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स्वीकृति - 11

स्वीकृति 11


सुष्मिता को जल्द ही याद आ जाता है कि दुकान के बाहर जो शख्स खड़ा है उसे उसने पहले कहाँ देखा था . उसने उसे अपने पिता के उसी कमरे में एक बार देखा था , जिस कमरे में उसे या किसी अन्य को, यहां तक कि उसकी मां को भी बिना उसके पिता की अनुमति के अन्दर जाने की इजाजत नहीं थी . वह कमरा उसके पिता का खास कमरा था या फिर यों कहें कि ताराचंद सारे गोपनीय काम उसी कमरे से करता था . उसके पिता उस वक्त गुस्से में किसी शख्स पर बड़े ही उच्च स्वर में चिल्ला रहे थे तब अचानक ही सुष्मिता उस कमरे के बाहर पहुंच गयी थी दरवाजा सिर्फ बाहर से सटा हुआ था , उसने डरते हुए दरवाजे के फाक से अन्दर झांकने की कोशिश की थी और उस समय भी उसकी नजर अन्दर खड़े उस अजनबी शख्स के‌ हाथों पर जाकर टिक गयी थी. बड़े ही विचित्र तरह के अंगुठी उसने पहन रखे थे खासकर उसके अंगूठे की वह लाल पत्थर वाली अंगुठी उसकी तस्वीर जैसे सुष्मिता के मस्तिष्क में छप सी गयी थी और अब दुकान के बाहर खड़ा यह शख्स बिल्कुल वैसी ही अंगुठी.. ‌अतः सुष्मिता को यह समझने में जरा भी देर नहीं लगी कि बाहर खड़ा वह व्यक्ति उसके पिता का खास आदमी है जिसे उसके पिता ने ही भेजा है और उनके मंसूबे बिल्कुल भी सही नहीं है.. तों उसके हेमंत भैया ने जिस बात के लिए उसे सचेत किया था वह सच है... नहीं.. नहीं.., उसके पिता उसके साथ ऐसा नहीं कर सकते .. आखिर वह उनकी इकलौती संतान है .. वह अपनी ही बेटी की जान लेने की कैसे सोच सकते हैं..!


एक अज्ञात डर से वह कांप उठती है, यह डर उसके पूरे बदन में सिहरन पैदा कर देता है.


"कहिए क्या दिखाऊं आपको? मेरे यहां हर ‌प्रकार के ड्रेसेज है ..., आपको क्या चाहिए?" दुकानदार ने काफी देर से चुपचाप खड़ी सुष्मिता की ओर मुखातिब होते हुए पूछा.


"न..न.. नहीं..ह..ह.. हां..,स..स.. साड़ी.., हां आप मुझे साड़ी दिखाइए ..." इस अप्रत्याशित सवाल पर वह हड़बड़ा सी गयी और इसी हड़बड़ाहट और घबराहट में अपने चेहरे से पसीने को पोछते हुए उसने उत्तर दिया.


" साड़ी के लिए आपको उपर के सेक्सन में जाना होगा। वो वहां उस सीढ़ी से " दुकानदार ने सामने की ओर इशारा करते हुए कहा .


सुष्मिता को इस वक्त ऐसे ही किसी सुरक्षित जगह की तलाश थी जहां पर वह कुछ देर के लिए ही सही खुद को उस व्यक्ति के नजरों से ओझल रख सके और वहां से किसी भी तरह बच निकलने के उपाय ढुंढ सकें सीढियां चढ़ते हुए वह एकबार फिर से पिछे मुडकर बाहर की ओर देखती है बाहर खड़ा वह शख्स अभी भी फोन पर किसी से बातें करने में व्यस्त था , नजरें बचाते हुए सुष्मिता साड़ी वाले सेक्शन में आ बैठती है .


"बताइए किस तरह की साड़ी दिखाऊं आपको ? " सेल्स मैन ने सुष्मिता को बैठने का इशारा करते हुए पूछा.

"सिल्क की साड़ी दिखाइए"

" किस कलर में"

" वो सामने .., पिंक..पिंक वाली"


"अरे , रघु भाई ! कैसे आना हुआ .. आइए .. आइए.., अन्दर आ जाइए !


"बहुत दिनों बाद ...,क ‌ .. कहिए क्या ‌सेवा करु .."

"कहो सब ठीक ठाक "!


हां.. हां भाई सब आपकी मेहरबानी!


"अरे भाई के लिए कुर्सी लाओ‌ "

सुष्मिता ने नीचे की ओर झांक कर देखा.., जिस ख़तरे से बचने की कोशिश में वह यहां इस दुकान में शरण लिए थी वह खतरा अब उसके बेहद करीब आ पहुंचा था.वह शख्स जिस से बचकर वह इस दुकान में आयी थी वही शख्स इस दुकान के मालिक का परीचित निकला और सिर्फ परीचित ही नहीं बल्कि उनके बातचीत से तो ऐसा लगता था जैसे दुकान मालिक उसके एहसान के बोझ तले दबा हुआ था , या फिर उसके खौंफ का असर था कि दुकान मालिक खुद ही उसके आवभगत में लग गया था. सुष्मिता के पैरों तले जमीन खिसक गई. उसे लगा जैसे उसके वहां से भाग निकलने के सारे रास्ते बंद हो चुके है . उसे अचानक एहसास हुआ कि वह वहां अकेली है , वह जब वहां उस साड़ी वाले सेक्शन में पहुंची थी तब वहां पर उसके अतिरिक्त एक और महिला ग्राहक थी परन्तु अभी थोड़ी देर पहले ही वह वहां से निकल चुकी थी और नीचे भी इक्के-दुक्के ग्राहक थे जो अब शायद निकलने ही वाले थे . उसने सामने टंगी दिवाल घड़ी पर नज़र दौड़ाई रात के साढ़े नौ बज रहे थे अचानक उसे कुछ ध्यान आया , उसने अपने पर्स को टटोला . अरे ये क्या ! मोबाइल तो वह शायद नीचे ही छोड़ आयी .. शायद रिसेप्शन पर, हां बिल्कुल , घबराहट में उसे ध्यान ही नहीं रहा..


" यह पिंक पर मैरून रंग के बार्डर वाली साड़ी आप पर खुब फबेगा .." सेल्स मैन ने सुष्मिता की ओर ‌साड़ी को फैला दिया .


तभी एक व्यक्ति सेल्स मैन को अपनी ओर बुलाकर धिरे से उसके कान में कुछ कहता है जिसे सुनने के बाद वह कुछ गम्भीर नजरों से सुष्मिता की ओर देखता है और फिर उसी व्यक्ति के साथ नीचे चला जाता है .. सुष्मिता समझ जाती है कि वो बात उसी से संबंधित थी . उसने वापस नीचे की ओर झांका अभी भी एक दो ग्राहक मौजूद थे . दुकान से बाहर निकल जाने का यही सही वक्त था . वह एक झटके में अपने पर्स को उठाती हुई उठती है और तेज कदमों से सीढियां उतरती हुई सीधे दुकान से बाहर निकल आतीं हैं . और वह तेज चलती हुई किसी टैक्सी या आटो रिक्शा की तलाश में आगे बढ़ती जाती है तभी उसे सामने से एक टैक्सी आती दिखाई पड़ती है वह इशारे से उसे रोकने ही वाली थी कि अचानक वह ‌टैक्सी उसके पास ही आकर रुकती है और वह हड़बड़ाहट में उस टैक्सी में जा बैठती हैं


संदीप निरंजन के साथ टैक्सी में बैठ कर लाजपत नगर के लिए चल तो देता है परंतु उसके मन में काम को लेकर अभी भी अस्पष्टता बरकरार थी , उसके समझ में ‌अभी तक यह बात नहीं आयी थी कि आखिर निरंजन ने उसके समक्ष किस तरह ‌के काम को करने का प्रस्ताव रखा है और ऐसा कौन-सा काम है जिसे करने के लिए किसी अपॉइंटमेंट की भी जरूरत नहीं और काम के बदले मोटी रकम .. खैर , काम जो भी है लेकिन एक बात तो तय थी कि वह काम गलत या गैर कानूनी तो जरूर था .. अगर इस वक्त इतना मजबूर न होता तो ऐसे किसी भी काम को करने से वह साफ इन्कार कर देता परंतु अब वह अपने हालात से लड़ते-लड़ते बिल्कुल लाचार हो गया था .. काम के तलाश में ‌वह न जाने कहां कहां न भटका था लेकिन हर जगह उसे निराशा ही मिली उसकी सारी डिग्रियां .., उसकी काबिलियत सभी कुछ उसे बेमानी लगने लगी थी .. बिना कारण बताए उसे नौकरी से निकाल दिया गया था बेरोजगारी का यह डंक .., यह विष सिर्फ उसके जीवन का ही यथार्थ नहीं था ‌उसके जैसे कितने ही ऐसे ‌शिक्षित युवा थे ‌ जो ‌ इस वक्त इस हकीकत को झेलने के लिए मजबूर थे निरंजन भी तो उन्हीं में से एक था परन्तु इसने न जाने कैसे इससे निजात पा लिया था न जाने कौन सा रास्ता चुन लिया था और अब संदीप को भी उसी रास्ते.., संदीप को खुद से ज्यादा सुष्मिता की चिंता सता रही थी सुष्मिता को उन असुविधाओं की आदत नहीं थी .. अकेले तो वह अपनी जिंदगी किसी प्रकार भी काट लेता लेकिन सुष्मिता एशो-आराम में पली-बढ़ी थी , उसे भला वह कैसे अपने साथ ऐसे कष्टों .. ऐसे तकलीफों का भागीदार बना सकता था .. उसके पास तो अगले दिन के खर्चे के लिए भी पैसे नहीं बचे थे अतः इस बात का एहसास होते हुए भी कि काम जो भी है वह शायद गलत ही होगा वह बिना किसी एतराज के उसके साथ चल पड़ा था . उसने अपना मोबाइल ऑन किया रात 9:45 बज रहे थे उसे ध्यान आया कि लौटने में शायद उसे काफी वक्त लग सकता है अतः वह सुष्मिता को कॉल करता है परंतु दूसरी तरफ से कोई उत्तर न पाकर एक वॉइस मैसेज छोड़ देता है कि वह लाजपत नगर जा रहा है ऑफिस के काम के सिलसिले में लौटने में काफी देर हो सकती है.. निरंजन एक हल्की सी मुस्कान छोड़ते हुए संदीप की ओर देख कर पूछता है , "तुमने शादी कब की ?"

" एक लंबी कहानी है..! फिर कभी फुर्सत में बताऊंगा"

" कहीं यह वही लड़की तो नहीं जिसके लिए तुम भागे भागे लखनऊ गए थे .., जहां तक मुझे याद है ,वह शायद किसी एक बड़े बिजनेसमैन की बेटी..., अरे , लेकिन उस लड़की की तो शादी हो गई थी. ..,"


" मैंने कहा न कि सारी बातें ...,सभी कुछ तुम्हें बता दूंगा! परंतु अभी ‌नही ... " निरंजन की बातों से संदीप चिढ़ने लगा था अतः बेहद गुस्से में ‌उसने यह बात कही.


निरंजन यह बिल्कुल भी नहीं चाहता था कि संदीप उसके किसी भी बात से इस वक्त नाराज हो जाए और उसके सब किए कराए पर पानी फेर जाए अतः उसने अपने व्यर्थ की जिज्ञासाओं पर ब्रेक लगाने में ही अपनी भलाई समझी.


कुछ देर तक उन दोनों के बीच खामोशी छाई रहती है उनके बीच कोई बातचीत नहीं होती .


थोड़ी देर बाद निरंजन के फोन पर किसी का कॉल आता है. काॅल करने वाले के तरफ़ से उसे बताया जाता है कि कुछ जरुरी कारण से लोकेशन में बदलाव किया गया है अब उसे लड़के को लाजपत नगर नहीं बल्कि उसे शहर से बाहर किसी आउट हाउस में भेजना है .


" लेकिन थोड़ी ही देर में हम लाजपत नगर पहुंच रहे हैं .., बल्कि पहुंच चुके है ... लोकेशन चेंज किया गया यह बात आपने पहले क्यों नहीं बताया.., बहुत मुश्किल से मैंने..., खैर , जो हो अब .., आपके बताए गए लोकेशन पर भेजने के लिए आपको डबल चार्ज देने होंगे.. जो भी पैसे तय हुए थे उसके डबल देने होंगे ."


" डबल चार्ज ‌क्यों ? सिर्फ लोकेशन ही तो हमने ‌चेंज किया है बाकी समय सीमा तो वहीं है .."


"एक तो ‌आपने अचानक लोकेशन चेंज कर दिया .., दुसरे आज मार्केट में डिमांड बहुत है .. तो चार्ज तो डबल लगेंगे ही .."


"और आपने भी तो जिस लड़के को ‌तय किया था उसके जगह किसी और को भेज रहे हो.."


" वह लड़का अचानक गांव चला गया है.. आप बात समझने की कोशिश कीजिए.. और जिस लड़के को मैं भेज रहा हूं उससे कहीं ज्यादा अच्छा है थोड़ी देर पहले ही मैंने आपको इसके तस्वीर भेजे हैं अब आप खुद इसकी कीमत बता दीजिए.., ठीक है मैं लड़के को लेकर पहुंच रहा हूं.'


अब संदीप को यह बात समझने में जरा सी भी दिक्कत नहीं हुई कि आखिर वह कौन सा काम है जिसके लिए उसे यहां लाया गया है उसने चाहा कि वह फौरन निरंजन को मना कर दे कि वह यह काम बिल्कुल भी नहीं कर सकता है , उसका अंतरात्मा इस काम को करने के लिए उसे बिल्कुल भी इजाजत नहीं देगा परन्तु अगले ही पल उसका जुबान जब्त हो गया हो जैसे ..., जैसे कि उसके जुबान पर किसी ने ताले जड़ दिए हों और यह ताला उसके उस मजबूरी .., उस लाचारी ..बेबसी ने जड़ दिए थे और यह लाचारी उसके बेरोजगारी से त्रस्त जिंदगी की ही तो देन थी .. अपने हालात से लड़ते-लड़ते वह ‌अब इस कदर थक चुका था .. इतना निराश हो चुका था कि वह ‌ अपने अंतरात्मा कि आवाज को‌ भी अनसुनी कर देने‌ में कोई गुरेज नहीं किया वह पैसे के लिए जिगोलो बनने को तैयार हो जाता है वह निरंजन के साथ उस आऊट हाऊस के लिए चुपचाप चल देता है.


गायत्री ठाकुर क्रमशः