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मोतीबाई--(एक तवायफ़ माँ की कहानी)--भाग(५)

उपेन्द्र बिना देर किए हुए दोनों बेटियों को संगीत कला केन्द्र में प्रभातसिंह के साथ भरती करवाने ले गया,प्रभातसिंह की चचेरी बहन ही संगीत कला केन्द्र को चलातीं थीं इसलिए एडमिशन मे कोई दिक्कत ना हुई,बच्चियों के संगीत केन्द्र चले जाने से अब उपेन्द्र और महुआ की परेशानी कुछ कम हो गई थी,फिर से उनका जीवन सुचारू रूप से चलने लगा,
इसी बीच जब उपेन्द्र के पास बेटियों की जिम्मेदारी खतम हो गई तो उसने सोचा कोई काम शुरू किया जाए,वो पढ़ा लिखा तो था नहीं,इसलिए उसने एक डेरी खोलने का सोचा,शहर से बाहर उसने कुछ जमीन और कुछ गाय भैंसें खरीदी,अपना हाथ बँटाने के लिए उसने कुछ लोगों को भी अपने साथ काम पर रख लिया,उसका ये काम चल पड़ा,उसके अन्दर भी एक आत्मविश्वास आ गया कि अब वो महुआ को अपने पैसों से उपहार भेंट किया करेंगा।।
उसने अपनी डेरी के मुनाफे से कुछ पैसे इकट्ठे किए और महुआ को सोने के जड़ाऊ कंगन उपहार में दिए,उन कंगनों को पहनकर महुआ खुशी से फूली ना समाई,आखिर वो उसके पति की कमाई के कंगन थे,महुआ के मन से एक और बोझ जैसे उतर गया था,उसने सोचा देर से ही सही कम से कम उसके जीवन में कुछ तो खुशियाँ लौंटीं।।
अब जब भी महुआ का मन अपनी बेटियों से मिलने का करता तो वो खुद ही लखनऊ जाकर उनसे मिल आती,लेकिन बेटियों को उसने अपने पास बुलाना बिल्कुल छोड़ दिया था।।
बच्चियों का भी वहाँ मन लग गया था,वो वहाँ ठीक से पढ़ रही थीं और साथ साथ संगीत भी सीख रहीं थीं,इसी बीच महुआ की जिन्द़गी में फिर से एक नन्हें मेहमान का आगमन हुआ ,महुआ बहुत डर रही थी कि इस बार लड़की ना हो तो ही अच्छा,क्योंकि दो बेटियों को वो बड़ी मुश्किल से सही जगह पहुँचा पाई थी,लेकिन इस बार महुआ की मुराद पूरी हो गई,उसे बेटा जो हुआ था उसने प्यार से उसका नाम पलाश रखा।।
पलाश अभी साल भर का ही हुआ था कि मधुबनी एक लम्बी बीमारी के बाद भगवान को प्यारी हो गई,मधुबनी के जाने से पलाश की पूरी जिम्मेदारी अब उपेन्द्र पर आ गई थी इसलिए वो अब अपने डेरी वाले काम पर ध्यान नहीं दे पा रहा था लेकिन संकोचवश वो महुआ से कुछ नहीं कह पा रहा था लेकिन कुछ दिनों बाद इस बात को लेकर उपेन्द्र और महुआ के बीच बहस हो गई,मजबूरी में अब महुआ को पलाश को अपने साथ कोठे ले ही जाना पड़ता,वहाँ पलाश को अजीजनबाई सम्भाल लेती या वहाँ की लड़कियांँ।

फिर एक दिन ना जाने महुआ को क्या सूझी?उसने कोठे ना जाने का मन बना लिया लेकिन फिर बाद में उसने सोचा कि खर्चा कैसे चलेगा,दोनों बेटियाँ लखनऊ में पढ़ रहीं हैं,ये तीसरा भी तो है,अभी उपेन्द्र का काम भी उतना नहीं जमा है,एक बार उपेंन्द्र का काम जम जाए फिर वो कोठे को हमेशा हमेशा के लिए तिलांजली दे देंगीं।।
इसी तरह पलाश तीन साल का होने को आया और उधर उपेन्द्र की डेरी के आस पास और भी डेरियाँ खुल गई तो उसका काम कुछ मद्धम सा हो गया,अब डेरी से उसको उतना मुनाफा नहीं हो रहा था जैसे पहले हो रहा था,इसी परेशानी के चलते उपेन्द्र ने शराब पीना शुरू कर दिया।।

अब आए दिन महुआ और उपेन्द्र में बहस होने लगी जिसे देखकर छोटा पलाश परेशान हो उठता लेकिन इस समस्या का दोनों में से किसी ने कोई समाधान ना ढ़ूढ़ा और तभी एक दिन थकहार कर फिर से उपेन्द्र,जमींदार प्रभातसिंह के पास जा पहुँचा और जाकर बोला.....
मैं तो अपनी जिन्द़गी से तंग आ चुका हूँ,जमींदार साहब!
क्यों! मियाँ ! अब कौन सी मुसीबत ने आपके दरवाज़े खटखटा दिए जो आप ऐसी बुजदिलों वाली बात करतें हैं,प्रभातसिंह बोलें।।
जिन्द़गी में कभी सुख नहीं मिला मुझे और शायद ना कभी मिलेगा,उपेन्द्र बोला।।
मियाँ आपकी पहेलियाँ सुलझाने का समय नहीं है हमारे पास जो कहना है साफ साफ कहिए,प्रभातसिंह बोले।।
मेरी सारी जिन्द़गी यूँ ही बरबाद हो गई,सौतैली माँ,तवायफ़ बीवी,बच्चियाँ भी दूर हैं,लानत हैं ऐसी जिन्द़गी पर,जिन्द़गी अब बोझ लगने लगी है,उपेन्द्र बोला।।
मियाँ !लानत का मतलब समझते हो,शरम की बात,अरे!तुम जैसे आदमी को तो फक्र होना चाहिए कि उसकी मोतीबाई जैसी बीवी है,जिसने अपने सिर पर पूरी गृहस्थी और बच्चों का बोझ उठा रखा है और तुम जैसे नकारा आदमी का भी ,कोई और होती ना तो ना जाने तुम्हें छोड़कर कब का चली गई होती,फिर भी तुम ऐसी बातें करते हो,बोझ जिन्द़गी तब हो जाती है जब आपका कोई दिलअजीज आपकी आँखों के सामने लाचार और मजबूर होकर बिस्तर पर लेटकर जीवन से मुक्त होने की कामना करें और आप सिवाय आँसू बहाने कुछ ना कर पाएं,तब जिन्द़गी बोझ होती है और तुम्हारे पास किस चींज की कमीं है,चले आए हमारे पास खुद को कोसने,हमारे घर में ऐसे लोगों के लिए कोई जगह नहीं है,हम जिन्दादिल इन्सान हैं और हमें वैसे ही लोंग अच्छे लगते हैं,प्रभातसिंह बोले।।
जमींदार प्रभातसिंह की बात सुनकर उपेन्द्र की बोलती बंद हो गई लेकिन फिर भी वो हिम्मत करके बोला,आजकल डेरी का काम नहीं चल रहा है।।
तो इसमें कौन सी बड़ी आफत आ गई,छोड़ दो काम ,बेंच दो डेरी,जो पैसे आएं उनसे कोई और धन्धा शुरू करों,हमने पहले भी कहा था कि समस्याओं को बढाने से अच्छा है या तो उन्हें खतम करो या तो उनका समाधान ढूढ़ो,प्रभात सिंह बोलें।।
शायद आप सही कहते हैं ,उपेन्द्र बोला।।
तुम पढ़े लिखे होते तो हम तुम्हें अपना मुनीम बना लेते,अभी कुछ समय किसी भी काम के बारें में मत सोचो,डेरी बेचकर कुछ दिन आराम करो,फिर तब हम सोचते हैं कि तुम्हारे लिए कौन सा व्यापार ठीक रहेगा,प्रभातसिंह बोले।।
हाँ,मैं यही करता हूँ,कुछ दिन सुकून से रहता हूँ,बाद में देखूँगा कि क्या करना है? उपेन्द्र बोला।।
अब हमें लगता है कि तुम्हें हमारी बात ठीक तरह से समझ में आ चुकी है,प्रभातसिंह बोले।।
जी,तो मैं चलता हूँ,इस तरह एक बार फिर प्रभातसिंह ने उपेन्द्र की समस्याओं का समाधान कर दिया।।

उपेन्द्र ने डेरी बेंच दी और पैसें महुआ को जाकर दे दिए हिफाज़त से रखने के लिए,महुआ ने पूछा भी कि ये पैसें कहाँ से आए ? तो वो बोला.....
मुनाफा नहीं हो रहा था इसलिए डेरी बेंच दी,कुछ दिन आराम से सोचकर बाद में नया काम शुरू करूँगा,
महुआ भी कुछ नहीं बोली बस इतना कहा कि आराम से सोच लेना।।
अब उपेन्द्र के स्वभाव में बदलाव आने लगा था, धीरे धीरे उसकी शराब भी कम हो गई थी,वो फिर से महुआ और पलाश का ख्याल रखने लगा था,महुआ की जिन्द़गी में एक बार फिर से खुशियों ने कदम रखें,उसकी जिंदगी में अब फिर से कुछ कुछ ठीक होनें लगा था।।
लेकिन अब पलाश को महुआ की आदत हो गई थी,इसलिए उपेन्द्र अब उसे ज्यादा देर सम्भाल नहीं पाता था,इसलिए महुआ पलाश को फिर से अपने संग कोठे पर ले जाने लगी,इसी तरह पलाश चार साल का हो कर पाँचवीं में लग गया था,अब वो भी अपनी माँ की तरह नाचने की कोशिश करता,अपनी माँ की नकल करता,उसका ये खिलवाड़ अजीजनबाई को खूब भाता और वो उसे देखकर खूब खुश होती,लेकिन ये चींज महुआ को पसंद नहीं आ रही थी कि उसका बेटा उसके जैसी हरकतें करें।।
उसने अब पलाश को भी अपने से दूर करने का मन बना लिया था और इसी सिलसिले में उसने एक दिन प्रभातसिंह को अपने घर बुलवाया ......
जी,कहिए मोहतरमा ! हमें कैसें याद किया,प्रभातसिंह जी ने पूछा।।
जी !जमींदार साहब !पलाश के बारें में कुछ बात करनी हैं,महुआ बोली।।
जी! कहें! प्रभातसिंह बोले।।
मैं ने सुना है कि बडे़ बड़े घरों के बच्चे बोर्डिंग स्कूल जाते हैं,महुआ बोली।।
हाँ! तो ! जाते तो हैं,प्रभातसिंह बोले।।
मैं चाहती हूँ कि पलाश भी बोर्डिंग स्कूल में पढ़े,अब उसकी स्कूल जाने लायक उमर हो गई है,मैं नहीं चाहती कि वो अपनी माँ को ऐसे नाचते और गाते हुए देखें,महुआ बोली।।
तो क्या आपने इस विषय पर अपने शौहर से बात कर ली है? प्रभातसिंह ने पूछा।।
इसलिए तो आपको बुलवाया है,मेरी हिम्मत नहीं हो रही उनसे बात करने की,महुआ बोली।।
इसका मतलब है कि इस मसले पर मुझे उनसे बात करनी होगी,प्रभातसिंह बोले।।
जी,हाँ! बहुत बड़ा एहसान होगा मुझ पर जो आपने उन्हें मना लिया,महुआ बोली।।
पक्का तो नहीं कह सकता लेकिन कोशिश जरूर करूँगा,प्रभातसिंह बोलें।।
बहुत शुक्रिया, महुआ बोली।।
शुक्रिया कैसा? अगर किसी बच्चे की जिन्दगी मेरी वजह से सँवर जाती है तो मैं अपने आपको खुशकिस्मत समझूँगा,प्रभातसिंह बोलें।।
और प्रभातसिंह ने दूसरे दिन उपेन्द्र को अपनी हवेली बुलवाकर उससे पलाश की बोर्डिंग स्कूल जाने की बात की और ये सुनकर उपेन्द्र भड़क उठा फिर बोला...
एक एक करके सारे बच्चों को महुआ मुझसे दूर कर देगी आखिर वो चाहती क्या है? मैं उसके टुकडों पर पल रहा हूँ तो हर जगह अपनी मरजी चलाऐगी,
मियाँ!आप गलत समझ रहें हैं,प्रभातसिंह बोले।।
मैं बिल्कुल सही समझ रहा हूँ और पलाश को मैं कहीं भी भेजने को राजी नहीं हूँ और इतना कहकर उपेन्द्र उसी वक्त प्रभातसिंह के घर से वापस आ गया.....

क्रमशः....
सरोज वर्मा.....