Sattva, Raja and Tama books and stories free download online pdf in Hindi

सत्त्व, रज और तम

सत्त्व, रज और तम

गुण :- गुण का अर्थ होता है अनुकूलता अर्थात् जिसमें कर्ता का या धारण करने वाले का हित निहित होता हैं। कर्ता की धारण करने वाले का हित अर्थात् संतुष्टि निहित होती हैं। संतुष्टि से तात्पर्य हैं उचितानुकूल कामनाओं की पूर्ति की फलितता। यदि यथार्थ दृष्टिकोण से देखा जायें तो अनंत में जो भी है, जैसा भी है उचित है अर्थात् सभी के लिये अनुकूल हैं। कुछ अच्छा नहीं, बुरा भी नहीं, आकर्षक नहीं हैं और घृणित भी नहीं हैं, सुंदर तथा कुरूप, ज्ञान तथा अज्ञान आदि नहीं हैं अतः समता ही अनंत की वास्तविकता थी, है और निः संदेह यही अनंत की वास्तविकता अनंत काल तक रहेंगी इसलिये संसार क्या अपितु अनंत में जो भी हैं, जैसा है और जैसा अनादि काल तक या अनंत तक रहेगा; सभी के लिये गुण अर्थात् अनुकूल शब्द उपयोग किया गया हैं क्योंकि अनंत की वास्तविकता या यथार्थता समता हैं, जो कि भिन्नता से बहुत परें हैं। वास्तविकता के आधार पर केवल गुण हैं, जो आपको दोष प्रतीत होंगे उनके लिये भी गुण शब्द का प्रयोग हैं। गुण और अवगुण दोनों पूर्णतः समान हैं; जो हैं वह न गुण हैं न ही अवगुण या दोष "केवल समता हैं"।

सत्, रज् और तम इन तीनों में ही संसार क्या अपितु समुचे अनंत के ज्ञान की समाहितता हैं। वेद अर्थात् समुचे ज्ञान की अभिव्यक्ति हैं सत्, रज् और तम। सत, रज् और तम का सार ही वेदांत हैं। इनके महत्व का ज्ञान करके इनके परे हो जाने से ही परमात्मा को ज्ञात कर लेना हैं और परमात्मा को ज्ञात कर लेना अर्थात् परमात्मा को प्राप्त कर लेना हैं।

सत्त्व गुण:- जिस गुण या जिन गुणों की फलितता सत्य के ज्ञान के परिणाम स्वरूप होती है, वह होता हैं या होते हैं सात्विक गुण। इन गुणों की सहितता जिन व्यक्ति वस्तु या स्थान से लेकर अनंत के अधिकांश भाग में होती हैं, वह व्यक्ति, वस्तु या स्थान या अनंत का अधिकांश भाग अर्थात् आत्म ऊर्जा का भाग परम् या सर्वश्रेष्ठ होने से परमात्मा की ऊर्जा के परिणाम स्वरूप हैं। सात्विक गुणों की फलितता जिन आत्माओं के तंत्र में होती हैं वह आत्मायें जिज्ञासा वश ज्ञात करने के परिणाम स्वरूप, ज्ञान के होने से इन गुणों को धारण करती हैं। यह आत्मायें मनन या चिंतन करने वाली अर्थत् मुनि या चिंतक होती हैं अतः सात्विक गुणों या अनुकूलताओं का समावेश इनके मनन या आत्म चिंतन/मंथन का परिणाम होता हैं। सर्वश्रेष्ठ आत्माओं के तंत्र वाली आत्मायें साधू अर्थात् सत्य के मार्ग को ज्ञान के मूल स्रोत चिंतन या अन्य ज्ञान प्राप्ति के साधन अर्थात् ज्ञान की अभिव्यक्ति के माध्यम् से खोज कर उस पर चलने वाली तथा संत अर्थात् सत्य के मार्ग को खोज कर तथा उस उर चल कर; उन साधु-संत आत्माओं का अनुगमन करने वाली आत्मयों को जो सत्य मार्ग की पथिक बन साधु, संत, ऋषि, मुनि, योगी, सन्यासी या वैरागी तथा सांसारिक बन कर परम् या सर्वश्रेष्ठ अर्थ की पूर्ति के इच्छुक हैं वह संत होती हैं। योगी अर्थात् अपनी अज्ञानी आत्मा को ज्ञानी परम् या सर्वश्रेष्ठ आत्मा बनने के ज्ञान से जोड़ने वाली तथा संसार की क्षण भंगुरता को; अपने अनुभव के आधार पर इसकी वास्तविकता को समझने से स्वीकार करने वाली, वैराग्य या संन्यास के महत्व को समझने वाली होती है तथा संसार, माया या अज्ञानता की महत्वपूर्णता को समझ परम् सांसारिक होती हैं। यह आत्मायें परम् सात्विकता अर्थात् चैतन्य में स्थिर रह कर सात्विक, तामसिक तथा राजसिक सभी गुणों से परे होने के साथ इनको महत्व भी देने वाली निराकार, निर्गुण तथा साकार सभी गुणों वाली परम् या सर्वश्रेष्ठ आत्मा भी होती हैं। इन सात्विक गुणों को धारण करने वाले वेदों के अर्थात् अनंत के समूचे ज्ञान की करी गयी अभिव्यक्ति से ज्ञान प्राप्त करने वाले ऋषि भी होते हैं।

सत् गुणी या सात्विक गुणों की सहितता वाली आत्मायें अनंत में थी, हैं और अनंत काल तक रहेगीं क्योंकि यह आत्मायें परमात्मा या सर्वश्रेष्ठ आत्मयों के तंत्र की अर्थ पूर्ति अनंत को अपने कर्मों से सात्विकता के महत्व को स्पष्ट करके सत्य के पथ पर चल कर ही परम् या सर्वश्रेष्ठ अर्थ की सही मायनों में पूर्ति हैं यह बताकर करती हैं अतः सात्विकता इस आधार पर अनंत के अनुकूल हैं।

रजो गुण :- जिस गुण या जिन गुणों की फलितता सत्य मार्ग पर रहने से; उचित या अनुचित कामनाओं की पूर्ति होने के लोभ के कारण होती हैं वह राजसिक गुण होते हैं। यदि कर्ता की कामना उचितानुकूल हुयी; तो उनकी पूर्ति से मिलने वाली क्षणिक संतुष्टि के अनुभव को कर्ता सुख समझता हैं और यदि कामनायें अनुचित हुयी तो उनकी पूर्ति न होने से मिलने वाली अथाह असन्तुष्टि को कर्ता दुःख समझता हैं। कामनायें जिनके लोभ से राजस गुणों की फलितता होती हैं। इन गुणों की सहितता जिनमें होती हैं वह अनंत का भाग या आत्म उर्जायें, जड़ वस्तुयें किसी भी रूप में क्यों न हो देव, दानव या मनुष्य तुल्य हो सकते हैं और यह आत्म ऊर्जा से बने तंत्र जड़, चेतन अपनी सभी कामनाओं की पूर्ति की कामना हेतु धारण करती हैं और कामनाओं का कभी अंत नहीं होने से सदैव असंतुष्ट रहती हैं यदि यह आत्म ऊर्जा में स्थिर नहीं हो तो। यह आत्मायें सुख-दुख, पाप-पुण्य, मोह-माया, सम्मान-अपमान, शांति-अशांति आदि के अधीन होती हैं। समस्त नाशवान संसार रजोगुणी ही हैं और यह अनुकूल हैं क्योंकि यह रजो गुण को धारण करने के महत्व से इन्हें धारण करके सभी को भिग्य करवाता हैं।

तमो गुण :- जिस गुण या जिन गुणों की फलितता सही मायनों में सत्य से अज्ञानता के परिणाम स्वरूप होती हैं, वह तमस्, तम, तमो या तामसिक गुण होता या होते हैं। सत्य के अज्ञान से जब कर्ता; स्वार्थ पूर्ति को ही प्राथमिकता देता हैं, परोपकार या दूसरों के अर्थ की पूर्ति उस हेतु, तब व्यर्थता का पर्याय ही रहता हैं। यह स्पष्ट करता हैं कि कर्ता; स्वयं सही मायनों में कर्ता कहाँ? वह तमो गुण की प्रधानता वाला होने से, उसका तम कर्ता; उसकी जीवआत्मा तम के अधीन हैं। तम की प्रधानता हुयी तो क्या? तत्पश्चात भी वह अनंत हेतु अनुकूल है; क्योंकि! अज्ञानता के मार्ग का वह पथिक; अन्य आत्माओं के लिये, अज्ञानता के पथ पर चल करके, अज्ञानता की अनुचित्ता स्पष्ट करके अन्य सभी आत्माओं के लिये सत्य के पथ पर चल करके जो मिलता हैं; असत्य का पथिक बनने से कहाँ मिलता हैं, इसकी स्पष्टता का माध्यम् हैं। तमो गुण के महत्व के ज्ञान के परिणाम स्वरूप ही कुछ सर्वश्रेष्ठ आत्मा स्वेच्छा से; पूर्णतः होश की प्रधानता के पश्चात भी इसे महत्व देती हैं उदाहरण हेतु स्वयं परम् ईश्वर श्री विष्णु होश पुर्वक अपने ही अंश; जय तथा विजय के माध्यम् से तमो गुण को धारण करके उन्हें महत्व देते हैं और रुद्र स्वयं होश पूर्वक अपने ही अंश जलंधर और अंधक आदि के माध्यम् से तमोगुण को महत्व देने वाले हैं; परम् पिता श्री ब्रह्मा भी अपने की माध्यम् से एक बार और अन्य कयी माध्यम् से कयी बार तमोगुण "अहम" को और अन्य तमोगुणो को धारण करके तमोगुण को महत्व दें चुके हैं।

त्रिदेव भले ही अलग-अलग गुणों को महत्व देते प्रतीत होते हैं। ब्रह्मा रजोगुणों को, विष्णु सत्त्व गुण को और परम् शिव तमोगुणो को परंतु तीनों ही मूर्तियाँ सभी के महत्व से भिज्ञ होने के परिणाम स्वरूप सभी को महत्त्व देती हैं अतः तीनों के आधार पर महत्वपूर्ण हैं। पूर्णतः समान यानी एक ही हैं। यह तीनों ही गुण त्रिदेवाधीन हैं। यह सभी को उचित होने पर बिना किसी की अधीनता के, इनके महत्व की भिज्ञता के कारण; महत्व देते हैं।

© - रुद्र एस. शर्मा