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बागी स्त्रियाँ - (भाग एक)

समाज ने स्त्रियों के लिए कुछ ढांचे बना रखे हैं उनमें फिट न होने वाली स्त्रियों को बागी स्त्रियाँ कह दिया जाता है।ऐसी स्त्रियों को पारंपरिक समाज एक खतरे की तरह देखता है और उन्हें तोड़ने की हर कोशिश करता है।

सभी अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं।छोटी- बड़ी, जरूरी- गैरजरूरी, जायज -नाजायज़ हर तरह की लड़ाइयाँ हैं।सबको अपनी लड़ाई ही महत्वपूर्ण लगती है।सभी चाहते हैं कि दुनिया का ध्यान उनकी लड़ाई की तरफ जाए। सभी उनकी तरफ़ से लड़ें ।कम से कम सहयोग तो करें ही।सहयोग नहीं तो सहानुभूति ही रखें ।उनकी लड़ाई को जायज ही ठहराएं।जब ऐसा नहीं होता तो वे दुःखी हो जाते हैं।उनको सारा समाज ...सारा संसार अपना दुश्मन नज़र आने लगता है।वे एक बार भी नहीं सोचते कि वे भी तो वही कर रहे हैं।एक बार तो वे खुद से बाहर निकलकर देखें ।अपने से ऊपर उठकर देखेंगे तो उन्हें हँसी आएगी कि वे किस तरह तिल को ताड़ बनाते रहे हैं।किस तरह गैरजरूरी मुद्दे उनके लिए जीवन- मरण के मुद्दे हो गए हैं।तब उन्हें औरों से सहानुभूति होगी। उन पर दया आएगी।उनसे ईर्ष्या,घृणा,शत्रुता या शिकायत नहीं होगी।
हर बार की तरह इस बार भी अपने घर आकर अपूर्वा को मायूसी ही हाथ लगी।उसने सोचा था कि वक्त बीतने के साथ बहुत कुछ बदल गया होगा।जब कस्बा शहर में बदल गया है।जगह- जगह स्कूल ,मॉल,होटल,रेस्टोरेंट,ब्यूटी -पार्लर और जिम खुल गए हैं।बच्चे से बूढ़े तक मुम्बईया स्टाइल के कपड़े पहनने लगे हैं ।रहन -सहन, खान- पान का स्तर हाई हो गया है ,तो सोच तो बदली ही होगी पर ऐसा कुछ नहीं था।
हर बार की तरह सबके पास अपने ही रोने थे ,जिसमें ज़्यादातर गैरज़रूरी और पेट-भरे के रोने थे ।पर वे इतने लाउड थे कि उसमें उसकी अपनी सिसकियाँ दब गईं।वह उनसे अपना दुःख -दर्द क्या बताती, जबकि उनके ही दुःख- दर्द के किस्से खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे।वह चुपचाप उन्हें सुनती रही ... देखती रही ...महसूसती रही।अपनी तरफ़ से कुछ कहना...सुझाव देना या समझाना ख़तरे से खाली नहीं था।वैसे भी 'सत्तर घाट का पानी पीने' का लेबल उसके साथ चलता है।हर बात का एक ही जवाब मिलता है कि कोई तुमसे तो कम ही करेगा।
जब तक उसकी माँ जिंदा रही ,यही कहती रही।अब भाई- बहन सभी यही बात कहते हैं।भाभियाँ तो खैर गैर ही मानी जाती हैं।वे सामने नहीं अड़ोसी- पड़ोसियों,नात -रिश्तेदारों की तरह पीठ पीछे ही कुछ कहेंगी। उनसे शिकायत भी क्या करना!आखिर उसके बारे में जानकारी तो अपनों ने ही लीक की है।
उसके बारे में जो जानकारियां उन्हें है क्या सच ही सब दुरूस्त हैं?क्या सच ही वह इसी लायक है कि कोई भी उस पर कचरा फेंक सकता है?
उसे महाभारत की द्रोपदी का चरित्र बहुत आकर्षित करता है।द्रोपदी अग्निगर्भा,तेजस्विनी,विदुषी होने के बावजूद अपने समय में ही नहीं,आज भी उपेक्षिता है। वह सोचती है कि क्या इस कारण उपेक्षिता रही कि वह आम स्त्रियों से अलग थी ..शिक्षित और.स्वाभिमाननी थी?वरनाउसने ऐसा क्या किया था कि उसके प्रति सबकी नजरें टेढ़ी रही?आज भी कोई अपनी बेटी का नाम द्रोपदी नहीं रखता।द्रोपदी की पहचान पांच पुरुषों वाली ही बनकर रह गई।उसकी सारी बुद्धिमत्ता,तेजस्विता,मातृत्व और सुंदरता धरी की धरी रह गई।संसार यह भी भूल गया कि अपने गुणों के कारण ही कृष्ण की करीबी सखी थी।
वह भी खुद को आज की द्रोपदी ही मानती है।उसके जीवन में भी कई पुरूष आए पर जब भी उसके चरित्र का चीर- हरण किया गया, कोई उसकी सुरक्षा में खड़ा नहीं हुआ।अंतर सिर्फ इतना है कि द्रोपदी के पास कृष्ण जैसा मित्र था और उसके पास नहीं है।अगर कोई उससे उसकी अंतिम इच्छा पूछे तो वह यही कहेगी कि उसे कृष्ण जैसा एक मित्र चाहिए।ऐसा मित्र जो उसे सही अर्थों में समझ सके।जब सारी दुनिया उसके ख़िलाफ़ खड़ी हो,वह उसके पक्ष में खड़ा रहे।जब कोई उसकी मदद न करे, वह उसकी मदद करे।बिना किसी स्वार्थ,लाग -लपेट के।वह कृष्ण जैसा प्रेमी नहीं चाहती,मित्र चाहती है।जाने क्यों राधा के साथ कृष्ण ने जो किया,उसे पसन्द नहीं ।उनके प्रेम को आध्यात्मिक रंग न दिया जाए तो क्या भौतिक रूप से इसे सही ठहराया जा सकता है?कृष्ण के मथुरा चले जाने के बाद राधा ने प्रिय- वियोग के साथ जो सामाजिक प्रतारणा झेली होगी,उसका जिक्र कोई भक्त कवि नहीं करता।हो सकता है उसी की सोच एकांगी हो ,पर वह उस समय के समाज को समकालीन समाज के समकक्ष रखकर ही देखती है।जब इक्कीसवीं सदी का समाज स्त्री के प्रति उदार नहीं हो पाया है तो उस द्वापर युग में क्या रहा होगा?उस समय स्वतंत्र चेता स्त्री की कल्पना भी दुर्लभ होगी इसीलिए द्रोपदी का बार -बार अपमान हुआ।वह महाभारत की वजह मानी गई।अपने आत्मसम्मान के लिए वह खड़ी हुई थी तो इसमें उसका क्या दोष था?क्यों उसे इतनी जिल्लत उठानी पड़ी?अपने सन्तानों को खोना पड़ा?वह कुंती की तरह मौन नहीं रही।उसने गांधारी की तरह आंखों पर पट्टी नहीं बांधी।सुभद्रा की तरह दूसरी स्त्री बनकर नहीं रही।वह हमेशा अग्नि की तरह धधकती रही।अपने हक के लिए लड़ती रही हालांकि तब भी उससे चूक हो ही गई कि उसने वस्तु की तरह बंटना स्वीकार किया।अपनी लाज की रक्षा में असमर्थ पतियों को क्षमा कर दिया। आखिर क्यों?उस पर तत्कालीन समाज का दबाव था या धर्म का---यह मनन का विषय है।
जाने क्यों वह अपने को द्रोपदी की तरह पाती है,पर उसने सोच लिया है कि वह द्रोपदी की उन दो गलतियों को नहीं दुहराएगी।वह न तो वस्तु बनेगी और न उसे पति स्वीकारेगी,जो उसकी रक्षा तक नहीं कर सकता।
वह ऊपर से शांत रहती है पर उसके हृदय में असंख्य तरंगें उठती रहती हैं।उसके पास हर रिश्ते के हर बात का जवाब है पर वह जानती है कि उसके जवाब से भूचाल आ जाएगा और रहे -सहे रिश्ते भी उसमें बह जाएंगे।उलझनों से निकलने का मात्र उसके पास मात्र एक ही उपाय शेष है और वह है --उसकी लेखनी।
वह अपने भीतर का सब कुछ कागज़ पर उतार देती है।श्वेत- स्याह सब।पाठक उसे कहानी समझते हैं,पर होती वह उसके जीवन की सच्चाइयाँ ही है।पहले वह किसी न किसी मित्र से अपने दिल की बात कह देती थी ,पर उसने देखा कि जब वे किसी बात से नाराज़ होते हैं तो सारा कुछ उकट देते हैं।ऊपर से यह ताना मारने से नहीं चुकते कि इसीलिए तो कोई आपको नहीं पूछता।
किसी के 'पूछने' के लिए क्या उसके अनुकूल ढलना होता है?उसके कहे अनुसार चलना होता है?अपना तन -मन -धन लुटाना होता है ?अपना स्व,अपना अस्तित्व,अपनी अस्मिता, अपनी खुदी मिटानी होती है ?शायद हाँ,पर वह ऐसा नहीं कर सकती।यही कारण है कि जीवन- भर वह संघर्ष ही करती रही है और इसी कारण बुरी स्त्री भी कहलाती है।
तो ..कहलाए उसे इसकी कोई परवाह नहीं.....!
अपने विचारों में खोई अपूर्वा अपनी छत पर टहलती रही।सांझ उतर आई थी ।उसको देखते ही सूरज शर्म से लाल- भभूका होकर छिपने लगा था।हालांकि सांझ बड़ी हसरत से उससे मिलने आई थी।इधर आसमान ने सांझ के स्वागत में कई रंगों की रंगोली बनाई थी ।नीले,पीले,सुनहरे,सफेद,गुलाबी रंगों की रंगोली पर सांझ सूरज के लिए तड़प रही थी और सूरज सागर की बाहों में रात गुजारने के लिए व्याकुल था।आखिर सांझ असफल प्रेमिका की तरह उसे जाते देखती रही और आसमान दुःख से काला पड़ गया।