Vishya ka bhai - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

वेश्या का भाई - भाग(५)

इन्द्रलेखा भीतर जाकर भगवान के मंदिर के सामने खड़ी होकर फूट फूटकर रो पड़ी और भगवान से प्रार्थना करते हुए बोली....
हे!ईश्वर! ये कौन-कौन से दिन दिखा रहा है मुझको,वो नन्ही सी बच्ची है कुछ तो तरस खाओ उस पर,कितनी भोली और मासूम है बेचारी,मुझ में वो अपनी माँ का रूप देखती है,लेकिन मैं उसे अपनी बेटी भी तो नहीं कह सकती क्योकिं जमींदार साहब ने उसे अपनी रखैल बनाकर रखा है,मैं उससे कौन सा नाता जोड़ू कुछ समझ में नहीं आता,
लेकिन मैं एक औरत हूँ और वो भी एक औरत है तो उससे हमदर्दी का नाता तो जोड़ ही सकतीं हूँ,कितनी आशा के साथ वो मुझे देख रही थी कि शायद मैं उसकी कोई मदद कर सकूँ,लेकिन मैं अभागन कैसे उसकी मदद करूँ?कुछ समझ नहीं आता,उसकी मदद करने के लिए मुझे अपने वहशीं और दरिन्दे पति से टकराना होगा,कहाँ से लाऊँगी मैं इतनी हिम्मत?जो औरत आज तक अपने पति की किसी भी बात की अवहेलना ना कर सकीं हो भला वो उस लड़की के लिए कैसे आवाज़ उठा पाएगी?
दया करो ईश्वर ! उस बच्ची के लिए कुछ तो करो,कोई तो रास्ता दिखाओ मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा,लेकिन शायद तुम भी यही चाहते हो कि उस बच्ची की मदद मैं करूँ,प्रभु! तुम शायद नहीं चाहते कि मैं तुम्हारे भरोसे बैठूँ,क्योकिं मैं तो सालों से तुम्हारे भरोसे बैठी हूँ और मेरे जीवन में कुछ नहीं बदला और अगर जीवन में कुछ बदलना है तो स्वयं की मदद स्वयं ही करनी पड़ती है तभी भगवान भी रास्ता दिखाते हैं,,
ये सब बातें इन्द्रलेखा ने भगवान से कहीं और फिर उस दिन के बाद इन्द्रलेखा ने उस लड़की की मदद करने की ठान ली।
अब इन्द्रलेखा जब भी घर के आँगन में आती तो एक नज़र कुशमा के छज्जे की ओर जरूर देखती,जब उसे कुशमा दिख जाती तो उसे देखकर वो मुस्कुरा देती फिर एक दिन इन्द्रलेखा हिम्मत करके कुशमा के कमरें में अपने हाथों से खाना बनाकर थाली परोसकर ले गई,कुशमा ने जैसे ही इन्द्रलेखा को अपने कमरें में देखा तो कुछ अचंभित सी हुई और बोली....
अरे! जमींदारन जी! आप! और मेरे कमरें में,आइए....आइए....ना!.....बैठिए।।
और उसने इन्द्रलेखा से अपने बिस्तर पर बैठने को कहा.....
इन्द्रलेखा बोली.....
मैं इस बिस्तर पर ना बैठूँगी।।
क्यों? ये मेरा बिस्तर है इसलिए,आप मेरे बिस्तर को छूना नहीं चाहतीं,कुशमा बोली।।
ऐसी बात नहीं है,इन्द्रलेखा बोली।।
तो कैसीं बात है? जमींदारन जी।।
वो इसलिए मैं इस बिस्तर पर नहीं बैठना चाहती क्योकिं हर रात इसी बिस्तर पर तुम रोती हो तड़पती हो,मुझे इस बिस्तर से नफरत है,इन्द्रलेखा बोली।।
आपको भी मेरे दर्द का एहसास है जमीदारन जी!कुशमा ने पूछा।।
मैं भी तो एक औरत हूँ,तुम्हारे दर्द को महसूस कर सकती हूँ,इन्द्रलेखा बोली।।
चलो किसी को तो मेरे दर्द का एहसास है,कुशमा बोली।।
अच्छा!ये सब छोड़ो आज मैने अपने हाथों से खाना बनाया था इसलिए तुम्हारे लिए भी ले आई,इन्द्रलेखा बोली।।
आप मेरे लिए खाना लाईं हैं,कुशमा ने पूछा।।
नहीं! चुड़ैल के लिए लाई हूँ,इन्द्रलेखा बोली।।
ये सुनकर कुशमा हँस पड़ी और साथ साथ इन्द्रलेखा भी अपनी हँसी ना रोक पाई।।
आप बहुत अच्छी हैं,कुशमा बोली।।
और तुम भी बहुत प्यारी हो,इन्द्रलेखा बोली।।
आपको देखकर मुझे मेरी माँ की याद आ जाती है,कुशमा बोली।।
तुम उनसे मिलना चाहती हो,इन्द्रलेखा ने पूछा।।
लेकिन मेरे परिवार को तो जमींदार साहब ने मरवा दिया है,कुशमा बोली।।
तुम्हें किसने बताया ये सब?इन्द्रलेखा ने पूछा।।
स्वयं जमींदार साहब ने,कुशमा बोली।।
और उस दिन इसी तरह दोनों के बीच बातें होतीं रहीँ,अब इन्द्रलेखा अक्सर कुशमा से मिलने उसके कमरें आ जाती,दोनों मिलकर बातें करतीं और अपने दुःख बाँटतीं ,दोनों को एकदूसरे से बात करके अच्छा लगता लेकिन इस बात की खबर जमींदार को हो गई और फिर एक रोज़ जमींदार इन्द्रलेखा के पास आकर उस पर बहुत बिगड़ा और उसने इन्द्रलेखा से कहा.....
तू उस रखैल के पास क्यों जाती हैं?
उसे रखैल भी तो आपने ही बनाया है,इन्द्रलेखा बोली।।
इन्द्रलेखा का जवाब सुनकर जमींदार उससे गुस्से से बोला...
बहुत जुबान चल रही है,अब तो बोलना भी सीख गई है,
क्या करूँ? आपने बोलने पर मजबूर कर दिया,इन्द्रलेखा बोली।।
मेरे खिलाफ जाएगी तो बोटियाँ कटवाकर चील-कौवों को खिला दूँगा,जमींदार बोला।।
चलो किसी के कुछ तो काम आऊँगी,इन्द्रलेखा बोली।।
तो तू ऐसे नहीं मानेगी हरामजादी! और इतना कहकर गजेन्द्र इन्द्रलेखा की ओर मारने को बढ़ा....
इससे पहले कि वो कुछ कर पाता इन्द्रलेखा ने जोर का झापड़ गजेन्द्र के गाल पर रसीद दिया,गजेन्द्र झापड़ खाकर गुस्से से तमतमा गया लेकिन फिर झट से इन्द्रलेखा ने गजेन्द्र के गालों पर जल्दी जल्दी दो तीन झापड़ और रसीद दिए और बोली.....
मैं आपसे उम्र में बहुत छोटी हूँ और आपके मुकाबले अभी जवान भी हूँ ,एकाध से अकेले तो निपट ही सकती हूँ,इसलिए मेरे झापड़ को दिल से मत लगाइएगा छोटी समझकर माँफ कर दीजिएगा,ऊपर से मैं भी आपकी तरह जमींदारों के खानदान से हूँ,अन्तर ये हैं कि आप गलत करते थे और मैं सही भी नहीं कर पाती थी,क्योकिं जंग लग गया था मुझमें,दिल भीतर से जर्जर हो चुका आखिर इन्सान हूँ इतना सबकुछ सहते सहते भीतर से टूट गई थी या ऐसा कहिए कि हिम्मत ही नही थी मुझमे गलत के खिलाफ आवाज़ उठाने की,लेकिन ये मत समझिएगा कि मैं कुछ कर नहीं सकती,
मेरी शराफत को मेरी कमजोरी समझने की भूल कभी मत करिएगा क्योकिं जब सीता चण्डी बनने पर आती है ना तो स्वयं भगवान शंकर को भी उनके पैरों पर गिरकर उन्हें शान्त करना पड़ता है,औरत के केवल वही रूप नहीं होते जिनमें उसे अबला और बेचारी कहा जाता औरत के दूसरे रूप दुर्गा और चण्डी भी होते हैं,अगर मेरी बात समझ में आ गई हो तो यहाँ से चुपचाप दफ़ा हो जाइए।।
इन्द्रलेखा की बात सुनकर जमींदार गजेन्द्र सकपका गया और उस समय उसने इन्द्रलेखा के पास से जाने में ही अपनी भलाई समझी,लेकिन उसने मन में ठान लिया था कि वो इस बात का बदला उससे जरूर लेकर रहेगा और फिर वो इस मौके की तलाश में रहने लगा।।
फिर एक रात उसने कुशमा के साथ जबरदस्ती करने की कोश़िश की,कुशमा बोली...
जमींदार साहब! मत कीजिए,मुझे ये सब अच्छा नहीं लगता ।।
मैं जानता हूँ मेरे खिलाफ तेरे कान किसने भरें हैं? गजेन्द्र बोला।।
ऐसा कुछ नहीं है,कुशमा बोली।।
ऐसा ही हैं मैं सब जानता हूँ,गजेन्द्र बोला।।
नहीं! जमींदार साहब! मत कीजिए,कुशमा चीखी।।
तू अपने आप को जाने क्या समझने लगी है? अभी तेरी अकल ठिकाने लगाता हूँ,गजेन्द्र बोला।।
और तभी कुशमा के दरवाजे धक्के के साथ खुल गए और दरवाजे की तरफ देखते ही गजेन्द्र के होश उड़ गए,दरवाजे पर इन्द्रलेखा ,गजेन्द्र पर बंदूक ताने खड़ी थी और गजेन्द्र से बोली.....
खबरदार! लड़की को छोड़ दो।।
तभी गजेन्द्र अपने बेटो को जोर जोर से आवाज़ लगाने लगा,उसकी आवाज़ सुनकर सब नौकर और घर के सभी सदस्य कुशमा के कमरें के दरवाजे की ओर भागें और वहाँ का नजारा देखकर हैरान हो उठे तभी इन्द्रलेखा बोली.....
खबरदार! जो किसी ने भी आगे बढ़ने की कोश़िश की,गोलियों से भून दूँगीं,आज या तो ये लड़की यहाँ से जाकर रहेगी या फिर मेरी जान जाएगी और किसी ने भी कुछ किया तो अपनी जान गँवा बैठेगा,
चल! कुशमा मेरे पीछे पीछे आ ,तुझे मैं गाँव के बाहर पक्की सड़क तक छोड़कर आती हूँ,आज तू इस कैद़खाने से आज़ाद होकर रहेगी चाहे इसके लिए मुझे अपनी जान से ही हाथ क्यों ना धोने पड़े?
और इतना कहकर इन्द्रलेखा ,कुशमा के साथ भागने को हुई तो तभी इन्द्रलेखा का बड़ा बेटा आया और उसने कुशमा का हाथ पकड़ लिया.....
इन्द्रलेखा गुस्से से गुर्राई और बोली....
लड़की का हाथ छोड़ दे ....
नहीं छोड़ूगा,मैं भी तो देखूँ कि मेरी माँ में कितना दम हैं,बड़ा बेटा बोला।।
और फिर इन्द्रलेखा ने आव देखा ना ताव झट से बड़े बेटे के सीने में एक गोली उतार दी,तब बाप गजेन्द्र ने छोटे बेटे को ललकारते हुए कहा....
तू खड़ा क्यों हैं ? तूने क्या अपने हाथों में चूड़ियाँ पहन रखीं हैं?कहाँ गई तेरी मर्दानगी? एक औरत का सामना नहीं कर पा रहा तू!
इतना सुनते ही छोटा बेटा भी इन्द्रलेखा की बंदूक छीनने के लिए आगें बड़ा तो इन्द्रलेखा ने उसका भी वही हस्र किया,फिर वो कुशमा को लेकर रात के अँधेरे में निकल पड़ी,तभी जमींदार भी उसके पीछे पीछे अपने लठैतों को लेकर भागा....
रात का अँधेरा और घना जंगल दोनों बेतहाशा भागे चली जा रही थी.....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा....