Ishq e Das (Devdas) books and stories free download online pdf in Hindi

ईश्क ए दास (देवदास)

वही है उम्मीद, वही मेरे सुकून सा है,
मेरे सनम का शहर, एक खौफनाक समंदरसा हैं।

लफ्ज़ निकलेंगे सिर्फ तेरी ही तारीफ ए मोहब्बत के,
हमारे लिए तो ईश्क ही करम ईश्क ही कुसुर सा है।


सर्दी की एक सुबह मैंने राजस्थान से दिल्ली के लिए बस पकड़ी। कल रात ही अपनी एक खास सहेली को विदा करके मैं आज दिल्ली जा रही थी। मैंने अपनी टूर पहले से ही सेट कर रखी थी। राजस्थानमे दोस्त की शादी, फिर अगली सुबह दिल्ली के लिए निकलना, दिल्ली का पंद्रह दिनोका टूर और फिर दिल्लीसे ट्रेनमे वापस अपने घर मुंबई। दिसंबर का महीना था, और कड़ाके की ठंड, विंडो सीट पे मैं बैठी थी। दरअसल विंडो सीट मेरी नहीं किसी और की थी, पर जिसकी थी वो अभी तक आए नही थे, इसलिए मैने सोचा के जो भी आएगा उसे सीट एक्सचेंज के लिए कह दूंगी।

ठंडी हवा मस्त होकर अपनी ठंड बहा रही थी, जैसे कोई मां बेटी का सिर सहला रही हो। थोड़ी ही देर में मेरी आंख लग गई। कुछ देर बाद ऐसा मेहसूस हुआ जैसे मैं किसी सुकून की जगह, बड़ी दिल्लगी से सोई हुं, वो स्पर्श, वो हाथ, वो भीनीसी महेक, जैसे उससे मेरा कोई गेहरा नाता हो। अचानक जोरका जटका लगा, और बस रुक गई, मेरा सर भी शायद आगेवाली सिटके हैंडलसे टकरा जता, अगर उसने मुझे पकड़ा नही होता। मैं आंख खोलके अभी होश संभाल पाऊं उससे पहले उसने अपना जैकेट उठाया और बाहर चला गया। और मैं बस उसे पीछे से देखती रही।

बस रस्ते में एक होटेल पर रुकी थी, सारे लोग फ्रेश होने और चाय पीने नीचे चले गए। यार जाना तो मुझे भी था, चाय की तलप तो मुझे भी लगी थी, पर शादी में इतना नाचा था की अब पैर चल नही रहे थे, खिड़किसे बाहर देखा तो होटेल का स्टाफ काफी बिजी लग रहा था, और क्यों न हों यार, इतने सारे कस्टमर एकसाथ जो मिले थे।

चाय की खुश्बू मेरे दिमागको बेचैन कर रही थी, और चाय की तलप से मजबुर मैने एक्सक्यूज़ मि, प्लीज एक चाय यहां देंगे, प्लीज, और साथमे कुछ गरम नाश्ता भी, जो भी आपके यहां अच्छा हो प्लीज। सारे लोग मुझे ऐसे देख रहे थे, जैसे मैंने उधार पे ताजमहल मांग लिया हो। मैने भी सबको इग्नोर ही किया, यार क्या करे चाय का सवाल था। और चाय के कुछ भी एडजस्ट कर सकते हैं हम। मैं अपनी हैंडबैग से खुल्ले पैसे निकाल रही थी, अभी मेरी आंखो के आगे गरमा गरम चाय और पकोड़े आ गए।
मैने नजर उठाकर देखा, शायद ये वही महाशय थे जो मेरी पासवाली सीट पे बैठे थे, जिन्होंने मेरा सर टकराते हुए बचाया था। मैने उनसे थैंक्यू कहकर चाय और पकोड़े लिए, और उन्हें पैसे देने लगी। पर ये क्या यार उन्होंने पैसे नही लिए, मेरी बहोत जिद करने पर भी नही माने, और आखिरकार मैने ही हार मान ली। मैने उनसे पुछा,"जी आपने क्यों लाया, स्टाफ से कोई आकर दे ही जाता ना"। उन्होंने कहा उनके पास बहोत रश है और मैं यही आ रहा था इसलिए ले आया। मैने एकबार फिर उन्हे थैंक्यू कहा, और पकोड़े ऑफर किए, पर उन्होंने नही लिए, ये कहकर के अभी भूख नही है।

भई मैने तो बड़े चावसे अपना चाय नाश्ता खत्म किया, तब तक वे सामने की सीट पर बैठ गए, मेरा खत्म होने मैने उन्हे अपनी सीट पर आनेको कहा, जो की पहले ही मैने हड़प ली थी। पर उन्होंने तो वो भी मना कर दिया, ये कहकर की, वे जहां है वही ठीक है। मैने भी ओके कहकर बात खत्म की। सारे पैसेंजर्स वापस आ गए, बस वापस दिल्ली की ओर दौड़ने लगी। मुझे काफी बोर हो रहा था, फोन में भी बैटरी रखना जरूरी था, वर्ना अगर पापा का फोन आया और बात न हो तो, पापा मुझे ढूंढते हुए दिल्ली आ जाएंगे।

अपनी बोरनेस को भागने के लिए मैंने उनसे बात करना चाही। पर वो कुछ लिख रहे थे, मैने पढ़ने को नजर गुमाई, तो मुंह से आवाज निकली wooow इतनी अच्छी शायरी, ओह माई गॉड, बहोत अच्छी है पर बहोत दर्द है इसमें। उन्होंने एक हल्की सी मुस्कान से मेरी ओर देखा। उनके होठों पे मुस्कान थी और आंखे नम। शायद जनाब बड़े गम में है, ये सोचकर फिर मैं चुप हो गई। पर क्या करें यार हु ही ऐसी, ज्यादा देर शांत नही रह सकती, इसलिए फिरसे एक्सक्यूज मि कहकर उन्हें बुलाया। अपना हाथ आगे बढाया और कहा हाय आईएम रिया। रिया पटेल फ्रॉम मुंबई। उन्होंने इसबर कुछ नही बोला, बस चुप चाप अपनी शायरी लिख रहे थे। मुझे लगा शायद मुड़ नही है बात करने का, इसीलिए कोई जवाब नही दिया। पर नाम तो बता सकता था ना, खडूस अब दिल्ली तक इसके साथ केसे निभेगी।


दोस्तों, ये नई कहानी आपको कैसी लग रही है, आपके कॉमेंट्स करके जरूर बताना। जल्द ही मिलेंगे नए भाग के साथ, तब तक जय श्री कृष्ण 🙏🙏🙏