PAANIGRAHAN SANSKAR - BADALTA स्वरुप books and stories free download online pdf in Hindi

पाणिग्रहण संस्कार-बदलता स्वरुप

पाणिग्रहण संस्कार के बाद पुरुष तथा स्त्री समाज के समक्ष युगल रूप में रह सकते हैं। यह सामाजिक स्वीकृति के साथ जीवन-यापन करने की व्यवस्था है। यह व्यवस्था सभ्यता के विकास के साथ अस्तित्व में आई होगी। हो सकता है कि पहले यह व्यवस्था किसी अन्य रूप में हो। हो सकता है कि पशुओं की तरह मानव भी अपनी शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति स्वतंत्र रूप से करता हो। पता चलता है कि उद्दालक ऋषि के पुत्र श्वेतकेतु ने विवाह की संस्था का श्रीगणेश किया था। उन्हें ऐसा लगा था कि पुरुष पुत्र-प्राप्ति के लिए किसी भी स्त्री का चयन कर सकता है किन्तु इससे होनेवाले सन्तान को मातृ-सुख प्राप्त नहीं हो पाता है। एक पुरुष के साथ एक स्त्री की जीवनपर्यन्त रहने की व्यवस्था नहीं थी। धीरे-धीरे, समय के साथ, पाणिग्रहण संस्कार में अनेक स्वरूप धारण कर लिए। सभ्यता के विकास के क्रम में स्त्री-पुरुष सृष्टि के पञ्च महाभूतों में से किसी की भी साक्षी से विवाह कर लेते थे। वास्तव में, इसमें अग्नि की साक्षी ही प्रधान दिखाई पड़ती है। मन्दिर और गिरजाघरों में भी विवाह होते हैं। इस कारण सन्तान को पहचान मिलने लग गई। समय के साथ विभिन्न कानून बने और सन्तान तक इनका लाभ भी पहुंचने लगा। विवाह करने और उम्र भर साथ बनाए रखने में बड़ा अन्तर है। साथ ही क्यों, उम्र भर एक-दूसरे के साथ जुड़ाव भी बना रहे, यह भी आवश्यक है। जुड़ाव की शुरुआत शरीर से होती है और लक्ष्य सन्तान प्राप्ति है। कौन दो प्राणी जुड़ेंगे, इसके पीछे होता है ऋणानुबन्ध। पाणिग्रहण संस्कार 'सात जन्मों का बन्धन है', ऐसा इसीलिए कहा जाता क्योंकि दोनों के बीच ऋणों का रिश्ता होता है। व्यक्ति की पितृ-मुक्ति भी सात जन्म के बाद ही होती है। ऋणानुबन्ध ही तय करता है कि कौन पति-पत्नी बनेंगे। कितने समय साथ रहेंगे और कौन अन्य जीव के साथ विवाहेतर सम्बन्ध स्थापित करेंगे। पिछले जन्म में जिन-जिन जीवों के साथ दैहिक सम्बन्ध रहे थे, उनको इस जन्म में भी देखते ही पिछली ग्रन्थियां खुलने लगती हैं, आकर्षण जाग उठता है। यही तो नए कर्म-बन्धनों का स्वरूप है। अतः यह साबित होता है कि हमारी संस्कृति में विवाह एक संस्कार है। ऐसा संस्कार जिसके बिना मनुष्य का जीवन पूर्ण नहीं हो सकता। विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का संबंध होता है, जिसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रुव तारा को साक्षी मान कर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। विवाह रहन-सहन के ऊपर निर्भर करता है। यहाँ रहन-सहन से तात्पर्य साथ रहने तथा सहने से है। वैवाहिक सम्बन्ध होने के बाद दोनों में सामंजस्य स्थापित हो जाता है। निश्छल प्रेम, एक दूसरे के प्रति त्याग एवं समर्पण,हर हाल में संतुष्टि तथा माँ-पिताजी द्वारा दिए गए संस्कार पर वैवाहिक सम्बन्ध टिकता है। यदि उपरोक्त बातें जीवन में आ गयीं तो दाम्पत्य जीवन सुखमय होगा। अन्यथा कलह का घर होगा। किसी एक बात का अभाव होने से भी बात नहीं बनेगी। केवल प्रेम और त्याग हो तथा संतुष्टि न हो तो सुख में कमी होगी तथा दुःख अधिक होगा। रिश्तों को बनाए रखने के लिए असीमित धैर्य की आवश्यकता होती है। बहुत लोग आपसी सम्बन्ध में समझौता कर लेते हैं। लेकिन समझौते कभी-कभी टूट भी जाते हैं। दाम्पत्य जीवन कभी समझौता नहीं हो सकता। यह तो शाश्वत बंधन है। इस बंधन को तो ईश्वर द्वारा बनाया गया है। पश्चिमी प्रभाव से अभी इन मूल्यों में कमी हो गयी है। मगर यथार्थ को हम झुठला नहीं सकते। अग्नि के साक्षी मानकर लिए गए सात फेरे एक अटूट बंधन की तरह काम करता है। इन सात वचनों का आध्यात्मिक महत्त्व है। व्यक्ति इन्हीं सात फेरों के वचन को निभाते हुए ईश्वर-धाम को चला जाता है। ये सात वचन जीवन में उत्तरदायित्व का बोध कराते रहते हैं। सनातन संस्कृति में परिवार के लोगों के समक्ष वर-वधू अग्नि को साक्षी मानकर सात फेरे अग्नि के सामने लेते हैं। हर फेरे में एक वचन पति द्वारा पत्नी को दिया जाता है। उसके बाद ही विवाह को पूर्ण माना जाता है।

पहले वचन में वधू वर के वाम अंग में बैठने की आज्ञा प्राप्त करती है। साथ ही व्रत-संस्कारों अथवा धार्मिक अनुष्ठानों में भागीदारी सुनिश्चित करती है।

दूसरे वचन में कन्या अपने माता-पिता के सम्मान करने की बात कहती है। इससे साबित होता है कि कुटुंब की मर्यादा का ध्यान रखा जाता है।

तीसरे वचन में जीवन की हर अवस्था में साथ रहने की बात कहती है। सुख-दुःख हो – हर हाल में साथ रहना है।

चौथे वचन में पति पूर्ण रूपसे आत्मनिर्भर होकर आर्थिक रूप से परिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति का वचन देता है। इससे स्पष्ट होता है कि विवाह तभी सम्पन्न होना चाहिए जब वर कुछ उपार्जन करने योग्य हो जाए अथवा वह अपने पैरों पर खड़ा हो।

पांचवें वचन के रूप में पारिवारिक कार्यों के लिए धन खर्च करते समय वधू की सहमति आवश्यक है। अधिकांश मामलों में ऐसा देखा गया है कि बहुत से व्यक्ति किसी भी प्रकार के कार्य में पत्नी से सलाह करना आवश्यक नहीं समझते, अब यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नी से सलाह ले ली जाए तो इससे पत्नी का सम्मान तो बढता ही है, साथ साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है।

छठे वचन के रूप में किसी भी हाल में दूसरों के सम्मुख वर को वधू का अपमान नहीं करना है। यह वचन भी वर को देना होता है। दुर्व्यसनों से दूर रहने का वचन भी पति को देना पड़ता है। आजकल इसी वचन को टूटते देखा जाता है। जरा-सी बात पर वर गुस्सा होकर अपनी वधू को डांट-डपट देता है। यह किसी भी सूरत भी उपयुक्त आचरण तो नहीं हो सकता है। पुरुषों का व्यवहार बदल जाता है। एक तरह से देखा जाए तो बात सही भी है। दूसरों के सामने किसी का अपमान उचित नहीं कहा जा सकता। पति द्वारा अपमान करने से पत्नी का मन तो आहत होता ही है। एकांत में पति उसे डांटे तो कोई बात नहीं है। दूसरों के सम्मुख पत्नी के सम्मान की रक्षा करने की जिम्मेदारी पति की है। पति भी यह ध्यान रखे कि वह दुर्व्यसनों में फँसकर अपने गृ्हस्थ जीवन को नष्ट न कर ले।

सातवें तथा अन्तिम वचन के रूप में कन्या अपने पति से पराई स्त्रियों को माता के समान समझने की आशा करती है। पति-पत्नी के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाने की उम्मीद रखती है। ऐसा देखा गया है कि विवाहोपरांत किन्हीं कारणों से पति दूसरी औरत के आकर्षण में फंस जाता है तथा पथभ्रष्ट हो जाता है।

पूर्व में पाणिग्रहण संस्कार के बाद शारीरिक आकर्षण बना रहे, इसके लिए विवाह के तुरन्त बाद स्त्री पति के साथ नहीं जाती थी और गौने की प्रतीक्षा करती थी। इसका कारण स्पष्ट था कि वह कन्या पुरुष संसर्ग को सहन करने में समर्थ नहीं हो पाती थी। उस समय कन्या की विवाह की अवस्था अधिकतम चौदह वर्ष मानी जाती थी इसीलिए परिपक्व होने पर ही गौने की प्रतीक्षा की जाती थी। इसे द्विरागमन भी कहा जाता है। इस अवधि में वर-वधू को को विभिन्न प्रकार के ज्ञान अर्जित करने का अवसर मिलता था, जीवन के सपने देखने की भूमिका बनती थी और एक तीव्र उत्कण्ठा मन में पैदा होती थी मिलने की। वह उत्कण्ठा अपने आप में महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी।

उपरोक्त बातें इतिहास की बातें हो गयी हैं। वर्तमान में सबकुछ विपरीत होता है। वर-वधू अपने कार्यस्थान में एक-दूसरे को जान-पहचान लेते हैं। सपने देखते हैं या नहीं – पता नहीं। उन्हें शादी से पूर्व सपने देखने का समय ही नहीं मिलता जबकि ये ही तो मिठास के दिन होते हैं और भावी मिठास को बढ़ाते हैं। भावी जीवनसाथी की अपेक्षाओं और उसके प्रति जाग्रत अनेकानेक आशंकाओं से भरे मन को समय भी चाहिए। वैसे भी, समय के साथ शरीर का आकर्षण कम होता जाता है। बिना प्रयास ही कुछ मिलता रहता है तो भी आकर्षण कम हो जाता है, यह मानव स्वभाव है। रोमांच तो कुछ कर पाने में ही बना रहता है। आकर्षण के इस काल में यदि दोनों मन से जुड़ सकें तो काम ठीक बैठ जाता है। प्रतीक्षा के क्षण ही मन के जुड़ाव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मन का लक्षण है नवीनता को पकड़ना। उस नवीनता को पकड़ने के लिए मन में नए-नए विचार पनपते रहते हैं।

अंत में हम कह सकते हैं कि पाणिग्रहण संस्कार के माध्यम से समाज वधू के भविष्य को सुरक्षित रखने का प्रयास करता है। यह आज के समय में सफल वैवाहिक जीवन के लिए आवश्यक है। इन संस्कारों को बचाए रखने की जरूरत है। इन संस्कारों में कमी के कारण ही आज समाज में विवाह-विच्छेद जैसी घटनाएं बढती जा रही है।