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बागी स्त्रियाँ - (भाग छह)

अमर से पहले भी अपूर्वा ने अपने जीवन में प्रेम की धड़क महसूस की है पर हर बार वह गलत जगह फंस जाती है।उसे ऐसा व्यक्ति अच्छा लगने लगता है,जिसे वह पा नहीं सकती,इसलिए हर बार उसके हिस्से दर्द ही आता है।
उसे याद है जब उसे एक प्रिस्ट फादर बो से लगाव हो गया था।जब भी वह उनके तेजस्वी, सुंदर, शांत चेहरे को देखती थी,अजीब- सा सुकून महसूस करती थी। स्कूल आते ही वह शीशे वाले उनके केबिन की ओर जरूर देखती थी और उन्हें देखते ही ऊर्जा से भर जाती थी। जिस दिन वे स्कूल में नहीं होते थे, पूरे दिन उदासी महसूस करती थी। जाने क्यों उनका चेहरा हमेशा उसकी आँखों मे डोलता रहता था। जब से वे स्कूल के मैनेजर के रूप में आए थे, तभी से उसका यही हाल था। शुरू के दिनों में तो वह डर गयी थी कि क्यों वे उसे इतना याद आते हैं? स्कूल में तो दिन -भर उन्हें देखती ही है, रात को भी वे सपने में दिखते हैं। कहीं उसे प्यार तो नहीं हो रहा है। एक ’प्रिस्ट’ से प्यार ! वे तो सांसारिक जीवन त्याग चुके हैं। स्त्री उनके लिए वर्जित फल है। उनकी तरफ आकर्षित होने पर वह भी स्कूल से उसी तरह निकाली जा सकती है, जैसे हव्वा स्वर्ग से निकाली गई थी। ये प्यार भी विचित्र होता है। हमेशा गलत जगह होता है। कम से कम उसे तो ऐसा ही अनुभव है और हमेशा गलत जगह प्यार होने का ही परिणाम है कि वह जीवन में अकेली ही रह गयी। जो भी उसे अच्छा लगा, वह किसी दूसरी का था या फिर हो गया और वह दूर खड़ी देखती रही, कुछ न कर सकी। कहती भी क्या ! यह उसी का तो चयन था। कभी उसका प्यार एक तरफा ज्यादा रहा, तो कभी उसके जीवन को पचा पाना प्रेमी के लिए कठिन हुआ। आज जब वह उन प्रेमियों के बारे में सोचती है तो लगता है कि उसने उनकी आँखों में अपने लिए जो प्यार महसूस किया था, वह भ्रम था। दरअसल उनके हिस्से का प्यार भी उसका अपना प्यार था। तराजू के दोनों पलड़ों पर उसी का अकूत प्यार था। उनके पास तो उसके लिए कुछ था ही नही। ’तरस’ रहा होगा या फिर ’लोभ’। प्यार तो कतई नहीं। प्यार करने वाला ऐसे दूर नहीं होता, ऐसा बेदर्द नहीं होता कि अपनी अलग दुनिया बसा ले। एक ऐसी दुनिया, जिसमें उसका प्यार हवा के ठंडे झोके की तरफ भी प्रवेश ना पा सके।
पर उसे अफसोस नहीं है। सच हो या भ्रम, जितने दिन वह प्यार में रही.......... सम्पूर्ण रही। अनुपम सौन्दर्य और दिव्यता से भरी रही। प्रेम को पूर्णता में जी लेना कोई छोटी-मोटी उपलब्धि तो नहीं। पर जब वह अपने बारे में यह टिप्पणी सुनती है कि अभी तक भटक ही रही हैं तो उसे तकलीफ होती है। अपने दोस्तों को जब वह ’जोडे़’ में देखती है, तो एक कसक -सी होती है कि आखिर वही अकेली क्यों है ? जरूर उसमें कोई कमी होगी ! पर क्या ? इस पर सबकी अपनी-अपनी राय होगी, पर वह जानती है कि वह क्यों औरों की तरह पारम्परिक जीवन में नहीं है? वह सामान्य स्त्री नहीं है ,शायद कुदरत ने उसे अकेले रहने के लिए ही बनाया है।
पर यदि कुदरत का मनतव्य उसे अकेला रखना है तो फिर उसके अंदर प्रेम व पुरूष के प्रति आकर्षण क्यों भरा ? इस मूल प्रवृत्ति को ही खत्म कर देना था...पर यह प्रवृत्ति नहीं होती तो क्या वह पूर्ण स्त्री होती ! और अधूरी स्त्री बनकर क्या वह सुखी होती ?अधूरी स्त्री की कल्पना से ही वह डर जाती है। उसने अपूर्ण मनुष्यों की तड़प देखी है जो उसकी तड़प से हजार गुना ज्यादा है। नहीं..नहीं,वह जैसी है,वैसी ही अच्छी है। ठीक है उसे किसी पुरूष का पूर्ण प्रेम नहीं मिला, पर किस स्त्री को पुरूष सम्पूर्ण प्रेम देता है ? पुरूष का प्रेम अक्सर बँटा हुआ ही होता है। यह उसकी प्रवृत्ति है। सम्पूर्ण प्रेम तो स्त्री ही कर सकती है।
प्रेम पीड़ा का दूसरा नाम है और नयी पीढ़ी इस पीड़ा से दूर भाग रही है। प्रेम का स्वरूप बदल रहा है। वह रूहानी से दैहिक हो गया है। पर वह नयी और पुरानी पीढ़ी के बीच की कड़ी है। प्रेम उसके लिए आत्मा की पुकार अधिक है, देह की आकांक्षा कम ! वैसे वह देह और मन को अलग नहीं कर पाती है। आखिर मन देह में ही तो अवस्थित है, वरना मृत्यु के बाद वह गायब नहीं हो जाता। यह अलग बात है कि पूरे शरीर का परीक्षण करने पर भी डॅाक्टर मन की सत्ता कहीं नहीं पाते। मन का पर्याय दिल शरीर में जरूर है और वह रक्त साफ करने वाली एक मशीन की तरह है। यह वह उस मन की जगह नहीं ले सकता, जो आदमी के पूरे व्यक्तित्व को संचालित करता है। कुछ लोग मन को शरीर से अलग पर उसके इर्द-गिर्द मँडराता कोई किसी अदृश्य तत्व मानते हैं। जो भी हो यह दर्शन की बात है।
जब वह उनके बारे में सोचती थी तो उसे सुख-शान्ति मिलती थी । उनके जीवन में भी तो किसी का एकनिष्ठ प्यार नहीं है । अपना घर-परिवार नहीं है , फिर वे कैसे शांत रह लेते हैं ? उनके पास भी तो एक सुंदर, स्वस्थ युवा शरीर है , फिर क्या उनमें वे लालसाएँ नहीं होंगी? किस तरह वे उसे नियंत्रित या दमित करते होंगे ! क्या कभी भी उनका मन विचलित नहीं होता होगा?
वे उन हिन्दू संन्यासियों की तरह भी नहीं थे , जो मांस-मदिरा या भौतिक सुख-साधनों का उपभोग नहीं करते । वे तो आम लोगों की तरह सब कुछ खाते-पीते थे । इन सबमें उनके धर्मानुसार कोई बाधा नहीं था । हाँ, काम-वासना हर तरह से वर्जित था । हांलाकि साथी अध्यापिकाएँ बातचीत में उनके संयम-नियम पर शंका व्यक्त करती थीं । उनके अनुसार धर्म की आड़ में ये लोग भी ’सब कुछ’ करते हैं |'सब' करते हैं,पर बंधन में बँधते या बांधते नहीं। वैसे भी उनको एक स्थान पर ज्यादा समय तक नहीं रखा जाता था, शायद इसलिए भी कि उन्हें उस स्थान या वहाँ के लोगों से मोह-माया ना हो जाए ? प्रिस्ट बनाने की प्रक्रिया में भी उनको भावनाओं के शमन की ट्रेनिंग मिली होती है। बारहवीं कक्षा पास करते ही उन्हें ट्रेनिंग पर भेज दिया जाता है |पंद्रह वर्षों तक कठोर संयम-नियम की ट्रेनिंग !इस अवधि में अगर कोई विचलित हो जाएँ तो अपने घर-संसार में वापसी कर सकता है अर्थात विवाह वगैरह कर सकता है |पर कम ही लोग ऐसा करते हैं क्योंकि घर –परिवार द्वारा वे पहले ही धर्म को दान दिए जा चुके होते हैं|अक्सर गरीब माता-पिता अपने कई बच्चों में से एक चर्च को दान कर देते हैं ।इसके पीछे उनकी धार्मिक आस्था जिम्मेदार है कि गरीबी-यह शोध का विषय हो सकता है |ट्रेनिंग पूरा होते ही वे अच्छी पोजीशन में आ जाते हैं |प्रतिभा के अनुरूप उन्हें काम मिल जाता है और वैवाहिक जीवन को छोड़कर जीवन का हर सुख वे भोगते हैं |अपने घर-परिवार में भी कभी-कभार जा सकते हैं|हाँ, यौन उनके लिए अक्षम्य अपराध माना जाता है |
वह अक्सर सोचती है -मनुष्य के सहज संवेगों को यूँ नियन्त्रित कर धर्म किस आदर्श की स्थापना करना चाहता है ? अक्सर धर्म-स्थलों पर तमाम व्यभिचार की खबरें वह पढ़ती है। पवित्र स्थानों पर समलैंगिकता, बाल-व्यभिचार की खबरें उसे विचलित करती हैं। क्या यह विकृतियाँ संवेगों के शमन का परिणाम नहीं ? वह जानती है कि हर संन्यासी गलत आचरण नहीं करता, पर कुछ तो करते हैं। फिर वे क्यों संन्यासी बनते हैं ? वापसी क्यों नहीं कर लेते ?! संन्यास मन का एक भाव है। यदि किसी व्यक्ति में यह भाव प्रचुर मात्रा में है, तो वह संन्यास में जा सकता है पर जिसमें सांसारिक सुख-भोग की लालसा है उसे दिखावे के लिए संन्यस्त नहीं होना चाहिए।
पर जब वह उनके चमकते चेहरे और शांत..........मधुर आवाज को सुनती थी , तो जैसे सारी काम-वासनाएँ स्वतः भाग जाती थीं और एक पवित्र औदात्य भाव का जन्म होता था । उसे विश्वास था कि वे कभी गलत नहीं हो सकते। वह यह भी जानती थी कि अगर उन्हें उसके मनोभावों का पता चल गया तो वे उससे नाराज हो जाएंगे,इसलिए वह अपने ऊपर संयम रखती थी । बहुत जतन करके वह उन्हें अपने दिल-दिमाग पर छाने नहीं दे रही थी , पर जब भी उनकी बड़ी-बड़ी मुस्कुराती आँखों को देखती थी , उसे कुछ हो जाता था। वे अक्सर उसे देखकर मुस्कुरा देते थे(यह उनका स्वभाव था ) और वह उस मुस्कुराहट कोअपने लिए ’खास’ समझती थी । उनके मन में उसके प्रति क्या भाव है, वह नहीं जानती थी। वे उसको सम्मान अवश्य देते थे । जब कभी वह किसी समस्या को लेकर उनके पास गई थी। उन्होंने ध्यान से सुना था और तत्काल उसका समाधान कर दिया था ।उसके साथ काम करने वाले कहते भी थे कि ’वे आपको ज्यादा मानते हैं।’ पर वह भी तो कभी अपने हित के लिए उनके पास नहीं गयी। छात्रों या अध्यापकों से जुड़ी बातों के लिए जाती थी । शायद उसकी उच्च शिक्षा व लेखन-कार्यों से वे प्रभावित हो या फिर अनुशासन बद्ध ढ़ंग से शिक्षण कार्य करने के कारण । यह भी सच था कि वह उनके लिए उतनी खास नहीं थी , जितना वे उसके लिए थे । उसे पता था कि कोमल व्यक्तित्व के स्वामी होने के बावजूद वे इतने कठोर जरूर हैं कि उसकी गलती पर उसे बाहर का रास्ता दिखा दें। नौकरी उसकी जरूरत थी , इसलिए उसने अपने मन को हिदायत दे दी थी कि उनकी तरफ ना जाए, पर मन कहाँ हिदायतें मानता था ?
उनसे लगाव कुछ अलग का ही तरह का था । उसमें कोई वासना नहीं थी ....... उम्मीद नहीं थी । पाने की चाहत नहीं थी, ना पाने की कोशिशें थीं । बस एक राहत थी , सुकून थी शांति थी। उसका भटकता मन इसलिए थिर हो चला था कि जब वे थिर हैं तो वह क्यों नहीं हो सकती? उसने तो जीवन के खट्टे-मिट्ठे अनुभव लिए है। टुकड़े-टुकड़े में ही सही प्रेम पाया है......... ’मन-मयूर नाचा है देखकर प्रेम घन’ पर वे तो बिल्कुल कोरे हैं अनुभव-हीन । हो सकता है उनके पास भी अलग तरह के ढेर सारे अनुभव हों ,पर वे उसके अनुभव से अलग ही होगे। वे ऐसे थे कि कोई भी उन्हें प्यार कर सकता था । अघ्यापिकाओं, छात्राओं और महिला अभिभावकों में वह उनके लिए आकर्षण साफ-साफ देखती थी ,पर वे सबसे निर्लिप्त रहते थे |हालांकि सबसे मुस्कुराकर बात करना उनकी आदत थी| उनकी इस आदत से अक्सर स्त्रियाँ भ्रम में पड़ जाती थीं |वह भी उनके प्रति एक दिव्य प्रेम से भर गयी थी |उसके मन की तृष्णा समाप्त हो गयी थी| उनके कारण ही वह जिंदगी को, प्रेम को समझ पाई थी |
उन दिनों उसे ऐसा ही लगता था।यह सच था कि वह प्रेम को समझ गई थी पर क्या उन्हें समझ पाई थी?
बाद में जब उसने उनका असल चेहरा देखा तो हतप्रभ रह गई।