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बागी स्त्रियाँ - (भाग तीन)

उम्र बीत जाने से बचपन और यौवन नहीं बीत जाता |ये भावनाएँ तृप्त होकर ही मरती हैं |वरना और अधिक शक्तिशाली हो जाती हैं | जो अपनी जिंदगी से बहुत कुछ पाता है उसके ही व्यवहार में एक थिरता आती है |अपूर्वा भी थिर नहीं थी|यह थिरता तब आई होती ,जब कोई सच्चा प्यार उसकी ज़िंदगी में आया होता |अपनी मेहनत और हौसले से वह एक ऊंचाई पर जरूर पहुँच गयी है पर खुश नहीं है | कभी –कभी उसे लगता है कि स्त्री कितनी भी ऊँचाई पर पहुँच जाए पुरूष का साथ उसके लिए जरूरी है ।मगर वह साथ सही अर्थों में हो | कभी वह अतीत में डूब जाती है फिर उससे घबराकर वर्तमान में लौट आती है और कभी भविष्य में झाँकने लगती है | जाने कैसी लक्ष्मण- रेखा है यह अपने अहं या स्वाभिमान की या कि अपने कंगलेपन और अपमान की कि इसके पार वह किसी को आने नहीं देना चाहती |क्या बताए कि आगे क्या हो सकता है या पहले क्या हुआ था ? परिस्थितियों ने चाहे उसे कितना भी तोड़ा हो ,समय को उसने अपने ऊपर हाथ नहीं रखने दिया है। आज भी वह वैसी ही दिखती है जैसी बीस साल पहले दिखती थी।इसके लिए उसे अपनी तरफ से कुछ नहीं करना पड़ा है कुदरत की ही उस पर विशेष मेहरबानी है।
एक ही बात अपने में इतने-इतने अर्थ भी लपेटे रख सकती है ,यह उसे अमर के जीवन में आने के बाद पता चला |सारा रास्ता अकेले- अकेले चलकर ,सारी परेशानियों से अकेले-अकेले लड़कर भी ऐसा आत्मविश्वास और ऐसी शक्ति तो उसने अपने भीतर महसूस नहीं की ,जो उससे मिलकर वह महसूस कर रही थी|क्या अपने आप को निरद्व्ंद भाव से किसी को समर्पित करके भी आदमी बहुत -कुछ पा सकता है ।पर कभी-कभी उसे लगता है कि वह उसे स्वीकार कर उस पर कृपा कर रहा है |
छोटा बनकर जीना उसके अहम को बर्दास्त नहीं है और बड़ा होकर जीने लायक उसके पास कोई पूंजी नहीं है। अब वह एक अजीब -सी मानसिक यातना में खुद को पा रही है| कभी -कभी वह यह सोचती है कि -कहीं उससे ही तो कोई गलती नहीं हो रही है |हो सकता है कि उसका अपना कुंठित मन ही बातों को,व्यक्तियों को सही रूप में नहीं ले पाता है। पता नहीं उसे क्या हो गया है कि एक ही बात एक ही समय में उसे अच्छी भी लगती है बुरी भी |शायद कुछ और भी लगता है |हर बात उसके मन में कई- कई स्तरों पर चलती है | वह खुद कुछ नहीं समझती |हर बात उसके लिए जैसे एक पहेली बन जाती है या फिर वह खुद अपने लिए पहेली बन जाती है | उसके मन में कई कोने बन गए हैं।वह जानती है कि ये कोने इतने पैने हैं कि इनसे सब -कुछ कटता चला जाएगा ।प्रेम,विश्वास ,सद्भावना ,अपनत्व सब|सारी की सारी जिंदगी ही खंडों में,टुकड़ों में बंट जाएगी और इसके बाद एक पूरी जिंदगी जीना आसान नहीं होगा..।नहीं ,वह अब और इन सबसे गुजरना नहीं चाहती |
अमर के द्वारा भी असली बात पर नकाब डालने का सिलसिला शुरू हो गया है|पता नहीं वह नकली व्यवहार कर रहा है या उसे ही नकलीपन का अहसास हो रहा है |दोनों एक ही -सी तो बातें हैं ,पर अर्थ बदल गए हैं क्योंकि शायद संदर्भ बदल गए हैं |
प्यार का दम भरते हुए हजार- हजार चेहरे उसके आगे-पीछे घूमने लगे हैं| उनमें से एक चेहरा कहता है कि मुझे रोक लो। वह उस चेहरे को गौर से देखती है ।मानो उसे उसके शब्दों पर ही विश्वास नहीं करना है ।उन्हें ही अंतिम सत्य नहीं मानना है ,उसके भीतर छिपे अर्थों को भी देखना है | वह भीतर ही भीतर कहीं बहुत चौकन्नी हो आई है |पर अमर को अपने ऊपर जाने कौन -सा विश्वास है ,जो उसे कहीं भी डिगने नहीं देता |उसके सधाव के सामने वह खुद को और ज्यादा बिखरा महसूस कर रही है|
वह कैसे एक -ही स्तर पर एक सुलझी हुई सहज जिंदगी जी लेता है|उसे उससे ईर्ष्या होती है ।खुद पर भी गुस्सा आता है कि क्यों नहीं वह उसके मन में होने वाले द्वन्द्वों को ,उसकी उलझनों को समझ पाता है ?उसके हर पहलू ,हर स्तर को देख पाता है?
पर क्या वह खुद भी उसको हर स्तर पर देख-समझ पाती है ?फिर क्यों वह उसे समझ पाएगा ? उसकी जिंदगी मानों टुकड़ों में बंट गई है और हर टुकड़ा जैसे अलग ढंग से सोचता है ।
वह अलग ढंग की धड़क के लिए अमर को अपनाना चाहती है ,पर उसकी भी अपेक्षाएँ कोई कम थोड़े हैं |वह भी तो अपना बोझ उस पर डालकर निश्चिंत जीना चाहता है |साथ ही बार-बार उसके अतीत को कुरेदता रहता है |वह कैसे उस पर भरोसा करे?अतीत उसे नहीं छोड़ता।उसके अनुभव उसे प्रेम के इस नए अनुभव -क्षेत्र में उतरने से रोकते हैं।प्रेम का आकर्षण उसे अपनी ओर खींचता तो है पर
वह इस बात से डरती भी है कि पता नहीं वह प्रेम की चुनौतियों का सामना कर भी पाएगी या नहीं।कहीं वह अपनी रही -सही सुख -शांति भी न खो दे।
उसका मन अमर को स्वीकार नहीं कर पा रहा।उसे उससे खुद को दूर करना ही होगा।अमर जीवन भर साथ चलने वाला साथी नहीं हो सकता।