश्वर निर्मित चाह
हमारे साथ हो ली,
लिखा गया हर शब्द
मन में उभर आया,
बीता जीवन झरनों सा बन
शीतल बन गया,
सुख की आभा
पूर्णतः इंद्रधनुषीय हो गयी।
प्रकरण युद्ध का
रेगिस्तानी धूप सा
तपाता रहा।
जीवन की अवधि
भूकम्पों में दबती,
आँधियों में उड़ती
दुर्घटनाओं में गिरती,
युद्धों में कटती
बाढ़ में डूबती
झगड़ों में अटकती,
हँसते-खेलते हुए
त्योहार भी मना लेती।
५.
विछोह

सन्ध्या के विहग सी वह
बैठ गयी होगी,
किसी अनजान डाल पर।
जो मुस्कान मेरे लिए सुरक्षित थी
वह किसी और की हो चुकी,
कोमलता उसकी
किसी क्षितिज पर अटक गयी।
उसके हाथ की रोटी
रास्ते भर ताजी रही,
उसका दिया प्रसाद
पोटली में बँधा,
ईश्वरीय आभास देता रहा।
उसकी आँखों की चमक
किसी और को देखती,
मुझे भुला गयी।
मेरा नाम छटक कर
किसी कोने में जा
धूल की तह में आ गया।
वायवी अनुभूतियां
कुछ उसकी,कुछ मेरी,
कुछ समय की अट्टाहस की
गडमड होकर
घर तक पहुंच गयी।
मैं अन्दर ही अन्दर मुरझाता
उसे जपता रहा।
६.
कामना

वर दो जीवन वीणा मुझको
स्वस्थ जीवन के स्वर ईश्वर,
मुझ में तुम भर दो।
अथक प्रयत्न की कर्मभूमि में
मेरा पथ निष्कंटक कर दो,
जीवन की अभिलाषा में
अतुलित आशा मुझ में भर दो।
उड़ूँ विहग सा
दूर क्षितिज तक,
क्षितिजों में मैं मिल जाऊँ,
हिमगिरि की शीतल साँसों से
मैं अपनी साँसें ले आऊँ।
उठे सहज स्वर तेरा मुझमें
अनन्त कथा का सुर लहरे,
दिव्य सुख के संवेदन
जीवन में पल-पल ठरें।
इस आनन्त के बीजों में
एक बीज मैं तेरा हूँ,
इस अनन्त की साँसों में
एक साँस मैं तेरी हूँ।
पवित्र प्यार के भावों से
एक बार तुम सहला दो,
सुकर्म पथ पर रख कर मुझको
दिव्य कर्म सबको दे दो।
७.
गीत यहाँ गाता हूँ

मैं कितने सुख से
गीत यहाँ गाता हूँ,
भारत के आँगन से
साँस नयी लाता हूँ।
थोड़ी सी मिट्टी में
बीज नया बो कर
मन में हरियाली रखता हूँ।
कितने दुख में
गीत यहाँ गाता हूँ,
सुन्दर मन को अन्दर ले जा,
सज-धज कर जीता हूँ।
मृत्यु पर शोकाकुल
पर रण को तत्पर हूँ,
गूढ़ विरोधाभासों को
जी कर, मैं सुख पाता हूँ।
जीवन को लिख कर
मैं सन्तुष्ट सा,
अपनी बात कहता हूँ।
संशय भरी रात में
नक्षत्रों पर दृष्टि लगा,
मन को दौड़ाता हूँ।
रहस्य-रोमांच में छन-छनकर
स्वयं रहस्य बन जाता हूँ,
यहाँ गूढ़ विरोधाभासों को
जी कर , मैं सुख पाता हूँ।
८.
आदमी

आदमी अधिक दिन
रो नहीं सकता,
शोक में डूब नहीं सकता
हार में टूट नहीं सकता,
वह अमरता का विश्वास ले
डट जाता धरती पर।
उसके भीतर की ज्वाला
कितनी बार बुझ
फिर कितनी बार
प्रकाशवान हो,
दिगन्त तक चली जाती है।
आदमी अधिक दिन
बैठ नहीं सकता,
आलस्य में सो नहीं सकता
वह अमरता के विश्वास में
तेज बन जाता।
वह हर जनम को
आधारशिला मान,
हर आधारशिला से
एक कदम आगे जा,
अपने आप को
सुदृढ़ करता।
वह धरती को कभी
कर्मभूमि कहता,
कभी युद्धभूमि मानता
अपनी स्वायत्तता के लिए
नयी साँस की कामना करता।
९.
बुद्ध

वर्चस्व नहीं चाहा
राज्य का,सत्ता का,
समय में स्वयं को रोप
ज्ञान की धारा में
शान्ति के वर्चस्व से
मन को बाँधा।
दिशाओं ने रोका नहीं
प्यार ने टोका नहीं,
मन की क्रियायें
समाहित हो गयीं
भिक्षुक मुद्रा में।
जन-जन तक स्वयं को मोड़
यथार्थ की विषयवस्तु को
ज्ञान में डुबा दिया।
मनुष्य भिक्षुक मुद्रा में
दिशाओं को खोलता
उनके सामने प्रस्तुत था।
शान्ति की भाषा में
एक समर्थ बीज रोप,
अनन्तता में तल्लीन रह
मनुष्य को देखना चाहा।
वर्चस्व नहीं चाहा
राज्य का,सत्ता का,
प्रकट हो गये,
ज्ञान के आकार में
उदारता निकाल
मनुष्य के अन्दर से
छिड़क दिया बन्द दिशाओं की तरफ।
तब खुली थीं दिशायें,
मनुष्य के होठों में
उनकी भाषा मूर्त्त हो
संतृप्त हो गया था इहलोक।
३०.
साधारण जीवन

अपनी बूढ़ी पीठ पर
लादे हुए बोझ
नहीं प्रेरणा का अवशेष।
आतुर नहीं मन
पर चलने की प्यास
अब भी बाकी है,
प्रकाश के लिए नहीं
सत्य के लिए नहीं
आदर्श के लिए नहीं
लक्ष्य भी नहीं
सपना भी नहीं
बस,जीवन की प्रथा,
साँसों की परम्परा में
वह शामिल है
जीवन के लिए खड़ा है।
वह चलता है
प्यार भी करता
ईश्वर को पुकारता,
शिलाओं पर बैठ
प्रतीक्षा भी करता।
उसकी अस्थिर धुरी
उसे घुमाती
अपनी ही चारों ओर
अपनी खुली पीठ पर
लादे जीवन
लक्ष्यहीन हो
बन जाता अनजाने सार्थक
अपने लिए नहीं
किसी और के लिए।
३१.
भवितव्य

एक दिन
अहं टूट जायेगा
बात तय हो जायेगी
प्यार उभर आयेगा
लोभ, राग-द्वेष छूट जायेंगे
आत्मा श्वेत बन
ईश्वर में लीन हो जायेगी,
मन का कूड़ा-कर्कट
हट जायेगा,
रोग-शोक दूर हो
निष्काम भाव उभर आयेगा।
स्वार्थ चुक कर
बात भी मर जायेगी
भाग्य का लिखा
मिट जायेगा,
चाहने वाले इधर बैठ
तालियां बजायेंगे,
ईश्वर मुझे वादियों से उठा
शिखरों पर ला
गुपचुप समझायेगा,
तब अहं टूट जायेगा
बात तय हो जायेगी।
.
हवायें चलीं

हवायें चलीं
कभी पूरब से पश्चिम की ओर
कभी पश्चिम से पूरब की तरफ,
हजारों साल चल कर
हमने एक संस्कृति बनायी
सभ्यता को जनम दिया,
उजाला देखने के लिए
मन्दिर बनाये, शिलायें जोड़ी
पत्थर पर पत्थर रखे
नदियों के तट पर तीर्थ बना
मन की पवित्रता को आगे रखा।
सुख की पूंजी को
दुख की दीवारों पर लगा
अस्तित्व को
आदणीय बना दिया,
हमारी हँसी
हमारी संस्कृति से जुड़
हमें पूर्णता देती,
हमारा रोना
हमारी जड़ों से बँध
आगे ले जाता।
हवायें चली
हम स्थिरता के लिए दौड़े,
कभी पूरब से पश्चिम की ओर
कभी पश्चिम से पूरब की तरफ।
३३.
मन्तव्य

सन्ध्या तक प्यार बना रहे
ईश्वर का मन्तव्य
क्षितिज के पार निकल
मनुष्य की उर्जा को
क्षितिज तक पहुँचाता रहे।
ईश्वर की परच्छाई
त्यौहारों में आ,
मन पर उड़ती
प्यार पर उतर जाय।
सुख की उर्जा से
दुख का विषाद मिट,
मनुष्य का रिश्ता
अनन्त तक निकल जाय।
३४.
कभी दिख जाऊँगा

कभी दिख जाऊँगा
नदी के छोर पर
दोस्ती की राह पर,
फिर मन के गीत पर
ठहरने आऊँगा।
कभी दिख जाऊँगा
प्यार की राह में
विश्वास के साथ में,
तुम लोगों की निगाह में
जगमगाता आऊँगा।
३५.
जागो

भूल जाओ
गुलामी के अवशेषों को,
चेतना ले आओ
जर्जर जड़ में।
सार्थक बन
पताका उठा
राष्ट्र को ढूंढ लाओ।
वर्षों की सड़न
इकट्ठा हुए कूड़े को
दफना दो,
मिट्टी की भीनी गंध को
सूंघ लो,
राष्ट्र की जड़ में घुस
हरी-भरी कर दो शाखाओं को।
देश की मिट्टी की जकड़
कटाव को रोक,
आँसुओं को पोछ
अर्थभरा जीवन फहरा दो।
ईश्वर की आकांक्षा में आ
देश की सीमाओं में जा
डट कर अपनी मिट्टी को पकड़
भूल जाओ
गुलामी के अवशेषों को।
मिटना नहीं
अर्थ खोना नहीं,
ब्रह्मांड की उर्जा से
सुदीर्घ चिन्तन से
लोगों को बाँध
चेतना को जगा
राष्ट्र को ढूंढ लाओ।
३६.
कहीं मिल जाऊँगा

कहीं मिल जाऊँगा
शक के घेरे में
सुख के आहते पर,
दुख के द्वार पर
शहर के रास्तों में
गाँव की पगडण्डियों में
किसी के सपनों में
अपलक आँखों में
किसी के इन्तजार में
बातों के तानों-बानों में
बहकी हवाओं में
विरह के ताप में
चक्रव्यूह के साथ
कुरुक्षेत्र के मैदान में।
कहीं मिल जाऊँगा
गीता के साथ में
उपनिषदों के सार में
धर्मों के प्राण में
चूड़ियों की आवाज में
पायल की झंकार में
घूंघट की आड़ में
मनुष्य के व्यवहार में
फूलों के साथ में
प्यार की शाम में।
कहीं मिल जाऊँगा
चाय के साथ में
रोटी के विचार में
खेतों के खजाने में
प्रकाश की दिशा में।
३७.
स्नेह

बहुत दूर तक
तुम्हारी याद आयेगी,
सुबह का उगता सूरज
क्षितिज से डूबती सन्ध्या
तुम्हारी झिलमिल याद को
आकाश तक ले जायेगी।
बहुत दूर तक
मैं तुम्हें भुला न पाऊँगा
कि कल तक
तुम मेरे लिए अनजान थे
मैं तुम्हारे लिए अनजान था
लेकिन आज अचानक
ऐसा लगता है
कि बहुत दूर तक
तुम्हारी याद आयेगी।
मेरी यात्रा के पड़ाव
तुम भी हो,
प्यार कुछ यहाँ भी बना था
प्यार कुछ यहाँ भी टूटा था
नींद जब खुलेगी तो
जीवन का अन्वेषण शुरु होगा
और बहुत दूर तक
तुम्हारी याद आयेगी।
३८.
ईश्वर का संसार

ईश्वर के घर में
बहुत कुछ होता है
वसंत का खुलना
मन का बहना
धूप का आना
चिड़ियों का चहकना
मनुष्य का चलना
क्षण-क्षण होता है।
उसके घर में
प्यार का होना
युद्धों का तनना
शान्ति का आना
रिश्तों में बँधना
बिछुड़ों का मिलना
पल-पल होता है।
उसके यहाँ
भक्तों का रमना
ज्ञान का पलना
कर्मों का चलना
पर्वों का होना
क्षण-क्षण चलता है।
उसके आँगन में
वृक्षों का होना
ऋतुओं का फलना
दुखों का उमड़ना
खुशियों का चलना
पल-पल मिलता है।
वहाँ दुर्गा की दिव्यता
लक्ष्मी की भव्यता
सरस्वती की सौम्यता
चलती-फिरती है।
३९.
देशवासियो

देशवासियो
उजाला फैलता है
अँधकार सघन होता है,
हमने बनाया था मन
अशिक्षा से बचने का
अँधकार से निकलने का,
क्षितिज के पार से
विश्वास लाकर
लोगों में बाँट
स्वतंत्र हो, सुदृढ़ होने का,
अपने दर्शन से
क्षितिज खोलने का।
हमने गीता की कसम खायी
सच बोलने के लिए,
गंगा का सहारा लिया
पाप हरने के लिए,
पर मन का धुँआ
आकाश तक जा
साँसों में घुस
नसों में बुदबुदाता रहा।
देशवासियो
हम संकल्प लें
लोगों से बँधी डोर को सुदृढ़ कर
अपने दर्शन से
क्षितिज खोलें,
आगे लगी तस्वीर को
साफ कर
अँधकार से निकल लें।
४०.
मुझे चाहिए

मुझे एक सन्ध्या चाहिए
बेसुध लेटी,जीवन से सटी
गुनगुनाती, धुँधली,
प्यार की बातें बतलाती
चिड़ियों की चहक से भरी
मन की महक से अटी।
मुझे एक दिन चाहिए
चलता हुआ, महकता हुआ
जगमगाता, चमकता
यौवन से लिपटा, बचपन से सटा
सपने देखता, संघर्ष करता
ज्योति से ओतप्रोत
जीवन में गड़ा-सना।
मुझे दिन का जन्मदिन चाहिए
मृत्यु होने तक
स्नेह का उजाला चाहिए।
४१.
यही जिन्दगी है

यही जिन्दगी है
नये का स्वागत
पुराने की विदाई,
दिन का निकलना
रात का होना
यही जिन्दगी है।
तालाब के तल में
मछलियों का तैरना,
पहाड़ के शिखर पर
साहस से चढ़ना,
समुद्र के हृदय पर
लहरों को खेना,
नदी की कल-कल से
संगीत को लेना,
जंगल के जीवन से
शान्ति को पाना,
यही जिन्दगी है।
मन की पर्तों में
ईश्वर को पाना,
मन्दिर व मस्जिद से
उसे ले आना,
पतझड़ के ऊपर
वसन्त का आना,
आँसू के अन्दर
हँसी का रहना
यही जिन्दगी है।
.
आदमी थकता नहीं

आदमी थकता नहीं
उसकी उड़ानों की संख्या
दिनप्रतिदिन बढ़ती
ऊँचाइयों को छूती
समुद्र को नापती
लय को ढूंढती
दयनीयता की कोख को छोड़
सीमाओं के पार जा
देश-परदेश का आकलन कर
ईश्वर की पृष्ठभूमि में
मोक्ष की भूमिका बाँध,
अपने-परायों के लिए
मुस्कान जोड़ती।
इसकी कठोरता
उसे ही झुठलाती,
इसकी नृशंसता
इसे ही मारती,
वह व्यय होता हुआ
अव्यय कहलाता।
आदमी लौटता नहीं
पूर्व बिन्दु पर,
पहली सुबह की
पहली साँस पर,
अंतरंगता की
पहली सांझ पर,
जाने अनजाने उसकी गति
खुली रह जाती।
४३.
वह लड़की

हरी भरी घाटी में
उसका घर है,
वह रामायण की सीता नहीं
महाभारत की द्रौपदी नहीं
वह सीधी-सादी
साधारण दिनचर्या की पहेली है।
सूरज निकल आया तो
वह खड़ी हो गयी,
सूरज ढल गया तो
घर में दुबक गयी।
निष्ठुर रात को उलटती-पलटती
अपना खाका खींचती,
मन उसकी दिनचर्या में
एक चक्रव्यूह बनाता,
चक्रव्यूह के अन्दर की
वह सेनानी है,
वह अभिमन्यु भी हो सकती है,
अर्जुन भी बन सकती है।
भविष्य में
पास के घर की बातें
उसके घर आयेंगी,
सूरज की गर्मी
उसे तपायेगी,
वह धीरे-धीरे क्षितिज तक पहुँच जायेगी।
४४.
वह बूढ़ी

वह बूढ़ी
बीड़ी सुलगाती,
धुँए को चेहरे के आगे उड़ाती
आदमी सा सोचती।
मैंने देखा उसे
बाहर से बेफिक्र,
लेकिन वह अन्दर ही अन्दर
शायद सुलग रही थी।
समय का आतंक
उसे घेरे था,
जीवन की पीड़ा
गम्भीर किये थी।
वह सड़क के किनारे
जीवन की उहापोह में,
बेचती थी
तरह-तरह की सब्जियां,
तरह-तरह के फल,
सब कुछ तराजू से तोल
ग्राहक की थैली में रखती।
धीर मुद्रा में
बीड़ी फूँकती
उम्र की थकान पीती थी।
जीवन का दर्शन
वहाँ भी सुलगता,
मन का मैल वहाँ भी धुलता
वह बीड़ी से जीवन सुलगाती।
४५.
उसने कहा

उसने कहा
कैसे हो?
मैं बोला अच्छा हूँ
सुबह उठ लेता हूँ,
खाना खा लेता हूँ
शाम को टहल लेता हूँ।
धर्म का सार जान
प्यार कर लेता हूँ,
हर सुअवसर पर
बधाई भेजता हूँ।
देश-विदेश जा
फिर घर की आत्मीयता में
लौट आता हूँ,
मन की पिपासा को
उससे जोड़,
अच्छा होने का यत्न करता हूँ।
४६.
घर से चिट्ठी आयी

घर से चिट्ठी आयी
कि पिछले वर्ष से इस वर्ष
ज्यादा रही मँहगाई।
खाँसी बढ़ती जा रही
साँसें दुखती हैं,
मन पर खर्च का बोझ
हमेशा रहता है।
नाते-रिश्ते निभते नहीं,
घर की बल्ली टूट चुकी,
छत का चूना जारी है,
भूकम्प दीवार में
गहरी दरार बना
मन में ठहरा है।
खम्भा जो लगाया
उसमें सीमेंट लगानी शेष है,
पर यह सब चलता है,
अपने स्वास्थ्य का
ध्यान रखना,
खुली हवा में घूम
मन हल्का कर लेना।
गर्मी की छुट्टियों में
जरूर घर आना,
गत वर्ष पड़ी खाइयों को
इस वर्ष भर जाना।
४७.
चाय की एक घूँट

चाय की एक घूंट
मुझे तरोताजा कर गयी,
प्यार भरी थपथपाहट
मुझे शान्ति दे गयी,
समय का एक क्षण
मुझे क्षितिज दे गया,
आँसू की एक बूँद
उदारता दे गयी,
प्यार भरी अपलक आँखें
स्वप्न दे गयीं ।
स्नेह से जुड़ा एक क्षण
रुला गया
प्यार से जुड़ा एक क्षण
हँसा गया।
चिड़िया की एक उड़ान
दूर उड़ा ले गयी,
तुम्हारे चेहरे की मुस्कान
मुझे तरोताजा कर गयी।
फिर चाय की एक घूंट
सहज बना गयी।
४८.
मन करता है

मन करता है
क्षणभर तुमसे बात करूँ,
बैठ कर एक प्याला चाय पी
मन को विश्राम दूँ,
और क्षितिज पर बिखरी लालिमा पर,
बिखर जाऊँ।
मन करता है
उजास भरे विस्तृत आकाश पर
शस्य श्यामला धरती पर
क्षणभर के लिए
बिखर जाऊँ।
फिर निकल जाऊँ उस राह पर
जो तय नहीं अब तक।
मन करता है
पी लूँ अँजलि भर अबोध मुस्कान को।
पलभर के लिए
आत्मा का कहा मान लूँ,
इस चहल-पहल के बीच
ईश्वर को याद कर लूँ।
४९.

वह निखरती है

वह रोती है
सिसकती है,
मानवीय सुन्दरता के बीच
उफनती हुयी,
ढुलकती है।
कथा के जड़ से शिखर तक
शाखा-प्रशाखा में विभक्त हो,
सुख-दुख की गंगा-यमुना में नहा
पूजास्थल पर नतमस्तक,
याचना करती।
वह जब चली
रात खुली न थी,
जब वह रूकी
दिन डूब चुका था,
मेहनत का इतिहास
उसके पीछे-पीछे चला था।
अपने प्रशस्ति पथ को
पढ़ते-पढ़ते,
वह रोती है,हँसती है
रिश्तों का विवरण देते,
कर्मों की व्याख्या करते
निखरती है।
५०.
हम मिश्रण हैं

हम मिश्रण हैं
सच और झूठ के
ज्ञान और अज्ञान के,
स्नेह और घृणा के
जीते-जागते उदाहरण हैं।
हमारा इतिहास
पाप-पुण्य तले,
केंचुए की तरह रेंगता हुआ,
हमारी मिट्टी को सूँघता
धरती पर खड़ा है।
हमने देखा
अपने मान को,
सूरज की तरह उगते हुए
लालिमा लिए फैलते हुए,
फिर हम आपस में लड़े
युद्धों के इतिहास में
बँट गये,
किसी और को सत्ता दे
नींद तले आ गये।
किसी मोड़ पर
अपनी भाषा को तिलांजलि दे
खुद को ठुकरा,
तन-मन-धन से
परास्त हो गये।
हमने लड़ना नहीं छोड़ा,
हमने मान लिया
प्रजातंत्र में संस्कृति नहीं,
जनता की भाषा नहीं,
विडंबनाओं से भरे
हम मिश्रण हैं,
सच और झूठ के।
अपने घर में देवता बने
उजाले से बेखबर हैं।
५१.
क्षण आते हैं

क्षण आते हैं
हल्के से थपथपा जाते
पूस की रात,माघ का महिना
सबके पास होते हैं
नींद का आश्रय
मन का जागना
सबके साथ चलते हैं।
क्षण आते हैं
आँगन के वृक्ष को
ऊँचा कर
धरती पर हरी घास उगाते हैं
दुकान से लिए उधार से
ज्ञान के आगार से
चूल्हा जला
जीवन को आगे चलाते हैं।
वे सीढ़ियों से उतर कर
पैरों से चल कर
दोस्ती में, दुश्मनी में
हर आशा, हर निराशा में
थपथपा जाते हैं।
.
तुम्हारे लिए

बहुत दूर चला था मैं
तुम्हारे लिए, अपने लिए,
सुबह होते-होते शाम हो गयी,
जब पता हमारा धीरे-धीरे खो गया।
केवल समय के पटल पर
लिखा रह गया मन।
इस बीच समुद्र भी उछला,
आसमान भी उठा,
धरती भी हरी-भरी हुयी,
ममता बँट गयी
रिश्तों के चेहरों पर।
मैं स्वयं को
कभी तुम से, कभी रिश्तों से,
कभी ईश्वर से जोड़ता रहा।
ईश्वर ने जो रचा
मेरे ममत्व के घेरे में आया,
कोई आँसू बन कर
ढल गया,
कोई प्यार बन कर
जीवन में रह गया।
बहुत दूर तक चला था मैं,
तुम्हारे लिए, अपने लिए।
५३.
विस्तृत क्षितिज

विस्तृत क्षितिज
तुम्हारा होगा,
यौवन जिसमें आता होगा
शैशव जिसमें होता होगा,
सूरज-चन्दा उगते होंगे
नक्षत्र लाखों चमकते होंगे।
विस्तृत क्षितिज
तुम्हारा होगा,
ईश्वर जिसमें बनते होंगे
स्नेह जिसमें खिलता होगा,
आँखों का जो होगा प्यारा
महिमा में जो होगा न्यारा,
बहता होगा गंगा जैसा
बनता होगा हिमगिरी जैसा
अथाह होगी उसकी माया।
विस्तृत क्षितिज
तुम्हारा होगा,
ज्योति जिसमें आती होगी
सत्य जिस पर रहता होगा,
स्नेह जिसके ऊपर होगा
ममता जिसके भीतर होगी,
विलक्षण जिसकी आँखें होंगी
विस्तृत जिसका मानस होगा।
विस्तृत क्षितिज
तुम्हारा होगा,
जहाँ जीवन की अभिलाषा होगी
जहाँ सत्य की परिभाषा होगी,
जहाँ शुद्धता अपरिमित होगी
जहाँ स्वप्न की परिणति होगी,
जिसमें शान्ति उगती होगी
जिस पर भाग्य बनता होगा।
विहग जहाँ मँडराता होगा
संशय जहाँ मिटता होगा,
वसंत जहाँ आता होगा
मोक्ष जहाँ मिलता होगा,
ईश्वर जहाँ रहता होगा
ऐसा क्षितिज हमारा होगा।
५४.
प्यार के क्षण

प्यार के क्षण,थोड़े ही होते हैं
कुछ शाम में ढले होते हैं
कुछ सुबह में चले होते हैं,
कुछ बाँहों में बँधे होते हैं
कुछ हाथों से जुड़े होते हैं,
कुछ आँखों में बैठे होते हैं
कुछ बातचीत में मिले होते हैं।
प्यार के क्षण थोड़े ही होते हैं
कुछ शब्दों में लिपटे होते हैं
कुछ संस्कृति पर जड़े होते हैं,
कुछ जाड़ों में बीते होते हैं
कुछ गर्मी में बैठे होते हैं।
कुछ आसमान में लिखे होते हैं
कुछ बचपन में रूके होते हैं
कुछ यौवन में खिले होते हैं,
कुछ बूढ़ी साँसों में डूबे होते हैं
प्यार के क्षण,थोड़े ही होते हैं।
५५.

इस वर्ष

इस वर्ष मैंने
थोड़ा सा प्यार बाँटा,
सुख की बिक्री की,
थोड़ा सा दुख खरीदा,
बेफिक्र होकर।
अपनों के बीच उलझ,
अपनी सलाहों से
उनकी स्वायत्तता को चुराया।
घर से बाहर भी
परायों के साथ,
अपनत्व का लेन-देन किया।
इस वर्ष मैंने
थोड़ा सा प्यार किया,
कुछ सृष्टि के साथ,
कुछ धरती के साथ,
कुछ आकाश के साथ,
उसे बेचा नहीं
प्रदर्शित किया नहीं,
मनुष्य के परिप्रेक्ष्य में
उसे देखा,
लेन-देन में उसे परखा।
उसका उजाला वर्ष भर
मन के भीतर आता रहा,
इस तरह मेरी साँसें चलती रहीं।
५६.
दूर चिड़िया उड़ती है

दूर चिड़िया उड़ती है
मन की चंचलता
कभी घर को
कभी प्यार को
कभी चिड़िया को देखती है।
विचार अस्त-व्यस्त
सुबह से शाम तक,
कभी पहाड़ पर, कभी समुद्र में
कभी घर की चारदीवारी में
बन्द हो जाते हैं।
विचार जो मिले
विचार जो खुले
जीवन दीर्घा में खड़़े
पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहे।
दिन के उजाले में
रात के घुप अँधरे में
विचारों की मौत
कितनी बार हुयी?
आदमी उड़ता है
विचारों को धोता है,
वह जो मन्दिर में पूजा गया
घर आते आते भुला दिया गया,
गीता का दर्शन
आज भी मनुष्य को बाँधता
घर-घर में जागता है।
दूर चिड़िया उड़ती है
मन की दूरियां, मन की नजदीकियां,
कभी ममता में
कभी दुविधा में
सोती-जागती
सुबह से शाम तक
आदमी की घेराबन्दी करती हैं।
यथास्थिति का टूटना
मन को भाता है,
ऊँचाई से गिरना
जमीन पर लाता है।
जो जनमा है
उसे मौत को देखना है,
पर मनुष्य का दायित्व
ईश्वर के दायित्व से
कभी कम नहीं होता।
५७.
खिड़की से देखता हूँ

खिड़की से देखता हूँ
सुबह हुयी कि नहीं
सन्ध्या हुयी कि नहीं
मनुष्य का सपना खुला कि नहीं
संघर्षों की प्रक्रिया बनी कि नहीं
सुषमा आयी कि नहीं
विजय पताका फहरी कि नहीं।
खिड़की से दिखने वाली हर बात
जैसे माँ की ममता
सच का बनना,
रिश्तों का खुलना
आँधी में धरती का हिलना
एक पीढ़ी का दूसरी पीढ़ी में बदलना,
युद्धों का ठनना,क्रान्ति का बनना
प्यार का होना,
मेरे भीतर जमा हो गये।
खिड़की से आने वाली हर हवा
उससे आने वाला हर संदेश
उससे आने वाली हर आकांक्षा,
मेरी नींद को खोल
मुझे क्षितिज पार ले जा
अनन्त को दिखाते हैं।
५८.
मैं चुप था

मन में कितनी बातें थीं
पर मैं चुप था,
सपनों का अम्बार लगा था
पर मैं चुप था।
मन से निकली बातें
शरमाती थी,
ईश्वर की परिक्रमा में
उत्साह घना था,
जीवन की कितनी बातें थीं
पर मैं चुप था।
शिखरों पर चढ़ने को
जीवन बढ़ता था,
क्षितिजों को छूने को
समय उठता था,
टूटी हुई आशाओं का कोहरा
मन में उठता था।
मन में होता था मन्थन
कितने भावों का मिलन चुप था,
वसन्त की आँखें चुप थीं।
बर्फीली हवा बहती थी,
बाहर की सन्ध्या अन्दर थी,
मन कुछ कहता था,
जीवन चलता था,
पल-पल आँचल उड़ता था,
बाहर की सुबह अन्दर थी,
मन में कितनी बातें थीं,
पर मैं चुप था।
५९.
कुछ नहीं बदला

कुछ नहीं बदला
पहाड़ की धूप, सुबह का सूरज,
सन्ध्या की हवा
समुन्दर की लहर,
नदी की कल-कल
जंगल की हलचल।
गरीब का घर
मजदूर की मजदूरी,
प्यार की निशानी
बहिन की राखी,
बेटी का प्यार, बेटे का लाड़
माँ का हाथ,पिता का आशीर्वाद,
पड़ोस का लेन-देन
मन्दिर का संदेश,
वसन्त की आवाज
समय की राह।
कुछ नहीं बदला
राष्ट्र की बोली,
राज की भाषा,
शोषण का तरीका
तथ्यहीन तर्क,
कालू की दुकान
लालू का मकान,
सुरेश का स्कूल
दीनू का दफ्तर,
डीसूजा की अंग्रेजी
हृदयेश की हिन्दी,
भारत का संघर्ष
इंडिया का निष्कर्ष,
अभी तक कुछ नहीं बदला।
६०.
सोचता हूँ

सोचता हूँ
बहुत आगे निकल जाऊँ,
संशय की रात से
स्वार्थों की आग से,
लड़ाई-झगड़ों में बनी
मनुष्य की दिनचर्या से,
संन्यास ले लूँ।
मन बार-बार तड़पता है
आग सा धधकता है,
अपनी पहिचान के लिए
सुबह से शाम तक
कर्मशील रहता।
सोचता हूँ
प्यार की पहाड़ियों में
कर्म की चोटियों में,
तुम्हें साथ ले लूँ।
कोहरे के मौसम में
अपने जहाज को उड़ा,
साफ आसमान पा लूँ।
तुम्हारी प्यारी हँसी को
अपनी हँसी में घोल ,
जन्म-मृत्यु की दौड़ से
आगे निकल जाऊँ।
६१.
मैं कल्पना हूँ

मैं कल्पना हूँ
स्नेह की,शक्ति की,सौन्दर्य की,
अनजान अँधेरों से निकलती
ज्योति हूँ।
सौन्दर्य का महाकाव्य मुझ में
व्यथा की पंक्ति उसमें,
हर ओर फैली है व्यथा
हर ओर उदासी दिख रही,
व्यापक हँसी रहती नहीं
पर सिसकता सौन्दर्य यहाँ है।
सुकुमार प्रेमी कोई नहीं
व्यग्र विरही मिलता नहीं,
स्नेह बहता रहता नहीं
स्थिर स्नेह के आगार नहीं हैं।
.
फिर वही यातना

फिर वही यातना
दो,दस,सौ साल बाद
फिर वही नर संहार,
मानव का स्थायी दुख
सैकड़ों वर्षों से
एक रूप में,एक वेष में
जीवन में आता,
जिन्दगी मौत पर झूलती
मनुष्य ही मनुष्य के लिए
यातना के शिविर लगाता।
दो,दस,सौ साल बाद
फिर नर पाशविकता
मानवता को नोचती,
नृशंस हत्या करती
मानवता अपनी आँखों में
आँसू लिये
इधर-उधर भागती,
अपने रिश्तों से जुड़ती-कटती
वह फिर दो,दस,सौ साल बाद
अपने घावों को देखती,
लड़खड़ाती,डगमगाती।
हर बार नये घाव
हर बार उदासी में
डूबते चेहरे,
हर बार पीड़ा का अव्यक्त आकाश
और उसमें डूबते जीवन नक्षत्र।
दो,दस,सौ साल बाद
कोई हत्यारा,कोई अततायी,कोई आतंकी
जीवन को मौत के पास लाता,
तब मौत मँडराती,उफनती
स्नेह को डसती,
फिर हत्यारे के पास सुरक्षित लौट जाती।
और बार-बार डसती
मुझे, तुम्हें या किसी और को,
जब गहरी नींद में होते हैं,
मैं,तुम या कोई और।
लेकिन फिर
दो,दस,सौ साल बाद
मानवता खड़ी हो जाती,
आँसू पोछती,
मुझे, तुम्हें या किसी और को
अपनी बाँहों में बुला लेती।
६३.
दुविधा

क्या मैं पहिचान सकूँगा
तेरा जीवन तट,
अपना यौवन, मन सावन,
तेरी बिखरी लट
स्नेहिल आँखें इकटक।
कैसे पहिचानूँ,कैसे जानूँ,
तेरी आहट,
लहराता आँचल, जीवन की करवट।
हृदय के स्वर स्पन्दन
बीता जीवन मिलन,
कैसे दोहराऊँ,कैसे पाऊँ
अपने स्नेहिल शब्द,
अपनी आहट,अपना लय।
६४.
जीवन:
निर्दोष न रहा जीवन प्रांगण विषम
छलका औत्सुक्य विविध रूप रख,
बढ़ा विषम प्रसार आभा उज्जवल थी अस्त,
विश्व अनुराग बढ़ा दानव-मानव का एक साथ,
बँटी धरा तोड़ प्रीति शाखा हरित कोमल कोपल,
जटिल अधम मानस पर मानव विजय ।
काट नैसर्गिक प्रभा तिमिर भाव आया कैसे,
हुई शक्ति विषादपूर्ण जीवन स्नेह शैली टूटी,
दिव्य ज्योति की अपराजेय शक्ति हुई क्षण में लय ।
लांछित पद- गौरव मही महान क्षुब्ध,
मानव स्नेह भाव कर त्राण बन धीर
फलीभूत कर्दम विनाश होगा फिर ।
निर्दोष न लब्ध ज्ञान प्रखर
निर्दोष न अजेय शक्ति प्रबल प्रखर,
कुंठित हुई ज्योति अंधकार में इधर,
चक्रव्यूह रच लुंठित सत्य हुआ प्राय:
फैला निद्रा तमस जाल जीवनानुभूति हुई निराश,
सलिल स्रोत बन्द, प्राणों में अबुझ प्यास,
पददलित प्रकाश में स्वेद स्राव,
जीवन रण में पूर्ण विजय न देते सर्वेश ।
केवल छल केवल छल कहता दानव ,
मानव संकल्प ज्वार धरती पर उतरा,
टूटा निद्रा तमस जाल, दिखा उज्जवल प्रकाश तब,
निर्दोष प्रकट हुए सर्वेश प्रहरी रख भेष,
स्नेह स्वप्न स्तब्ध देखा मानव ने धीरे,
गूँजा हृदय में स्वर एक स्नेहशील उज्जवल अगाध ।
दोहराया सत्य समर्थन, निर्दोष अनुभूति यह,
मिला जीने का अनुराग प्रबल,
हुआ अपराजेय शक्ति संवर्धन कठिन,
आकांक्षा में स्तब्ध अँधेरा, स्नेह स्वप्न क्षय,
पराजित शक्ति मानव की मूक हुई,
निर्दोष शक्ति से होगी विजय स्नेहशील ।
झुलसी जीवन विभा दोषों से गर्हित जीवन
सुकुमार श्री हुई कठोर पाषाण दुष्ट,
गिरा गिरी हृदय में ठोकर पाकर
समर शेष रहा सतत, अविजित योद्धा भी ।
हुई जीवन वेदना अमर मरणोपरान्त
निष्ठुर प्रकृति नहीं अश्रुपूर्ण यहाँ ।
शैथिल्य करूणा विधान क्रुद्ध दानव बल
अमोघ शक्ति शिथिल जड़भाव ग्रस्त
उलट गयी महिमा अंधकूप में तज चेतना सकल
निर्दोष थी अस्त छवि मानव की
तमस प्रकोप ग्रस्त जीवन भटका जर्जर विहीन
चेतना उत्थान को विवश,सृष्टि पथ तो है अविचल
चेतना अवसान होगा दोष मुक्त फिर एक बार
अंधकार सम्मानित गिरा गिरी हृदय में
विचलित शान्ति डगमगाया क्षितिज सूर्य
मस्तक से हटी आभा, हो चेतना शून्य
अर्जित महिमा खण्डित स्नेह कुंठित
पल्लव हुआ क्षीण जर्जर , पाने पतझड़
कलुषित भाव का तिमिर मेघ घुमड़ा प्राय: ।
पृथ्वी में दलित विधान रचती कुटिल मति
होगा उद्धार कैसे जड़ मति का आज
सम्मानित अंधकार न शाश्वत सृष्टि लक्ष्य
विशद ज्ञान न आया काम हुई तिमिरावृत्ति
अर्जित विनाश शक्ति श्रृंखला बनी ध्वंस पर्याय
कठिन विराम जीवन का, जिजीविषा हुई विलीन ।
निर्दोष भाव में नहीं अस्त जीवन ज्ञान
सहे जर्जर देह ने दोष प्राय:
कान्ति मुग्ध हो स्नेह ओर दौड़ता ज्ञान
हुआ सहज स्वरूप दूर, अशान्त भाव आया
फिर सृष्टि दृष्टि बनी कैसे
अनेक मौन निमंत्रण शाश्वत सत्य के आये
निर्दोष स्वरूप पहिचाना जिजीविषा थी उज्जवल ।
विप्लव जीवन विरुद्ध सतत जीवित
महिमा सर्वत्र नयन दो खोल रही
अन्तहीन पथ पर ज्योति-तिमिर सन्नाटा आया ।
जागी नवीन आशा फिर एक बार
महाकाश में गति अपार मति डोली
माथे का तिमिर कलंक हटा दृढ़ बनी समता
सशक्त अवदान जागे, निर्दोष भाव पाया
विधि की पवित्र कल्पना विषण्णानन पर आयी ।
निर्दोष विश्व कल्पना, सौष्ठव जागा
उछलता भाव समुद्र नाविक दूर अस्त-व्यस्त
बोली अपराजेय सत्ता , शाश्वत भाषा चिरनवीन
अमरता देखी नहीं हुआ आदान-प्रदान उसका
धीरे-धीरे अवसान उदय देखा
अनिर्वचनीय क्रम व्याप्त उथल-पुथल सतत ।
अमोघ शक्ति सूर्य बना साध्य लेने विजय
निर्दोष वह महिमा मार्ग शान्ति शिखर
अपार शक्ति चिर नवीन रह गयी बार-बार ।
निर्दोष जीवन हमेशा न रह सका
त्रुटि थी कहीं ह्रदय कोमल रुठा रहा
है दलित जीवन के किनारे चुपचाप वैभव
आँसुओँ में विश्व की पहिचान आयी ।
खो उज्जवल भाव, कलुषित विचार आया
मही हिली पददलित स्नेह द्रवित
अज्ञात अस्तित्व का युद्ध कोई लड़ रहा ।
असफल योजना सृष्टि है नहीं
अमरता की सुरक्षा अज्ञात होती
तब निर्दोष अस्तित्व कोमल कोई ढूंढ़ता ।
वृद्ध स्नेह सोया यहाँ वनवास लेकर
है स्वप्न पीड़ित स्वस्थ यौवन में उमंगें
निर्दोष जीवन से हमें क्या न मिल सका ।
पल्लवनी शक्ति जीवित, उदार अवदान लिए
सत्य हुआ प्रकट स्वर्गिक शान्ति लाने धीरे,
निर्दोष शक्ति कोपल खुली बनी मही महान ।
विश्व अधर पर रख कमनीय स्वर शीतल
पराजित हुआ अहं, निर्दोष सुषमा लौटी तब
मृत्यु पराजित जीवन पर है स्नेह भार कितना
सुषमा अधर पर कोमल हैं सब स्वर
आस्था उतर रही निःसंशय हृदय पर
स्नेह अधर माँ की ममता के जीवित हैं कब तक ।
पल्लवनी शक्ति हुई अस्त जीवित जन रोया तब
अंधकार में डूबी थी शक्ति, दोष पराजित जीवन था
सृष्टि के निर्मल हृदय पर टिका मस्तक फिर ।
सृष्टि शिष्ट है निर्लिप्त ध्वनि उसकी
गर्द किया मानव ने सब स्वयं अथाह
महिमा मस्तक ऊँचा रहा, हृदय हर्षित तब ।
अपराजेय भक्ति शक्ति आयी धीरे
वन्दना व्यर्थ नहीं वह शक्ति सम्पन्न
पर यात्रा जीवन की हुई न निर्विघ्न पूर्ण
विवश है समय ,गति-सूत्रों को चुनने
उद्विग्न आलोक व्याप्त मही पर अथाह
करूण कल्पना रुष्ट, क्रूर प्रवाह है अपार
अभी हमें हरित विश्वास जीवित करना अथाह ।

** महेश रौतेला