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स्वीकृति - 9

स्वीकृति 9

श्रीकांत के कमरे से निकल कर विनीता किचन में रात के खाने की तैयारी में जुट जाती है परंतु उसका मन श्रीकांत की स्थिति को लेकर चिंतित था वह उसकी स्थिति के विषय में रमन से चर्चा करने की सोचती है तभी उसके कानों में उसकी बहन मीनाक्षी की आवाज सुनाई देती है. मीनाक्षी दौड़ती हुई आकर विनीता से लिपट जाती है. दोनों बहनें काफी समय बाद मिल रही थी इसलिए दोनों के ही आंखें नम हो गयी थी तभी रमन जो कि मीनाक्षी के ठीक पीछे खड़ा था , उसने दोनों हाथों में दो बड़े सूटकेस उठाए हुए थे . दोनों बहनों को इस तरह भावुक होता देख , माहौल को हल्का करने के इरादे से बोल पड़ता है.. ,"जरा इस गरीब पर भी कोई ध्यान दें...यह कुली कब से समान पकड़े खड़ा है ...", रमन ने जिस अंदाज में यह बातें कही थी उससे दोनों बहनों की हंसी छूट पड़ती है. और फिर वह दोनों सूटकेस जमीन पर रखते हुए कहता है, "भाभी , मैं अब जाना चाहूंगा.. "

"अरे इतनी जल्दी भी क्या है! श्रीकांत से तो तुम मिल भी नहीं पाए , तुम उसी से तो मिलने आए थे और मैंने आते ही तुम्हें स्टेशन भेज दिया अब आए हो तो उससे मिल कर जाओ तुम पिछले कई दिनों से शहर से बाहर थे और इस बीच ....." इसके आगे कुछ कहते कहते विनीता एकदम से रुक जाती है.

"नहीं भाभी आज मैं उससे नहीं मिल सकूंगा वैसे भी आज बहुत देर हो चुकी है मैंने एक पेशेंट को टाइम दे रखा है.. " रमन ने अपनी मजबूरी समझानी चाही.

"लेकिन तुम्हारे जैसे मनोचिकित्सक की जरूरत अभी तुम्हारे दोस्त को है ... जाने से पहले यदि तुम्हारे पास पांच मिनट का भी समय हो तो एक बार उसे देख कर जाना ..उसकी स्थिति तुम खुद समझ जाओगे ..", विनीता ने आग्रह के स्वर में यह बातें कही थी परंतु उसके चेहरे पर चिंता की स्पष्ट लकीरें खींच आयी थी, विनीता श्रीकांत के विषय में जो भी कुछ कहना चाह रही थी .., उसकी वह फिक्र, उसकी वह चिंता उसकी आँखों में वह सभी कुछ साफ साफ नजर आ रहा था. रमन समझ जाता है कि उसके दोस्त की स्थिति शायद बेहद नाजुक है और वह स्वयं को श्रीकांत के कमरे में जाने से रोक नहीं पाता है.

रमन श्रीकांत के कमरे में आता है कमरे का दरवाजा खुला हुआ था और श्रीकांत बेड पर रखे एक सूटकेस में कुछ जरुरी पेपर और कपड़े रख रहा था, अचानक रमन को अपने सामने खड़ा पाकर चौंक पड़ता है परंतु अपने चेहरे के भाव को छुपाने की कोशिश में रमन से शिकायत भरे अंदाज में पुछता है.., "आज इतने दिनों बाद इस दोस्त की याद कैसे आ गयी.! "

"बताया तो था कि मैं कुछ दिनों के लिए शहर से बाहर जा रहा हूं.. मेरे लिए वह सेमिनार इतना जरूरी नहीं होता तो मैं बिलकुल भी नहीं जाता और वह भी तब जबकि तुम्हें मेरे.....खैर, छोडो़ इन बातों को पहले यह बताओ कि क्या तुम कहीं जाने वाले हो? यह समान किस लिए पैक कर रहे हो! " रमन ने आश्चर्य से श्रीकांत की ओर देखा

"हां ...,वह...,एक जरुरी काम आ गया है .. एक दो दिन में वापस आ जाऊंगा " , श्रीकांत ने अनमने ढंग से उत्तर दिया."

"घर में इस विषय में किसी को कुछ बताया नहीं ...बेकार में ही सभी चिंता करने लगेंगे.., दो दिन में वापस आ जाउंगा फिर तो सब को सभी कुछ मालूम हो जाएगा...,

तुम बताओ तुम्हारा सेमिनार कैसा रहा...? श्रीकांत ने अचानक से बात बदलने की कोशिश की.

"तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न! तुम कुछ बदले बदले से लग रहे हो," रमन ने श्रीकांत के द्वारा किए गए सवाल के उत्तर में गंभीर होते हुए पूछा .

"मेरी तबीयत को क्या हुआ है..! श्रीकांत ने सूटकेस को बंद करते हुए कहा

वैसे मुझे थोड़ी देरी हो रही है..मुझे अभी ही निकलना होगा.मैं सभी कुछ तुम्हें वापस आकर बताऊंगा. वैसे, तुम से रिक्वेस्ट है कि मेरे बाहर जाने की बात किसी को घर पर मत बताना ...मैं खुद फोन पर उन्हें सभी कुछ समझा दूंगा. .. "

घर के बाहर टैक्सी खड़ी थी जिस में बैठकर श्रीकांत निकल जाता है. रास्ते में उसे किसी अजनबी का कॉल आता है और फिर वह बताए गए रास्ते को ड्राइवर को समझाते हुए चलने को कहता है.

इधर ताराचंद के मोबाइल पर किसी का मैसेज आता है ' DONE'

और मैसेज पढ़कर ताराचंद के चेहरे पर एक विषैली मुस्कान उतर आती है.

सुष्मिता किसी प्रकार संदीप के ऑफिस पहुंचती है जहां उसे संदीप के नौकरी से निकाले जाने की बात पता चलती है उसे यह जानकारी हासिल होती है कि संदीप पिछले 14 दिनों से ऑफिस नहीं आ रहा था...,उसे नौकरी से निकाला जा चुका था.

"यानि पिछले कई दिनों से संदीप उससे झूठ बोल रहा था..वह तो हररोज उससे यही कह कर सुबह सुबह घर से निकल जाता था कि वह आफिस जा रहा है और फिर लौटता भी देरी से ही था ...., उसने कितने बार उसके देरी से घर लौटने पर सवाल किया था परंतु उसने यह कहकर उसे समझाने की कोशिश की थी कि आफिस में काम बहुत रहता है तो कभी कुछ और बहाना बना दिया करता था और वह बेवकूफ बड़ी आसानी से उसके हर बात को सच मानती चली आ रही थी.. कहीं उसने संदीप पर इतना ज्यादा भरोसा कर कोई गलती तो नहीं कर दी...! कहीं संदीप को समझने में उससे कोई भुल तो नहीं हो गयी.. ! .. नहीं ..नहीं.. ऐसा नहीं हो सकता...वह उसे धोखा नहीं दे सकता...! संदीप तो उस पर अपनी जान छिड़कता है.. वह तो खुद से भी ज्यादा उसे चाहता है.. उसे प्यार करता है.. सच्चा प्यार...! हां, वह उसे सच्चे दिल से चाहता है... वह उसपर संदेह नहीं कर सकती.. उसपर संदेह यानि अपने प्यार पर संदेह.. उसने तो उसे सच्चे दिल से चाहा है उसकी चाहत झूठी नहीं हो सकती है.....जरूर उसकी कोई मजबूरी रही होगी.. शायद वह उसे दुखी नहीं करना चाहता था इसलिए उसने... लेकिन इतनें दिनों से वह अकेले ही सभी कुछ सहता आ रहा था... क्या वह उसे इस लायक भी नहीं समझता था कि अपनी परेशानी उससे बता सके... आखिर क्यों... क्यों तुमने मुझसे ये सारी बातें छुपायी ... क्यों इतनें दिनों तक झूठ बोलते रहे....!

यदि संदीप इतने दिनों से आफिस नहीं जा रहा था तो फिर सारे दिन कहाँ रहता था?...यहां तो उसका अपना कोई नहीं है उसने तो यही बताया था.."

इस वक्त सुष्मिता का मन द्वन्द की उस भूमि में तब्दील हो गया था, जिसमें संदेह, प्रेम, चिंता, भय, शिकायत रूपी अलग अलग तरह के भाव आपस में ही टकरा रहे थे और जिसके भंवर में फंसी हुई सुष्मिता पल भर के लिए यह भूल गयी थी कि वह अभी दिल्ली के जिस सड़क पर चल रही हैं वह उसके लिए बिल्कुल अनजान है . वह किस रास्ते पर चल रही है....आगे कहां जाना है ...उसका उसे जरा भी ध्यान नही रहता वह उस रास्ते पर अकेली ही बढती चली जा रही थी कि अचानक उसे अपने पिछे किसी के चलने का आभास हुआ उसे लगा जैसे उसके ठीक पीछे कोई उसीके गति से उसके पीछे पीछे आ रहा हो. कोई उसका पीछा कर रहा था.. उसने अपने आस पास..,अपने चारों तरफ एक नज़र उठा कर देखा ...चारों तरफ चहल पहल थी लोग आ जा रहे थे . सड़क के किनारे कई दुकानें खुली हुयी थी जिनमें लोगों की भीड़ जुटी थी. वह बिना किसी घबराहट के आगे चलती जाती हैं ताकि पिछा कर रहे उस शख्स को कोई शक न हो और उसे यह लगे कि वह इस बात से अनजान है कि उसका कोई पिछा कर रहा है. एक बार उसने पलट कर उस शख्स का चेहरा देखना चाहा था परंतु जाने क्या सोच कर उसने ऐसा नहीं किया. वह शांति के साथ बिना घबराए चलती हुयी अचानक किसी भीड़भाड़ वाले दुकान में घुस जाती है. उसका पीछा कर रहा वह व्यक्ति भी उसी दुकान के बाहर रुक जाता है परंतु उसकी नजर सुष्मिता पर ही जमी रहती है..

इधर संदीप पार्क से निकलकर घर जाने के लिए सड़क के किनारे ऑटो रिक्शा के प्रतिक्षा में खड़ा था कि उसे किसी ने पिछे से आवाज लगायी वह पिछे मुड़ कर देखता है तो सफेद कमीज़ और नीले रंग की पैंट पहने निरंजन खड़ा था वह उसके बिलकुल पास आकर बोला, "काफी दिनों से मैं तुम्हें ढुढ़ रहा था.. कितने बार मैंने तुम्हारे नम्बर पर काॅल किया.. तुमसे संपर्क साधना चाहा.. लेकिन तुम्हारा तो फोन ही स्विच आफ रहता था.. खैर ,यह सब छोड़ो और पहले यह बताओ कि तुम्हें नौकरी मिली कि नहीं .... "

"नहीं मिली...!” संदीप ने बुझे हुए स्वर में जवाब दिया.

क्रमशः

गायत्री ठाकुर