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मेरा साया साथ होगा....

रात का वक्त और गहरा काला अँधेरा,उल्लूओं की डरावनी आवाज़े किसी की भी ज़ान ले ले,ऊपर से घोड़े के टापों की अज़ीब सी ध्वनि,आजकल के जमाने मेंं भी हवेली में दादा-परदादाओं की बग्घी अभी बची है,मोटर भी है लेकिन गाँव के ऊबड़खाबड़ रास्तें में चलने पर उसमें कोई ना कोई ख़राबी आ जाती है और वैसे भी ख़राब होने पर शहर में बड़ी मुश्किल से उसका सामान मिल पाता है क्योंकि वो अंग्रेजों के जमाने की क्लासिक मोटर है,ठाकुर साहब ने बड़ी शान से उस जमाने में खरीदी थी तभी पुरानी हवेली के भारी-भरकम गेट के खुलने से चे...चे...की आवाज जैसे ही नीलेन्द्र प्रताप सिंह के कानों में पड़ी तो उसकी तन्द्रा टूटी,उसने अपने छोटे भाई मानवेन्द्र सिंह से पूछा....
हम पहुँच गए क्या?
हाँ! भाईसाहब!हम पहुँच गए,आप घोड़ागाड़ी से उतरें,मैं आपका सामान लेकर कोचवान के साथ हवेली के भीतर पहुँचता हूँ,मानवेन्द्र बोला।।
फिर जैसी नीलेन्द्र हवेली के भीतर पहुँचा तो सामने झूले पर बैठी नीलेन्द्र की माँ सारन्धा नौकरानियों से बोल पड़ी....
अरी....कम्मो...रधिया....मुनिया....कजरी....जरा जल्दी से आरती का थाल सँजाकर लाना,इतने सालों बाद मेरा बेटा विलायत से पढ़कर लौटा है,आज तो मैं अपने बेटे को जीभर के लाड़-दुलार करूँगीं.....
तभी एक नौकरानी भागकर आरती का थाल ले आई और सारन्धा के हाथ में थमाते हुए बोली....
लीजिए...ठाकुराइन...आरती का थाल.....
सारन्धा ने खुश होकर अपने बेटे की आरती उतारी और सीने से लगाते हुए बोली....
मेरी तो आँखें जैसे पथरा गईं थीं तेरी राह देखते देखते ,आज सीने मेँ ठण्डक पड़ गई....
माँ! मैने भी आप सबको बहुत याद किया वहाँ,नीलेन्द्र बोला।।
अच्छा! चल ! पहले अपने पिता की तस्वीर के सामने चलकर उन्हे प्रणाम कर,आज वो यहाँ होते तो तुझे देखकर कितना खुश होते,सारन्धा बोली।।
माफ करना माँ! मैं उनके अन्तिम संस्कार में ना आ सका,नीलेन्द्र बोला।।
कोई बात नहीं बेटा!तेरे इम्तिहान जो चल रहे थे कैसे आ पाता तू? लेकिन अब आया है तू विलायत से डाक्टरी पढ़कर तो वें तुझे देखकर ऊपर बैठे ठाकुर साहब खुश हो रहे होगें,सारन्धा बोली।।
और फिर नीलेन्द्र ने अपने पिता ठाकुर अष्टभुजा सिंह को प्रणाम किया और बोला....
मैं अब आराम करना चाहता हूँ,इतनी रात जो हो गई है....
हाँ! बेटा लेकिन कुछ खा तो लेते,सारन्धा बोली।।
नहीं माँ! भूख नहीं है,बस आराम करना चाहता हूँ,नीलेन्द्र बोला।।
ठीक है तू कपड़े बदलकर हाथ मुँह धो लें,मैं तेरे कमरें में दूध लेकर आती हूँ,भूखे पेट तो नहीं सोने दूँगीं,कम से कम दूध ही पीले,सारन्धा बोली।।
ठीक है आप कहती हैं तो दूध पी लूँगा और इतना कहकर नीलेन्द्र अपने कमरें में गया,तब तक मानवेन्द्र भी नौकर के साथ सामान लेकर नीलेन्द्र के कमरे पहुँचा और बोला....
भाईसाहब !ये रहा आपका सामान! कुछ जरूरत हो तो बता दीजिएगा....
ठीक है तुम जाओ,अब मैं कपड़े बदल लेता हूँ....नीलेन्द्र बोला।।
ठीक है और इतना कहकर मानवेन्द्र नौकर के साथ बाहर लौट गया....
कुछ ही देर में सारन्धा दूध लेकर नीलेन्द्र के कमरें में पहुँची ,तब तक नीलेन्द्र बाथरुम से हाथ मुँह धोकर बाहर आ चुका था,उसे देखते ही सारन्धा बोली.....
बेटा! ये रहा दूध,पीकर सो जाना।।
ठीक है माँ! नीलेन्द्र बोला।
और फिर ज्यों ही सारन्धा स्टूल पर दूध रखकर दरवाजे की ओर मुड़ी तो ना जाने अचानक कहाँ से एक काली बिल्ली आ गई और उसने दूध भरा गिलास जमीन पर गिरा दिया फिर ना जाने अचानक कहाँ गायब हो गई.....
ये देखकर सारन्धा हैरत में पड़ गई कि आखिर बिल्ली आई कहाँ से ? इस कमरें के दरवाजे और खिड़कियाँ हमेशा बंद रहते हैं,बस कभी कभी सफाई के लिए खुलते हैं और उस वक्त तो नौकरानी के साथ मैं यहाँ रहतीं हूँ,सफाई होते ही सारे दरवाजे खिडकियांँ बंद कर देती हूँ,फिर ये बिल्ली आई कहाँ से?
दूध का गिलास टूट चुका था चूँकि गिलास काँच का था और दूध फर्श पर बिखर चुका था,तब सारन्धा नीलेश से बोली.....
मैं तुम्हारे लिए फिर से दूध ले आतीं हूँ...
ना! मेरा मन नहीं है दूध पीने का माँ! आप नाहक ही परेशान हो रहीं हैं,नीलेन्द्र बोला।।
ठीक है बेटा ! तेरा मन नहीं है तो रहने दे और इतना कहकर सारन्धा ने फर्श पर बिखरा दूध एक कपड़े से साफ किया और नीलेन्द्र के कमरें से बाहर चली आई,जब सारन्धा कमरें से बाहर निकली तो मानवेन्द्र ने इशारों से सारन्धा से पूछा कि भाईसाहब ने दूध पी लिया और सारन्धा ने ना के जवाब में सिर हिला दिया,तब मानवेन्द्र भी उदास होकर अपने कमरें में चला गया.....
और इधर जब नीलेन्द्र ने ताजीं हवा के लिए अपने कमरें की खिड़की खोली तो सामने बहती हुई नदी के ऊपर आसमान पर चाँद जगमगा रहा था,उसे वहाँ का नज़ारा बेहद़ पसंद आया और उसने कमरें के दूसरे दरवाजे को खोला जो बालकनी में खुलता था,बालकनी में आकर वो ताजी हवा का आनन्द ले ही रहा था कि उसे महसूस हुआ कि उसके कमरें से कोई साया गुजरा है,
उसने फौरन पलटकर देखा तो वहाँ उसे कोई भी नज़र नहीं आया,कुछ देर में वो अपने कमरें में आया कमरे की लाइट आँफ करके नाइट बल्ब जलाकर वो बिस्तर पर लेट गया,तभी उसे कमरें की छत पर एक काला सा साया दिखाई दिया,वो घबरा गया और उसने लाइट आँन की लेकिन तब वहाँ उसे कुछ भी नज़र नहीं आया ,उसे लगा कि वो उसके मन का वहम होगा।।
दूसरे दिन सुबह उसने किसी से भी रात वाली बात का जिक्र नहीं किया,नाश्ता किया और नदी के किनारे जा पहुँचा,वो उस जगह गया जहाँ से उसका कमरा दिखता था,उसे वहाँ का नज़ारा बहुत अच्छा लगा और उसने अपने मोबाइल से वहाँ की फोटो क्लिक की,लेकिन जब उसने वो फोटो देखी तो उसके कमरें की बालकनी के कोने पर खड़ा हुआ काला साया नज़र आया लेकिन जब उसने बालकनी पर देखा तो वहाँ उसे कोई भी नहीं दिखा,उसने फिर से एक और फोटो क्लिक की,उस फोटो में वो काला साया अब भी नज़र आ रहा था लेकिन बालकनी में देखने पर वहाँ कोई नहीं था।।
नीलेन्द्र हैरान था,उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था,इसलिए उसने इस बात को मन से निकालकर सारा ध्यान घूमने में लगा दिया,वो नदी किनारे टहल ही रहा था कि एक बूढ़ा पागल फटे चिथे हुए कपड़ो में उसके पास आकर बोला.....
तुम आ गए मुन्ना बाबू! लेकिन वो तो मार गई,उसे मार दिया....हा....हा....हा....हा....देखना एक दिन तुम्हें भी मार दिया जाएगा और इतना कहकर वो पागल भाग गया।।
नीलेन्द्र का दिमाग़ अब बिल्कुल ख़राब हो चुका था,उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था,इसलिए वो अपने कमरें में लौट आया,कोई किताब उठाई और लेटकर पढ़ने लगा ,पढ़ते पढ़ते वो सो गया,
दोपहर के खाने का वक्त हो चुका था इसलिए सारन्धा उसे खाने के लिए बुलाने आई,नीलेन्द्र को जगाकर उसने उसे खाने के लिए नीचे डाइनिंगहाँल में चलने को कहा.....
लेकिन नीलेन्द्र बोला....
माँ! नाश्ता बहुत हैवी था,इसलिए दोपहर का खाना खाने का मन नहीं है,अब रात को ही खाना खाऊँगा,
ये सुनकर सारन्धा को अच्छा नहीं लगा और वो चली गई......
फिर रात को नीलेन्द्र लैपटॉप पर अपना कुछ जरूरी काम निपटा रहा था,इस बार खाने के लिए मानवेन्द्र बुलाने आया,तो नीलेन्द्र ने कहा....
मेरा खाना यही पर पहुँचा जाओ,बिल्कुल फुरसत नहीं है,कुछ फार्म भर रहा हूँ,शायद किसी हाँस्पिटल में नौकरी मिल जाए.....
ठीक है !और इतना कहकर मान्वेन्द्र चला गया और कुछ देर बाद नीलेन्द्र की थाली लेकर आ पहुँचा,फिर थाली टेबल पर रखते हुए बोला....
भाईसाहब! खाना जरूर खा लीजिएगा।।
ठीक है खा लूँगा,नीलेन्द्र बोला।।
नीलेन्द्र का जवाब सुनकर मान्वेन्द्र चला गया.....
फिर जब कुछ देर बाद नीलेन्द्र अपना काम निपटाकर हाथ धोकर खाने बैठा तो एकाएक उसकी थाली नीचे फर्श पर गिर पड़ी और खाना बिखर गया,नीलेन्द्र को कुछ भी समझ नहीं आया कि क्या हुआ ?,उसे भूख तो लगी थी इसलिए खाना लेने वो नीचे पहुँचा,नीचे उसे कोई भी नौकरानी नज़र ना आई तो उसने सोचा कि माँ से बोल देता हूँ खाना परोसने के लिए.....
लेकिन सारन्धा के कमरें में जाकर उसने जो सुना,वो सुनकर उसके होश़ उड़ गए......
माँ! शायद आज रात ही उसका काम तमाम हो जाए,मैने खाने में इतना तगड़ा वाला ज़हर मिलाया है कि खाना खाते ही आधे घण्टे के भीतर ही वो टें..बोल जाएगा,मानवेन्द्र बोला।।
हाँ! जल्दी से मर जाए तो अच्छा,दूध में भी ज़हर मिलाकर ले गई थी लेकिन वो भी उस बिल्ली ने गिरा दिया,बच गया हरामखोर! खैर बकरें की माँ कब तक दुआँ मनाएगी,आखिर हलाल तो होना ही पड़ेगा,सारन्धा बोली।।
लेकिन उस बकरें की माँ तो आप ही हो,मान्वेन्द्र बोला।।
उसकी माँ मत बोल,सौतेली माँ बोल,इसकी माँ तो इसे जन्म देते ही मर गई थी,मैं एक मछुआरिन थी ,ठाकुर ने देखा मुझे तो मोहित हो गए,ब्याहकर ले आए इस हवेली में,तब ये दो साल कि था,लेकिन ये लड़का मुझे बहुत खटकता था,क्योकिं इसकी धायमाता सुभागी इसका बहुत ध्यान रखती थी,खरोंच तक नहीं आने देती थी,यहाँ तक कि उसने अपना बच्चा भी पैदा नही किया इसके कारण,
तब मैने एक रात उसे मरवाकर यहाँ के तहखाने में एक बक्शे में बंद करवा दिया,जिससे मैने ये काम करवाया था वो मेरा आशिक था,फिर मैने उसे उसकी ही झोपड़ी में जाकर उसके खाने में ज़हर मिलाकर मार दिया,उस मछुआरे के मरते ही ये राज भी हमेशा के लिए तह़खाने में दफन हो गया,तेरे पैदा होने के बाद मैने नीलेन्द्र को बोर्डिंग में डलवा दिया,वहाँ से विदेश भी भिजवा दिया लेकिन हवेली में कदम रखने नहीं दिया,
इसी बीच एक दिन मैं ठाकुर के साथ छत पर टहल रही थी ठाकुर से छुटकारा पाने के लिए मैने उसे छत से धक्का दे दिया और तब से मैं ही इस हवेली और जमीन-जायदाद की मालकिन बनी बैठी हूँ.....
तब तक ये सब बातें नीलेन्द्र अपने मोबाइल फोन में रिकाँर्ड कर चुका था और फिर वो चुपचाप अपने कमरें में आया,एक छोटे से बैग में कुछ सामान पैक किया और चुपके से हवेली के बाहर आ गया और बस्ती की ओर निकल गया उस पागल को ढ़ूढ़ने,बहुत ढ़ूढ़ने के बाद वो पागल नीलेन्द्र को मिल गया और नीलेन्द्र ने उससे बात करने की कोश़िश की.....
वो पागल रो पड़ा और बोला मैं पागल नहीं हूँ,बस पागल होने का नाटक करता हूँ ताकि मेरी जान बची रहें,
लेकिन क्यों?नीलेन्द्र ने पूछा।।
क्योकिं मैं सुभागी का पति रामचरन हूँ,सुभागी के मरने के बाद सुभागी का साया मेरे पास आकर बोला था कि मुझे जिसने मारा है वो कभी ना कभी तो पकड़ा ही जाएगा लेकिन मैं अपने मुन्ना बाबू को कभी भी कुछ नहीं होने दूँगी,हमेशा साए की तरह उसके पीछे लगी रहूँगीं और इतना कहकर वो चली गई थी।।
रामचरन की बात सुनकर नीलेन्द्र का दिमाग़ कौधा और उसे समझ आया कि उस दिन ज़हर से भरे दूध के गिलास को सुभागी ने ही गिराया था और ज़हर से भरी खाने की थाली भी सुभागी ने ही गिराई थी,फोटो में भी उसका ही साया था,उसने सही कहा था कि हमेशा मेरा साया साथ होगा ।।
उसके बाद नीलेन्द्र पुलिस में गया उसने सारी रिकार्डिंग पुलिस को सुना दी,पुलिस ने मान्वेन्द्र और सारन्धा को गिरफ्तार कर लिया,फिर नीलेन्द्र ने सुभागी के कंकाल को तहखाने से निकलवा कर उसका अन्तिम संस्कार करवाया।।

समाप्त....
सरोज वर्मा.....