Suhag, Sindoor aur Prem - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

सुहाग, सिन्दूर और प्रेम - भाग(७)

सरगम और संयम के रिश्ते की मजबूती देखकर माधुरी को बिल्कुल भी अच्छा ना लगता,क्योंकि अब संयम ने माधुरी से बिल्कुल दूरियाँ बना ली थीं,संयम ये बिल्कुल भी नहीं चाहता था कि अब सरगम और उसके दरमियाँ कोई भी तीसरा आएं।।
वो इस शहर में नई आई थी इसलिए संयम उसकी मदद कर रहा था फिर उसे ये भी तो जानना था कि सरगम के मन में क्या है? माधुरी के साथ रहने से सरगम की क्या प्रतिक्रिया होती है? और अब ये उसने जान लिया था कि सरगम उसे कितना प्यार करती है।।
दोनों को साथ में देखकर माधुरी मन ही मन कुढ़ती रहती,वो संयम से दोस्ती बनाना चाहती लेकिन संयम उससे दूर भागता,आँफिस में भी अब वो उससे कोई मतलब ना रखता,माधुरी सामने पड़ती तो अपना रास्ता बदल लेता,इस बात से माधुरी के मन में सरगम के प्रति दुर्भावना पैदा हो गई।।
सरगम और संयम का रिश्ता प्यार और हमदर्दी की छाँव में फल-फूल रहा था,संयम की प्यार की मिठास के साथ साथ अब सरगम ने ग्यारहवीं भी पास कर लीं थी और बाहरवीं में पहुँच गई थी,समय के साथ उसमें समझदारी और गम्भीरता भी आती जा रही थी अब कक्षा में लड़कियांँ उसे ये देखकर ये नहीं कहती थी कि तुझे कुछ नहीं आता।।
संयम और सरगम की शादी की तीसरी सालगिरह थी,संयम ने सरगम को तब काश्मीर ले जाने का सोचा और वो दोनों काश्मीर घूमने के लिए गए,सरगम तो काश्मीर की वादियों में खो सी गई,वो पहली बार कहीं घूमने आई थी और उस पल को अपनी आँखों और दिल में हमेशा हमेशा के लिए कैद कर लेना चाहती थी,उसने उस पल को संयम के संग भरपूर जिया।।
दोनों हफ्ते भर के लिए वहाँ गए थे और उन्होंने उन दिनों का भरपूर आनन्द उठाया ,वें दोनों दिनभर घूमते फिरते और शाम को होटल में आकर खाना खाते और फिर एकदूसरे की बाँहों में सो जाते,काश्मीर से लौटने के बाद एक ही महीने के भीतर सरगम ने खुशखबरी सुना दी।।
ये खबर संयम ने चिट्ठी द्वारा जगजीवनराम जी को दी,जगजीवनराम जी तो मारे खुशी के फूलें ना समाएं और सब मिलकर उस पल का इन्तज़ार करने जिस पल नन्ही सी जान सरगम की गोद में होगी,जब सरगम के प्रसव को एक दो महीने शेष बचें थे तो जगजीवनराम जी ने दयमंती को सरगम की देखभाल के लिए शहर संयम के पास भेज दिया,महीने बीते और सबको इन्तज़ार का फल मिला,सरगम ने प्यारे से खूबसूरत बेटे को जन्म दिया।।
जब सरगम बेटे को लेकर गाँव पहुँची तो जगजीवनराम जी परपोते को देखकर निहाल हो उठे और बोले....
अब मर भी जाऊँ तो कोई ग़म नहीं,अपने संयम की औलाद को गोदी में खिला लिया और अब ईश्वर से कुछ नहीं चाहिए,जगजीवनराम जी ने बड़े धूमधाम से बच्चे का कुआँपूजन और नामकरण करवाया और बच्चे का नाम उन्होंने पुल्कित रखा।।
पुल्कित को लेकर सरगम मायके भी पहुँची,संतोषी भी खुश हुई लेकिन सबसे ज्यादा कनकलता खुश थी,उसने बच्चे की खूब बलाइयाँ ली और उसे ओम वाले लोकेट की सोने की चेन पहनाई,उसने सरगम को भी तोहफे में सोने के कंगन दिए,दोनों की नजर उतारी।।
सरगम एक दो दिन मायके में रहकर फिर ससुराल आ गई,ससुराल में कुछ दिन रूककर वो शहर फिर से वापस आ गई क्योंकि उसकी बारहवीं के इम्तिहान आने वाले थे,इसलिए पुल्कित को सम्भालने के लिए दयमंती बुआ को संयम अपने साथ ले आया।।
सरगम के इम्तिहान अब नजदीक आ चुके थे,इसलिए वो अब पढ़ाई में लगने लगी,अब पुल्कित के आने से काम भी बढ़ गए थे इसलिए संयम ने घर के कामों के लिए बाई लगवा ली,दयमंती बुआ जो थीं बाई पर नज़र रखने के लिए,खाना संयम बना लेता तो कभी दयमंती बुआ बना लेतीं।।
सरगम ने बाहरवीं के इम्तिहान भी दे दिए और अच्छे नम्बरो से पास भी हो गई,फिर उसने संयम से कहा कि वो अब आगें नहीं पढ़ना चाहती,काँलेज के लिए समय कहाँ है? पुल्कित को सम्भालना ज्यादा जुरूरी सरगम की बात सुनकर संयम बोला....
ठीक है तुम रेगुलर पढ़ाई मत करो,बी.ए.का प्राइवेट फार्म डाल दो,घर में रहकर पढ़ाई करो,जब इम्तिहान आ जाएं तो पेपर दे देना,कम से कम ग्रेज्युएशन तो कर लो,फिर आगें मत पढ़ना,मैं कहूँगा भी नहीं और सरगम ने संयम की बात मान ली।।
वो अब घर पर रहकर ही पढ़ने लगी, जब वो बी.ए. द्वितीय वर्ष में पहुँची तो पुल्कित दो साल का हो चुका था,तीसरी मे लग गया था,सबकी जिन्दगी चल ही रही थी कि एक दिन सरगम को चक्कर आया और वो गिर पड़ी,दयमंती बुआ घबरा गईं,फौरन संयम से कहा कि डाँक्टर को बुलाओ....
तब सरगम मुस्कुराते हुए बोली....
बुआ जी डाँक्टर की कोई जुरूरत नहीं है,मैं बिलकुल ठीक हूँ।।
चक्कर खाकर गिर पड़ी और कहती है कि मैं बिल्कुल ठीक हूँ,ऐसी कौन सी बीमारी है भला,जरा मैं भी तो सुनूँ जो तू इतना मुस्कुरा रही है,दयमंती बुआ बोलीं।।
कुछ नहीं बुआ जी! पुल्कित का साथी आने वाला है,सरगम बोली।।
अच्छा....अच्छा...तो पहले क्यों नही बताया? पगली कहीं की,दयमंती बुआ बोलीं।।
बस,बताने वाली थी,सोच रही थी पहले डाक्टर से मिल लूँ फिर बताऊँगी,लेकिन आज इस भेद को खोलना ही पड़ा,सरगम बोली।।
अब तो तुझे अपना और भी ख्याल रखना पड़ेगा,दयमंती बुआ बोली।।
साथ में संयम भी खड़ा था और वो सरगम को देखकर मंद मंद मुस्कुरा रहा था,दयमंती बुआ समझदार थीं इसलिए समझ कि संयम ,सरगम से बात करना चाहता है फिर वें पुल्कित से बोली....
पुल्कित बेटा! चलो हम बाहर बरामदे में जाकर खेलते हैं,
बुआ के जाते ही संयम ,सरगम से बोला...
श्रीमती जी! बधाई हो! पहले नहीं बताया।।
आपको भी बधाई हो श्रीमान जी! हाँ खुशखबरी बताने में मैने थोड़ी देर कर दी,सरगम बोली।।
और मुस्कुराते हुए संयम के सीने से लग गई।।
ये खुशखबरी भी संयम ने चिट्ठी में लिखकर गाँव भेज दी,खुशखबरी सुनकर सब बहुत खुश हुए और कुछ ही महीनों के बाद सरगम ने फिर से एक बेटे को जन्म दिया जिसका नाम उन्होंने हर्षित रखा,पुल्कित और हर्षित धीरे धीरे बड़े हो रहे थे और साथ साथ सरगम की पढ़ाई भी चल रही थी,
सरगम का ग्रेजुएशन होते होते पुल्कित चार साल हो चुका था और हर्षित डेढ़ साल का हो चुका था,अब सरगम के सिर से पढ़ाई का झंझट खत्म हो चुका था,वो अब आराम से दोनों बच्चों का ख्याल रखती,तब बुआ जी बोलीं....
अब मैं सोचती हूँ कि कुछ दिनों के लिए गाँव हो आऊँ,बहुत दिन हो गए बाबूजी को देखें ,अब तो उनकी तबियत भी ठीक नहीं रहती।।
संयम बोला....
बुआ जी! आप तैयारी बना लीजिए ,मैं आपको छोड़ आता हूँ, संयम, दयमंती को गाँव छोड़कर दो दिन में ही वापस आ गया।।
और इधर सरगम से माधुरी बहुत बुरी तरह चिढ़ी बैठी थी तो जब देखो तब पूरी काँलोनी वालों के घर जा जाकर उसकी बुराइयाँ करती रहती और जब सरगम को पता चलता तो वो कुछ नहीं बोलती बस हँसीं में टाल देती।।
सब ऐसे ही चल रहा था कि एक दिन गाँव से चिट्ठी आई और उसमें लिखा था कि जगजीवनराम जी अब इस दुनिया को अलविदा कह गए हैं,डायरिया हो गया था ,गाँव में थे तो समय से इलाज ना मिल पाया आधी रात के वक्त कोई भी साधन ना मिला जब साधन मिला तो डाक्टर के पास पहुँचें तो तब तक उनके प्राण पखेरू उड़ चुके थे,बूढ़ा शरीर बीमारी नहीं झेल पाया।।
संयम और सरगम ने जब पढ़ा तो दोनों रोकर बैठ गए,फिर बड़ी मुश्किल से सरगम ने खुद को और संयम को सम्भाला,सरगम बोली....
दादाजी के अन्तिम दर्शन तो नहीं लिखे थे हमारे नसीब में,चिट्ठी आने में इतनी देर जो लग गई,लेकिन उनकी तेहरवीं में पहुँच जाएगे तो हम दोनों को थोड़ी संतुष्टि हो जाएगी।।
संयम बोला....
शायद! तुम ठीक कहती हो,
और दोनों गाँव जाने की तैयारी की,दोनों बच्चों के संग गाँव की ओर रवाना हो गए,गाँव पहुँचे तो माहौल बहुत ही ग़मभरा था,क्योंकि जगजीवनराम जी को पूरा गाँव बहुत अच्छे से जानता था,वे बहुत ही व्यवहार कुशल थे,रघुवरदयाल जी भी दिनेश के संग आएं,ग़म भरें माहौल में तेहरवीं निपटी,संयम तेहरवीं के दो चार दिन के बाद आने को हुआ तो दयमंती ,संयम से बोली.....
बेटा! मुझे भी अपने साथ ले चल ,बाबू जी की छत्रछाया में यहाँ पल रही थी,अब वें नहीं रहे तो अब इस घर में रहने का जी नहीं करता।।
हाँ...बुआ ! मैं भी तो यही चाहता हूँ कि आप हमारे संग आ कर रहिए....
और फिर दयमंती सबके संग शहर आ पहुँची,जिन्दगी ने एक बार फिर से रफ्तार पकड़ी ही थी कि खबर आई कि रघुवरदयाल जी,बारिश में सुबह सुबह खेतों को देखने पहुँचे थे कि फसल को ज्यादा नुकसान तो नहीं हुआ तभी जोर की बिजली कड़की और उन पर गिर पड़ी,बिजली गिरने से वहीं पर उनकी मौत हो गई,ये खबर सरगम के लिए बहुत दर्दनाक थी।।
रोते बिलखते अपने परिवार के संग वो रघुवरदयाल जी की तेरहवीं के लिए मायके पहुँची,उसे भी अपने नाना जी के अन्तिम दर्शन नसीब ना हुए,नाना जी की तेहरवीं करके वापस शहर लौटे अभी एक ही महीना हुआ था कि खबर आई कि संतोषी को लकवा मार गया है और दस दिनों तक जिन्दगी के लिए संघर्ष करती रही लेकिन में अन्त में हारकर मौत के संग चली गई।।
नानी के तेहरवीं के लिए एक बार फिर से सरगम को मायके जाना पड़ा,एक ही साल में घर के तीन सदस्यों की मौतों की खबर ने उसे हिलाकर रख दिया था,सबसे ज्यादा कष्ट उसे दादाजी और नाना जी के जाने का था।।
लेकिन जिन्दगी में कितना भी कुछ हो जाए,किसी के छोड़कर चले जाने से दूसरे लोंग जीना तो नहीं छोड़ देते,किसी के जाने से किसी की जिन्दगी नहीं रूकती वो निरन्तर गतिमान रहती है,कुछ समय बाद लोंग सब स्वीकार कर ही लेते हैं और जिन्दगी में आगें बढ़ जाते हैं।।
यही सरगम ने भी किया और अपनी दुनिया को सम्भालने में लग,अब पुल्कित पाँच साल हो गया था,इसलिए संयम ने उसका स्कूल में एडमिशन करा दिया और हर्षित अभी ढ़ाई साल से ऊपर का हो आया था,उसकी शरारतों से घर में रौनकें लगीं रहती।।
बुआ भी पोतों के संग मस्त रहती,हँसी खुशी से जिन्दगी बीत रही थी,तभी एक दिन संयम अपने स्कूटर से बाजार गया सामान खरीदने ,खरीदारी करके घर लौट ही रहा था कि एक बच्चा उसके स्कूटर के सामने आ गया,उस बच्चे को बचाने के चक्कर में संयम ने अपना स्कूटर दूसरी दिशा में मोड़ा तो सामने से आ रहें ट्रक से जा भिड़ा,मौके पर मौजूद लोगों ने उठाकर उसे अस्पताल पहुँचाया,उसे काफी गम्भीर चोटें आईं थीं।।
ये खबर जब दयमंती और सरगम को पता चली तो दोनों बच्चों को वसुधा दीदी के पास छोड़कर जोशी जी के साथ अस्पताल पहुँची,डाक्टर ने दोनों से कहा....
मरीज से मिल लीजिए,शायद उनके पास ज्यादा वक्त नहीं है।।
ये सुनकर दोनों के होंश उड़ गए,दोनों सहमी सी संयम के पास पहुँची.....
संयम ने दोनों को देखा तो अटकती और उखड़ी हुई साँसों के साथ बोला....
मुझे तुम दोनों वचन दो कि मेरे बाद सरगम दूसरी शादी कर लेंगी,मेरे लिए जिन्दगी पर अपनी माँग को सूना नहीं रखोगी सरगम! मुझे वचन दो....वचन दो सरगम! मेरे पास वक्त नहीं है....
सरगम तो ना बोल सकीं क्योंकि वो क्या जवाब देती संयम को,उसके पास कोई जवाब ही नहीं था,वो तो बस उसके साथ ही जीवन भर रहना चाहती हैं.....
लेकिन तभी हिम्मत करके दयमंती बुआ बोली...
संयम ! जैसा तू चाहता है वैसा ही होगा....
संयम ने ये सुना और संतोष के साथ उसने अपनी आखिरी साँसें लीं,संयम को जाता देख सरगम फूट फूटकर रो पड़ी....
संयम के मृत शरीर का अन्तिम संस्कार कर दिया गया,गाँव से सब आएं लेकिन अब सबके मन में सरगम के लिए पहले वाले भाव नहीं रह गए थे,उन्हें लगता था कि बहु ही उनके जवान बेटे को खा गई...
तेहरवीं के बाद सबने जल्द से जल्द वापस जाने की तैयारी बना ली,क्योंकि वें अब सरगम और उसके बच्चों की जिम्मेदारी उठाने के लिए तैयार ना थे,जगजीवनराम होते तो ऐसा कभी भी नहीं होने देते,तब दिनेश ने कहा....
सरगम ! तू मेरे साथ चलेगी,इन सबको मुँह मोड़ लेने दे,तेरा मामा अभी जिन्दा है।।
वसुधा दीदी ने ये सब देखा तो उससे ना रहा गया और वो सबके सामने सरगम की सास शुभद्रा से बोल पड़ी....
माफ कीजिएगा बहनजी! आप जो कर रहीं हैं ना अपनी बहु के साथ वो बिल्कुल भी ठीक नहीं है।।
इतनी ही फिकर है उसकी तो आप क्यों नहीं पाल लेंतीं उसके बच्चो को?सरगम की सास शुभद्रा बोली।।
अरे,मैं नहीं वो खुद इतनी काबिल है कि खुद को और अपने बच्चों को तो पाल ही लेगी,संयम के इन्श्योरेंस हैं ना,वो सब उसको ही मिलेगें और नौकरी भी मिल जाएगी,संयम वाला पद तो नहीं मिल सकेगा लेकिन उसकी पढ़ाई के अनुसार छोटा मोटा पद तो जरूर मिल जाएगा।।
सही कहते हैं पुरूष कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है,तभी तो आज तक पुरूषों के पैर की जूती बनी हुई है,आप माँ होकर उसका साथ नहीं दे सकतीं,लानत है आप पर,सरगम नौकरी करेगी तभी आपलोंगों के मुँह पर थप्पड़ पड़ेगा और मैं उसका साथ दूँगी ,हर पल हर घड़ी में उसके पीछे साएं की तरह लगी रहूँगी जब तक उसकी नौकरी नहीं लग जाती।।
ये सुनकर शुभद्रा ने सबसे कहा....
इतना अपमान करवाने के बाद अब आप सब खड़े क्यों है ? चलिए इस घर से ,इतनी बातें सुनने के बाद अब कौन यहाँ रूकना चाहेगा? चलो दयमंती बिन्नो तुम भी अपनी तैयारी बना लों।।
ना! मैं अब इस बच्ची को छोड़कर कहीं ना जाऊँगीं,संयम ने इसकी जिम्मेदारी मुझे सौपीं थी,मैं संयम को कतई धोखा नहीं दे सकती,दयमंती बुआ बोली।।
ये पराये तुम्हें हमलोंगों से भी ज्यादा अज़ीज हो गए,शुभद्रा बोली।।
ये पराये नहीं मेरे अपने हैं,संयम को मैने अपने हाथों से पालपोस कर बड़ा किया है,ये उसकी निशानियाँ हैं,इन्हें छोड़कर मैं कहीं नहीं जा सकती,दयमंती बोली।।
तो मरो तुम भी इनके साथ,इतना कहकर पूरा परिवार गाँव लौट गया,एकाध दो दिन के बाद दिनेश भी लौट गया,बोला मैं आता रहूँगा,एकाध महीने में,कोई चिन्ता की बात हो तो चिट्ठी लिखकर बता देना।।
अब सरगम का असली संघर्ष शुरू हो चुका था,जोशी जी और वसुधा ने सरगम को संयम के आँफिस में ही नौकरी दिलवाने में पूरा ऐड़ी चोटी का जोर लगा दिया आखिर छः महीने की मशक्कत के बाद सरगम को नौकरी मिल ही गई,सरगम आँफिस जाने लगी और दयमंती बुआ बच्चों को सम्भालती,
सरगम को आँफिस में नौकरी मिल जाने से माधुरी को बहुत बुरा लगा और वो उसके बारें में झूठी झूठी अफवाहें उड़ाने लगी,कभी किसी कर्मचारी का नाम सरगम से जोड़ती तो कभी किसी कर्मचारी का,लेकिन सरगम इन सब पर ध्यान ना देती,वो सिर्फ़ अपना काम करती और घर आ जाती,सिवाय जोशी जी के वो और भी किसी पुरूष से बात ना करतीं।।
लेकिन अभी भी इतना सबकुछ सरगम के साथ बुरा करके भगवान को संतोष नहीं हुआ था,फिर एक दिन आर्डर आया कि वो ये मकान खाली कर दे क्योंकि जो संयम का औहदा था उस पर अब कोई नया इन्सान आ रहा था,अब उसका हक़ बनता था इस घर में रहने का,
सरगम को अब वहाँ उस घर जाकर रहना पड़ेगा जहाँ पर उसके औहदे वाले लोंग रहते थे,ये चुनौती भी सरगम ने स्वीकार कर ली क्योंकि संयम ने उसे हमेशा समस्याओं का सामना करना सिखाया था,लेकिन जब उसने वो घर छोडा़ तो वो फूट फूटकर रो पड़ी क्योंकि ये वही घर था जहाँ उसने संयम से पहली बार अपने प्यार का इजहार किया था,ये वही घर था जहाँ वो पहली बार संयम की बाँहों में समाई थी,ये वही घर था जहाँ उसके और संयम की प्यार की निशानियों ने जन्म लिया था।।
खैर,आखिर सरगम अपने नये घर में आ गई,सामान भी जमा लिया,वसुधा और जोशी जी तो हमेशा उसकी मदद के लिए तत्पर रहते थे फिर से एक बार उसकी जिन्दगी की गाड़ी आगें बढ़ चली।।

और इधर कमलेश्वर के घर पर....
माँ और बाबूजी मेरा काँललेटर आ गया ,मुझे कल ही नौकरी ज्वाइन के लिए जाना होगा,कमलेश्वर ने अपनी खुशी अपने माँ बाबू जी के संग बाँटते हुए कहा....
इतनी जल्दी,कहाँ रहेगा? क्या खाएगा?कैसे सब करेगा? कमलेश्वर की माँ सुमित्रा बोली।।
क्यों मै भी तो ऐसे ही गया था नौकरी पर?कोई साथ में कुनबे को लेकर थोड़े ही जाता है,रामधनी बोले।।
हाँ! बाबूजी ठीक कह रहें हैं,घर तो सरकारी मिल जाएगा,रही खाने की बात तो कुछ दिन होटल में खा लूँगा,जब गृहस्थी का सामान बसा लूँगा तो घर में पकाने लगूँगा,कमलेश्वर बोला।।
बिल्कुल ठीक कहता है कमल! ऐसा ही तो करना पड़ता है,रामधनी जी बोले।।
तो फिर चल तेरी तैयारी बना देती हूँ,सुमित्रा बोली।।
हाँ! माँ ! सुबह सुबह की ही रेलगाड़ी से निकलना होगा,कमलेश्वर बोला।।
अच्छा! चल मैं तेरे ले जाने के लिए कुछ सूखा नाश्ता बना देती हूँ,ताकि कुछ रोज चल जाएं,सुमित्रा बोली।।
हाँ,माँ! ठीक रहेगा,मैं तब तक ये खुशखबरी दोस्तों को सुनाकर आता हूँ और इतना कहकर कमल बाहर चला गया।।
दूसरे दिन सुबह सुबह वो नौकरी के लिए निकल गया,शाम को पहुँच गया और एक होटल में रात भर ठहरा,दूसरे दिन सुबह वो तैयार होकर अपना ज्वानिंग लेटर लेकर वो अपना नए शहर और नए आँफिस में पहुँचा,उसके कागजात देखकर उसे ज्वानिंग मिल गई और उससे कहा गया कि आप अपने सरकारी घर पर रह सकते हो,उसे आपके लिए रंग रोगन करके रखा गया है....
एक दो दिनों में वो अपने नए घर में भी शिफ्ट हो गया,कुछ सामान तो था नहीं, एक बिस्तरबंद और एक सूटकेस बस तो था उसके पास ,उसने कुछ जरूरत का सामान खरीदा और रहने लगा उस घर में सोचा धीरे धीरे सामान जुटाऊँगा एक साथ तो नहीं हो पाएगा इतना सबकुछ।।
आज उसकी नौकरी का पहला रविवार था तो उसने सोचा कि नौकरी लगने के बाद वो एक भी बार मंदिर नहीं गया,मौका ही नहीं लगा,आज भगवान के पास माथा टेककर आता हूँ,कालोनी में एक बड़ा सा मंदिर था उसने आँफिस जाते आते वक्त देखा था तो सोचा वहीं चला जाता हूँ और वो चल पड़ा मन्दिर की ओर,मंदिर पहुँचा तो उसने देखा कि दो बच्चे खेल रहें हैं वो वहीं बैठकर उन्हें खेलते हुए देखने लगा।
तभी मन्दिर से दर्शन करते हुए दो औरतें बाहर निकलीं और दोनों बच्चे अपनी माँ के पास जाकर प्रसाद का लड्डू माँगने लगें,उन बच्चों की माँ बोली.....
घर चल कर दूँगीं,नहीं तो तुम दोनों सारा प्रसाद जमीन पर फैला दोगें।।
बच्चे जिद़ करने लगें कि अभी खाना है,तभी वो दूसरी बुजुर्ग महिला बोल पड़ी....
दे दे ना सरगम! बच्चों को प्रसाद ,क्यों सताती है इन्हें,प्रसाद जमीन पर गिर भी गया तो ये तो बच्चे हैं इनकी भूल चूक तो भगवान भी माँफ कर देते हैं.....
उस बूढ़ी औरत के मुँह से जब कमलेश्वर ने सरगम नाम सुना तो सदमें में पड़ गया,वो सब घर को चल पड़े तो कमलेश्वर भी उनका पीछा करने लगा,वो यही सोच रहा था कि कहीं ये उसकी बचपन वाली सरगम तो नहीं......

क्रमशः...
सरोज वर्मा....