Science Of Enlightenment books and stories free download online pdf in Hindi

Science Of Enlightenment

'मोक्ष अर्थात् मुक्ति यानी संबोधि या निर्वाण का विज्ञान।'

इस ज्ञान से संबंधित ज्ञान, यदि मैंने इसके पूर्व भी दिया हो तो वह तत्कालीन समझ या तुलना कर चयन करने की शक्ति पर आधारित हो सकता हैं। जिस ज्ञान या अनुभव या अनुभवों के परिणाम स्वरूप या आधार पर मैंने आज से पूर्व इससें संबंधित ज्ञान दिया होगा उसकी यानी उस समय के मेरे ज्ञान की मात्रा और उस समय की तर्क तथा तुलना शक्ति एवं यथा अर्थों की चयन शक्ति के स्तर में वृद्धि होने से उसनें बदलाव भी हो सकता हैं।

मेरी तत्कालीन तुलना शक्ति और चयन शक्ति के आधार पर यह ज्ञान हैं, भविष्य में इसमें भी परिवर्तन हो सकता हैं यदि मेरी उस योग्यता जिसके आधार पर मैंने इसे ज्ञात किया यानी तर्क शक्ति और जिसके जैसे अर्थ हैं उन्हें प्राप्त करने की शक्ति आदी में परिवर्तन होता हैं। यह पूर्णतः मेरे अनुभवों पर आधारित हैं। आप भी यदि यह आपके अनुभव पर सत्यापित हो सकें तभी इसे मानीये यानी यदि आपने वह अनुभव किया या जाना हो; जिसके आधार पर मैंने यह कह रहा हूँ या आपके पास ऐसा कोई अनुभव हैं जिसके आधार पर यह आपके अनुसार मैं यह कह रहा हूँ तभी इसे स्वीकृति दीजियें और परम् उद्देश्य यानी मुक्ति या मोक्ष की प्राप्ति हेतु इस मार्ग का चयन कीजिये।


नाड़ियाँ क्या होती हैं और हम में इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना आदि नाड़ियाँ कहाँ पायी जाती हैं?

हमारें देखने के तरीकें यानी कि दृष्टिकोण ही मुझें नाड़ियाँ प्रतीक होती हैं जिनका अनुभव मस्तिष्क में होने से मैं यह कह सकता हूँ कि हमारी सभी नाड़ियाँ हमारें मस्तिष्क में उपस्थित हैं और यह हमारें मस्तिष्क का भौतिक हिस्सा या भाग नहीं हैं वरन इसके यह समझ के आयाम में यानी समझ के स्तर पर उपस्थित हैं। जिस भी नाड़ी पर हमारी ऊर्जा यानी इस हद तक ध्यान होता हैं हम उसी नाड़ी पर ऊर्जा वालें हो जाते हैं।

हमारी हर नाड़ी हमारें विभिन्न योनियों को प्राप्त करने का माध्यम् होती हैं। स्वभाविक सी बात हैं कि आत्मा यानी कि चेतना अर्थात् ध्यान जिस नाड़ी पर होगी यानी जिस नाड़ी पर ध्यान रहेगा उसी नाड़ी यानी दृष्टिकोण का मार्ग तय करेगा और उसी मार्ग के अनुसार जो भी छोटी-बड़ी अर्थात् हर एक सफलता होगी उसें प्राप्त करेगा।

पिंगला नाड़ी :-

जिस दृष्टिकोण या नाड़ी से देखने वाला ऐसे अर्थों की पूर्ति के लियें कुछ भी करने को सज्ज हो सकता हैं जो उसके अनुसार तो उसके हित की पूर्ति करतें हैं परंतु उन अर्थों या उसके हित के मार्गों की यथार्थता यानी महत्व यह हैं कि वह पूर्णतः निरर्थकता यानी महत्वहीनता वाले हैं। ऐसे दृष्टिकोण वाले जिन्हें जो ज्ञान प्रतीत होता हैं वह उनके अनुसार तो सत्य हैं परंतु वह वास्तविकता या सही अर्थों का सत्य नहीं हैं। अज्ञानतावश या अज्ञानता के परिणाम स्वरूप या अनुचित अर्थों में सत्य की पूर्ति के लियें जो भी श्रद्धा, विश्वास रख सकतें हैं, कोई भी कर्म कर सकते हैं और यहाँ तक कि ज्ञान भी अपने अनुचित अर्थों के सत्य की सिद्धि के लियें जो कर सकनें की योग्यता रखतें हैं वह नाड़ी पिंगला होती हैं और जिनकी चेतना या ध्यान इस नाड़ी में होता हैं वह पिंगला नाड़ी वाले होते हैं। जो यथार्थ सत्य के अनुसार नहीं हैं वरन सत्य जिनके अनुसार हैं यानी समुचें अस्तित्व की अर्थ पूर्ति या संतुष्टि जिनकी संतुष्टि के आगें जितनी कम मायनें रखती हैं वह उतने ही अधिक अज्ञानी और अज्ञान की सिद्धि के लियें कुछ भी कर सकनें वालें। इस नाड़ी वाले चाहें मनुष्य योनि में हो या देव योनि में हो उन असुरों की तरह ज्ञान और कर्म के आधार पर होने से जो कि अपने अनुचित अर्थों के स्वार्थ या संकुचितता से प्रभावित स्वार्थ की सिद्धि के लियें परमात्मा से हर संभव भक्ति और उस हेतु कर्म करनें के बदलें वरदान प्राप्ति करतें हैं परंतु उनका सत्य यथार्थ सत्य के समक्ष सिद्धि नहीं हो सकनें से या उनकी कर्म और भक्ति योग्य होने के बाद भी योग्य या अनुकूल ज्ञान के स्थान पर अज्ञात की सिद्धि करने के प्रयत्न के कारण सफलता को प्राप्त नहीं हो पातें।

इड़ा नाड़ी :-

जिस दृष्टिकोण या नाड़ी से देखने वाला लाभ के लोभ के कारण और हानि के भय के कारण कुछ भी कर सकता हैं यानी वह इस हेतु परम् या सर्वश्रेष्ठ आत्मा के सत्य यानी परम् या सर्वश्रेष्ठ अर्थ पूर्ति के लियें श्रद्धा, उसकी पूर्ति के लियें कर्म और ज्ञान के भी मार्ग का चयन कर सकता हैं वह होती हैं इड़ा नाड़ी। यह नाड़ी देव योनी में लेकर जाती हैं आपनें जितने भी देवताओं के संबंध में सुना होगा वह लाभ के लोभ से और हानि के भय से परम् अर्थ की सिद्धि करनें वाले ही होते हैं।

सुषुन्मा नाड़ी :-

जिस दृष्टिकोण या नाड़ी से देखने वाला ज्ञान के होने के परिणाम स्वरूप यानी सत्य के सही अर्थों की समझ की प्राप्ति होने सें परम् या सर्वश्रेष्ठ आत्मा के उद्देश्य यानी उनके अर्थ की सिद्धि करते हैं हाँ! जिससें इनको ही अपने उद्देश्य की प्राप्ति हो जाने पर परम् यानी सर्वश्रेष्ठ आत्मा ज्ञात होने के परिणाम स्वरूप जाननें वालो के द्वारा कहा जाता हैं और जानकारों के इन्हें ही परमात्मा कहने की सार्थकता यह हैं कि ज्ञान और कर्म ही ऐसे आधार हैं जिनके आधार पर किसी भी आत्मा के परिचय के संबंध में वह सभी जाना जा सकता हैं जो इन दोनों आधारों के साथ हर परिचय का आधार बताता अर्थात् स्पष्ट करता यानी जानकारी दें सकता हैं। यही कारण हैं कि किसी के भी ज्ञान और कर्म परिचय की प्राप्ति के लियें यानी उससें परिचित होने के परम् यानी सर्वश्रेष्ठ आधार हैं और ज्ञान के परिणाम स्वरूप परमात्मा के कर्म यानी परमार्थ की सिद्धि कर्ता इन दोंनो ही परम् आधारों पर सही अर्थों में परमात्मा के परिचित की कसौटी पर परमात्मा सिद्ध होते हैं वह दृष्टिकोण यानी नाड़ी सुषुम्ना नाड़ी होती हैं और यही एक मात्र नाड़ी हैं जो सही अर्थों में मोक्ष की यानी हर एक योनि से मुक्ति का मार्ग हैं। इसी नाड़ी में हमारें सभी चक्र होते हैं, इस नाड़ी पर आत्मा यानी चेतना या ध्यान इड़ा नाड़ी से आ सकता हैं जिस पर ध्यान अर्थात् आत्मा या चेतना के जाने का मार्ग पिंगला नाड़ी से होकर जाता हैं अतः चेतन या आत्मा पिंगला नाड़ी से होकर जाती हैं। इस नाड़ी पर आकर हमारी उर्जा अर्थात् हमारी चेतना या हम सभी चक्रों के माध्यम् से हो करके मुक्ति या मोक्ष की प्राप्ति कर सकनें हैं।

सुषुम्ना नाड़ी पर पायें जाने वाले चक्र क्या हैं?

जैसा कि मैंने बताया कि हमारी नाड़ियाँ हमारें दृष्टिकोण हैं जिनके हर किसी के द्वारा हमें विभिन्न योनियाँ और जिनसें सभी से अलग अलग लोकों की हमें प्राप्ति होती हैं और एक मात्र ऐसा दृष्टिकोण या योनि हैं जो कि हमें वास्तविकता के दर्शन करवा सकती हैं वह हैं सुषुन्मा नाड़ी या वैज्ञानिकी यानी यथार्थ दृष्टिकोण हैं; यदि हैं जिससें आत्मा योनियों से मुक्ति पा जाती हैं।

अन्य सभी नाड़ियाँ माया या भृम को वास्तविकता बताती हैं परंतु सुषुम्ना नाड़ी उसे ही वास्तविकता बता सकनें की योग्यता रखती हैं जो सही सही अर्थों में सत्य हैं।

माया और यथार्थ यानी सही अर्थों में वास्तविकता हैं?

निराकारता ही परम् अतः सुंदर सत्य हैं वरन इसके जो सत्य या वास्तविकता प्रतीत होती हैं वह सत्य या यथार्थ नहीं अपितु माया, भृम या अज्ञान के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं।

यह इसलियें क्योंकि हमें जो साकार प्रतीत होता हैं उसका हमें साकार प्रतीत होना माया या भृम अर्थात् हमारें अज्ञान के समान हैं। माया हमें निराकार को साकार प्रतीत करवा रही हैं जिसका कारण हैं, हमनें अनंत जन्मों से जाने अंजाने साकार की कल्पना पर ध्यान दिया हैं अतः वही हमारें ध्यान में हैं, यदि हम जाननें या खोजने का प्रयत्न करें कि यह साकार हैं कि निराकार तो जब हम उसकी सूक्ष्मता यानी गहराई में जायेंगे और यह खोज उस स्तर की होगी जितनी गहरी हमारी माया अर्थात् कल्पना रूपी अज्ञानता हैं तो यह ज्ञात हो जायेगा कि यथार्थ या सत्य एक मात्र निराकार ता और अनंतता हैं और जो हमारी साकारता हमें वास्तविकता प्रतीत हो रही थी वह तो हमारी कल्पना की गहराई के परिणाम स्वरूप थी विपरीत इसके यथार्थ ज्ञान नहीं ठीक उसी तरह जिस तरह किसी की घड़े के आकार की कल्पना को उसनें मिट्टी को घड़े का आकर देकर साकार कर दिया हो और ध्यान की पर्याप्तता नहीं होने से देखने वाले को यह घड़ा प्रतीत हो रहा हो। वह इसे ही वास्तविकता मान बैठा हो परंतु सूक्ष्मता या गहराई से देखने पर उसे ज्ञात हो सकेगा कि यह घड़ा नहीं अपितु मिट्टी हैं।

सात चक्र हमारें मस्तिष्क में समझ के आयाम के किन स्थानों पर यानी कहाँ पायें जाते हैं?

मूलाधार चक्र :-

मस्तिष्क के जिस हिस्सों में हमें हमारी भौतिक शारीरिक कामनाओं जैसें की भूख, प्यास, निद्रा आदि के अनुभव होते हैं वहीं होता हैं मूलाधार चक्र का निवास; वहाँ जितना अधिक ध्यान दिया जायेगा उतनी ही अधिक हमारी चेतना मूलाधार चक्र पर होगी और जब ध्यान देकर होश पूर्वक हमारी शारीरिक इच्छाओं का अनुभव किया जायेगा और जिन इच्छाओं की पूर्ति की जा सकती हैं उन्हें ही पैदा होने देकर समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर उनकी पूर्ति निश्चित की जायेगी और जिन इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं उन्हें जन्म लेते देख, होशपूर्वक उनके जन्म को ही बाधित कर दिया जायेंगा तब भौतिक शारीरिक इच्छाओं से असन्तुष्टि नहीं रह सकनें से हमें यानी चेतना अर्थात् हमारी आत्म ऊर्जा या हमारें ध्यान को हमारें भौतिक शरीर से मुक्ति मिलेंगी और समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर हम हमारी इच्छा से भौतिक शरीर को जागरूकता पूर्ण या होश हीन यानी निद्रा में रख पायेंगे तथा इच्छा होने पर ध्यान की पर्याप्तता इसे इसकी आवश्यकता जितनी मात्रा में देने के पश्चात हमारी चेतना या आत्म ऊर्जा अर्थात् चैतन्य को दूसरें चक्र यानी स्वदिष्ठान चक्र की दिशा में मोड़ कर उसका स्थानांतरण दूसरें चक्र में कर सकते हैं।

स्वदिष्ठान चक्र :-

मस्तिष्क के जिस हिस्सों में या जिन हिस्सों में हमें हमारी भावनात्मक शारीरिक कामनाओं जैसें की करुणा, क्रोध, मोह, प्रेम आदि के अनुभव होते हैं वहीं होता हैं स्वदिष्ठान चक्र का निवास; वहाँ जितना अधिक ध्यान दिया जायेगा उतनी ही अधिक हमारी चेतना उस चक्र पर यानी दूसरें चक्र पर होगी और जब ध्यान देकर होश पूर्वक हमारी भावनात्मक शारीरिक इच्छाओं का अनुभव किया जायेगा और जिन इच्छाओं की पूर्ति की जा सकती हैं उन्हें ही पैदा होने देकर समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर उनकी पूर्ति निश्चित की जायेगी और जिन इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं उन्हें जन्म लेते देख, होशपूर्वक उनके जन्म को ही बाधित कर दिया जायेंगा तब भावनात्मक शारीरिक इच्छाओं से असन्तुष्टि नहीं रह सकनें से हमें यानी चेतना अर्थात् हमारी आत्म ऊर्जा या हमारें ध्यान को हमारें भावनात्मक शरीर से मुक्ति मिलेंगी और समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर हम हमारी इच्छा से भावनात्मक शरीर को जागरूकता पूर्ण या होश हीन यानी निद्रा में रख पायेंगे तथा इच्छा होने पर ध्यान की पर्याप्तता इसे इसकी आवश्यकता जितनी मात्रा में देने के पश्चात हमारी चेतना या आत्म ऊर्जा अर्थात् चैतन्य को तीसरें चक्र यानी मणिपुर चक्र की दिशा में मोड़ कर उसका स्थानांतरण तीसरें चक्र में कर सकते हैं।

मणिपुर चक्र :-

मस्तिष्क के जिस हिस्सों में या जिन हिस्सों में हमें हमारी विचारात्मक शारीरिक कामनाओं जैसें की संदेश, विचार आदि के अनुभव होते हैं वहीं होता हैं मणिपुर चक्र का निवास; वहाँ जितना अधिक ध्यान दिया जायेगा उतनी ही अधिक हमारी चेतना उस चक्र पर यानी तीसरें चक्र पर होगी वहाँ ध्यान देने का अर्थ हैं विचार और संदेह आदि करने में ध्यान देना और जब ध्यान देकर होश पूर्वक हमारी विचारात्मक शारीरिक इच्छाओं का अनुभव हमारें द्वारा किया जायेगा और जिन इच्छाओं की पूर्ति की जा सकती हैं उन्हें ही पैदा होने देकर समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर उनकी पूर्ति निश्चित की जायेगी और जिन इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं उन्हें जन्म लेते देख, होशपूर्वक उनके जन्म को ही बाधित कर दिया जायेंगा तब विचारात्मक शारीरिक इच्छाओं से असन्तुष्टि नहीं रह सकनें से हमें यानी चेतना अर्थात् हमारी आत्म ऊर्जा या हमारें ध्यान को हमारें भावनात्मक शरीर से मुक्ति मिलेंगी और समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर हम हमारी इच्छा से विचारात्मक शरीर को जागरूकता पूर्ण या होश हीन यानी निद्रा में रख पायेंगे तथा इच्छा होने पर ध्यान की पर्याप्तता इसे इसकी आवश्यकता जितनी मात्रा में देने के पश्चात हमारी चेतना या आत्म ऊर्जा अर्थात् चैतन्य को चौथें चक्र यानी अनाहत चक्र की दिशा में मोड़ कर उसका स्थानांतरण चौथें चक्र में कर सकते हैं।

अनाहत चक्र:-

मस्तिष्क के जिस हिस्सों में या जिन हिस्सों में हमें हमारी काल्पनिक शारीरिक कामनाओं जैसें की कल्पना, स्वप्न आदि के अनुभव होते हैं वहीं होता हैं अनाहत चक्र का निवास; वहाँ जितना अधिक ध्यान दिया जायेगा उतनी ही अधिक हमारी चेतना उस चक्र पर यानी चौथें चक्र पर होगी। वहाँ ध्यान देने का अर्थ हैं कल्पना करनें में ध्यान देना और जब ध्यान देकर होश पूर्वक हमारी काल्पनिक शारीरिक इच्छाओं का अनुभव हमारें द्वारा किया जायेगा और जिन इच्छाओं या कल्पनाओं की पूर्ति की जा सकती हैं उन्हें ही पैदा होने देकर समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर उनकी पूर्ति निश्चित की जायेगी और जिन इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं उन्हें जन्म लेते देख, होशपूर्वक उनके जन्म को ही बाधित कर दिया जायेंगा तब काल्पनिक शारीरिक इच्छाओं से या कल्पनाओं की असन्तुष्टि नहीं रह सकनें से हमें यानी चेतना अर्थात् हमारी आत्म ऊर्जा या हमारें ध्यान को हमारें काल्पनिक शरीर से मुक्ति मिलेंगी और समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर हम हमारी इच्छा से काल्पनिक शरीर को जागरूकता पूर्ण या होश हीन यानी निद्रा में रख पायेंगे तथा इच्छा होने पर ध्यान की पर्याप्तता इसे इसकी आवश्यकता जितनी मात्रा में देने के पश्चात हमारी चेतना या आत्म ऊर्जा अर्थात् चैतन्य को पाँचवें चक्र यानी विशुद्धि चक्र की दिशा में मोड़ कर उसका स्थानांतरण पाँचवें चक्र में कर सकते हैं।

विशुद्धि चक्र :-

मस्तिष्क के जिस हिस्सें में हमें हमारी आत्मिक शारीरिक कामना जैसें की आत्म दर्शन या आत्म अनुभव होता हैं वहीं होता हैं विशुद्धि चक्र का निवास; वहाँ जितना अधिक ध्यान दिया जायेगा उतनी ही अधिक हमारी चेतना उस चक्र पर यानी पाँचवें चक्र पर होगी वहाँ ध्यान देना अर्थात् अपनी चेतना से चेतना का दर्शन या अनुभव करनें का कर्म करना जिस तरह हम ध्यान होश से अन्य कर्म करतें हैं। जब ध्यान देकर होश पूर्वक हमारी आत्मिक शारीरिक इच्छाओं का अनुभव हमारें द्वारा किया जायेगा और यदि उसकी पूर्ति की जा सकती हैं तो ही पैदा होने देकर समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर उनकी पूर्ति निश्चित की जायेगी और इच्छा की पूर्ति संभव नहीं होने से उसे जन्म लेते देख, होशपूर्वक उसके जन्म को ही बाधित कर दिया जायेंगा तब आत्मिक शारीरिक इच्छा से या आत्म दर्शन यानी ज्ञान की असन्तुष्टि नहीं रह सकनें से हमें यानी चेतना अर्थात् हमारी आत्म ऊर्जा या हमारें ध्यान को हमारें आत्मिक शरीर से मुक्ति मिलेंगी और समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर हम हमारी इच्छा से आत्मिक शरीर को जागरूकता पूर्ण या होश हीन यानी निद्रा में रख पायेंगे तथा इच्छा होने पर ध्यान की पर्याप्तता इसे इसकी आवश्यकता जितनी मात्रा में देने के पश्चात हमारी चेतना या आत्म ऊर्जा अर्थात् चैतन्य को छटवें चक्र यानी ब्रह्म चक्र की दिशा में कर उसका स्थानांतरण छटवें चक्र में कर सकते हैं। पांचवें शरीर का अनुभव हमारें साकार या निराकार शरीर के अत्यंत छोटे से हिस्सें या अंश का अनुभव या अनुभूति होगी हैं। पाँचवें शरीर का ज्ञान यह ज्ञात करवा देता हैं कि इस स्थूल या भौतिक शरीर के परें भी हमारा अस्तित्व हैं। हम अनंत काल तक के लियें हैं और अनंत काल से थे परंतु यह अनुभव हमें अलग अलग चेतना के अंश अनुभव करवाता हैं। इस शरीर का अनुभव हमें यह तो ज्ञान करवा देता हैं कि हम अमर तथा अनंत काल के लियें हैं परंतु हमारा दायरा भी अनंत हैं यानी हम असीम हैं अर्थात् हम अलग अलग अस्तित्व न होकर समूचित अस्तित्व हम ही हैं। आत्म शरीर का अनुभव करनें वाला यह अनुभव करते हैं कि मैं हूँ और जैसे मैं हूँ वैसे अलग अलग सभी आत्मायें हैं।

ब्रह्मं या आज्ञा चक्र :-

हमें जहाँ भी हमारी ब्रह्म शारीरिक कामना जैसें की ब्रह्म दर्शन या समुचें साकार अस्तित्व का अनुभव होता हैं वहीं होता हैं आज्ञा यानी ब्रह्म चक्र का निवास; वहाँ जितना अधिक ध्यान दिया जायेगा उतनी ही अधिक हमारी चेतना उस चक्र पर यानी छटवें चक्र पर होगी वहाँ ध्यान देना अर्थात् अपनी साकार अस्तित्व वाली चेतना से उस चेतना का दर्शन या अनुभव करनें का कर्म करना जिस तरह हम ध्यान या होश से अन्य कर्म करतें हैं। जब ध्यान देकर होश पूर्वक हमारी ब्रह्म शारीरिक इच्छाओं का अनुभव हमारें द्वारा किया जायेगा और यदि उसकी पूर्ति की जा सकती हैं तो ही पैदा होने देकर समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर उनकी पूर्ति निश्चित की जायेगी और इच्छा की पूर्ति संभव नहीं होने से उसे जन्म लेते देख, होशपूर्वक उसके जन्म को ही बाधित कर दिया जायेंगा तब ब्रह्म शारीरिक इच्छा से या अपनी साकारता के दर्शन यानी ज्ञान की असन्तुष्टि नहीं रह सकनें से हमें यानी चेतना अर्थात् हमारी ब्रह्म ऊर्जा या हमारें ध्यान को हमारें ब्रह्म शरीर से मुक्ति मिलेंगी और समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर हम हमारी इच्छा से ब्रह्म शरीर को जागरूकता पूर्ण या होश हीन यानी निद्रा में रख पायेंगे तथा इच्छा होने पर ध्यान की पर्याप्तता इसे इसकी आवश्यकता जितनी मात्रा में देने के पश्चात हमारी समूची साकार चेतना या ब्रह्म ऊर्जा अर्थात् चैतन्य को सांतवें चक्र यानी सहस्रार चक्र की दिशा में कर उसका स्थानांतरण सांतवें चक्र में कर सकते हैं। छटवें शरीर का अनुभव हमारें साकार या निराकार शरीर के अत्यंत छोटे से हिस्सें या अंश का अनुभव या अनुभूति नहीं होगी हैं। छटवें शरीर का ज्ञान यह ज्ञात करवा देता हैं कि इस स्थूल या भौतिक शरीर के परें भी हमारा अस्तित्व हैं ही हैं अर्थात् हम अनंत काल तक के लियें हैं और अनंत काल से थे यह अनुभव हमें अलग अलग चेतना के अंश अनुभव नहीं करवाता हैं। इस शरीर का अनुभव हमें यह तो ज्ञान करवा ही देता हैं कि हम अमर तथा अनंत काल के लियें हैं वरन इसके हमारा दायरा भी अनंत हैं यानी हम असीम हैं अर्थात् हम अलग अलग अस्तित्व न होकर समूचित अस्तित्व हम ही हैं। ब्रह्म शरीर का अनुभव करनें वाला यह अनुभव करते हैं कि मैं ही हूँ यानी ऐसा नहीं कि जैसे मैं हूँ वैसे अलग अलग सभी आत्मायें हैं।

सहस्रार चक्र :-

हमें जहाँ भी हमारी निराकार ब्रह्म शारीरिक कामना जैसें की निराकार ब्रह्म के दर्शन या समुचें निराकार अस्तित्व का अनुभव होता हैं वहीं होता हैं शुन्य शरीर यानी कि सहस्रार चक्र का निवास; वहाँ जितना अधिक ध्यान दिया जायेगा उतनी ही अधिक हमारी चेतना उस चक्र पर यानी सातवें चक्र पर होगी वहाँ ध्यान देना अर्थात् अपनी निराकार अस्तित्व वाली चेतना से उस चेतना का दर्शन या अनुभव करनें का कर्म करना। जब ध्यान देकर होश पूर्वक हमारी शून्य या निराकार शारीरिक इच्छाओं का अनुभव हमारें द्वारा किया जायेगा और यदि उसकी पूर्ति की जा सकती हैं तो ही पैदा होने देकर समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर उनकी पूर्ति निश्चित की जायेगी और इच्छा की पूर्ति संभव नहीं होने से उसे जन्म लेते देख, होशपूर्वक उसके जन्म को ही बाधित कर दिया जायेंगा तब शून्य निराकार शारीरिक इच्छा से या अपनी निराकारता के दर्शन यानी ज्ञान की असन्तुष्टि नहीं रह सकनें से हमें यानी शून्य निराकार चेतना अर्थात् हमारी निराकार ऊर्जा या हमारें ध्यान को हमारें हर एक शरीर से मुक्ति मिलेंगी और समय, स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर हम हमारी इच्छा से हर शरीर को जागरूकता पूर्ण या होश हीन यानी निद्रा में रख पायेंगे तथा इच्छा होने पर ध्यान की पर्याप्तता हर शरीर को उनकी आवश्यकता जितनी मात्रा में देने के पश्चात हमारी समूची निराकार और साकार चेतना या ऊर्जा अर्थात् चैतन्य को हर एक चक्रों की दिशा में कर उसका स्थानांतरण हर एक चक्र में कर सकते हैं। सातवें शरीर का ज्ञान यह ज्ञात करवा देता हैं कि हर शरीर में और उनके परें भी हमारा अस्तित्व हैं अर्थात् हम अनंत काल तक के लियें हैं और अनंत काल से थे यह अनुभव हमें अलग अलग चेतना करवाता हैं। इस शरीर का अनुभव हमें यह ज्ञान करवा देता हैं कि हम अमर तथा अनंत काल के लियें हैं वरन इसके हमारा दायरा भी अनंत हैं यानी हम असीम हैं अर्थात् हम वह होने के साथ केवल वो हैं अपितु जो नहीं भी हैं वह भी हम ही हैं। अंतिम शरीर का अनुभव करनें वाला यह अनुभव करता हैं कि मैं हूँ तो परंतु जो नहीं हूँ वह भी मैं ही हूँ।

- © रुद्र एस. शर्मा (०,∞)
समय/दिनांक/वर्ष - २३:१५/०२:०१/२०२२