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बागी स्त्रियाँ - (भाग अट्ठाइस)

मैं (नन्हीं मीता)परेशान थी कि मुझे गोली बनाना कैसे आएगा?गोली से बहुत कुछ बन जाता हैं। उसको दाएं -बाएं, ऊपर- नीचे से मिटाने से ,उस पर आड़ी -तिरछी रेखाएं खींचने से,उसकी संख्या बढ़ाने से बहुत से अलग नाम वाले अक्षर बन जाते हैं पर कमबख़्त गोली ही नहीं बनती।मैंने माँ के कहने से विद्या माई की पूजा की।कोयला बुककर मेरी पटरी को चमकाया गया।दूधिया घोलकर गाढ़ी पेस्ट बनाई गई।उसमें मोटा धागा डालकर पटरी पर दीदी ने लाइनें खींच दीं।भाई ने नरकट की कलम गढ़ दी। अब उस कलम को दूधिया के घोल में डूबो कर लाइन के बीच गोलियां बनानी थी,जो मुझे ही करना था।माँ ने हाथ पकड़कर पहली लाइन में गोलियाँ बनवा दी।बाकी पूरी पटरी मुझे भरनी थी। तभी वहां बाबूजी आ गए और माँ से बोले--यह कलूटी मेरी बेटी नहीं है।कुछ नहीं आता इसे।अनपढ़ गंवार रहने दो इसे।घर का काम सिखाओ।चौका -बासन करेगी दूसरों के घरों में।
बाबूजी की बात मेरे दिल पर लगी।मैं बाबूजी को बहुत प्यार करती थी,पर वे मुझे बिल्कुल प्यार नहीं करते थे।मैं उनकी अनचाही औलाद जो थी।मैं किसी भी तरह उनकी नजरों में अच्छा बनना चाहती थी ताकि वह मुझे भी प्यार करें। मैंने कई बार बाबूजी को माँ से प्यार करते देखा था। वे बच्चों से आँख बचाकर कभी माँ को गले लगा लेते कभी चूम लेते थे।भाई को भी वे गोद में उठाकर चूमते थे।मैं भी उनकी गोद में बैठना चाहती थी।उनकी छाती से लिपटना चाहती थी।चाहती थी कि वे मेरे माथे को चूमे और कहें कि यह मेरी अच्छी बेटी है।
बाबूजी मेरे जीवन के पहले पसंदीदा पुरुष थे।गोरे -चिट्टे,लंबे -छरहरे,अच्छे नाक -नक्श वाले।हालांकि मेरे नाक -नक्श भी बाबूजी जैसे थे,पर जाने कैसे मेरा रंग सांवला हो गया था,जबकि मेरे परिवार में सभी गौर वर्ण के थे।
बाबूजी का अटेंशन पाने के लिए मुझे लिखना सीखना था। उस दिन उनसे डांट खाकर मैं छत के एक कोने में अपनी पटरी लेकर बैठ गई ।सामने चित्रों वाली किताब थी।जिसमें कहीं अनार था कहीं आम।कहीं इमली लटक रही थी तो कहीं मीठी ईख थी। कहीं उल्लू था तो कहीं स्वेटर वाला ऊन।चित्रों को मैं उनके नाम से पहचानती थी पर लिखने नहीं आता था।आज मैं कोशिश करूंगी नहीं तो बाबूजी मुझे कभी प्यार नहीं करेंगे।मैंने विद्या माई को प्रणाम किया।कलम दवात में डुबोई और गोली बनाने लगी।मेरे हाथ दुःख गए और मैं जाने कब वहीं लुढ़क गई।मैंने सपना देखा कि मैं उड़ रही हूँ और उड़ते -उड़ते एक सुंदर बागीचे में पहुंच गई हूँ।बाग हरा -भरा है।चारों तरफ मनमोहक फूल खिले हैं।फलों वाले बहुत से पेड़ है। तभी मेरी नजर एक अद्भुत पेड़ पर पड़ती है ।जिस पर कहीं अनार है ,कहीं आम ,कहीं खट्टी इमली तो कहीं मीठी ईख। मैं सब फलों को तोड़ लूँगी और बैठकर इत्मीनान से खाऊँगी।किसी को नहीं दूँगी पर मैं इन्हें तोड़कर रखूँगी कहाँ!तभी मैंने देखा मेरी पटरी टोकरी बन गई है ।मैं खुश हो गई और मैंने एक -एककर उन अद्भुत फलों को टोकरी में भरना शुरू किया।
'मीता मीता...' मुझे लगा माँ पुकार रही है।और मैं उस जादुई पेड़ पर चढ़ी हुई हूँ।तभी मुझे लगा कि माँ ने मुझे गोद में उठाया है और बाबूजी ने मेरे माथे को चूमा है।मेरी आंखें खुल गईं।माँ और बाबूजी मेरे सिरहाने बैठे हुए थे और मुझे प्यार से निहार रहे थे।बाबूजी के हाथ में मेरी पटरी थी,जिस पर मेरे तोड़े सभी फलों के अक्षर चमक रहे थे।मैंने अ से ई तक लिख लिया था।
"लड़की पर सरस्वती की कृपा हो गई है।जो गोली नहीं बना पाती थी उसने अ से ई तक लिख लिया।"माँ घर के लोगों से लेकर बाहर मुहल्ले के लोगों को मेरी पटरी दिखा रही थी और मैं लजाई -शरमाई घर के कोने में छिपी थी।
उस दिन के बाद से मैं पढ़ाई- लिखाई के लिए ही जानी जाने लगी।सचमुच मुझ पर सरस्वती माई की कृपा हो गई थी।
अब मेरे लिए खेल -कूद से ज्यादा पढ़ाई की अहमियत थी।स्कूल से आते ही मैं किताब लेकर बैठ जाती। माँ पुकारती तब खाना खाती।सुबह चार बजे उठकर घर की सीढ़ियों पर बैठकर रट्टा मारती।मेरी आवाज से अब मुहल्ला जागता था।अब मुझे बिगड़ैल लड़की से पढ़ाकू लड़की कहा जाने लगा था।मैं किशोरावस्था में प्रवेश कर चुकी थी।
मेरी उद्दंडता समाप्त हो गई थी।हालांकि अब भी मैं पेड़ों पर चढ़ती थी।मुहल्ले के बच्चों के साथ खेलती थी पर मेरा पूरा फोकस पढ़ाई पर था।माँ को पढ़ने का बहुत शौक था पर वे पांचवी से अधिक नहीं पढ़ पाई थीं ।पिताजी भी बस सातवीं पास थे।मां अपने शौक मुझसे पूरा कर रही थी।
मैं एक बात तो भूल ही गई कि मैं श्रीकृष्ण की पूजा करती थी।वे मेरे पसंदीदा देवता थे।मैं कभी राधा बनती कभी मीरा।भजन गाती नृत्य करती।सात्विक जीवन था मेरा ,सात्विक आचरण भी।मैंने मांस -मच्छी खाना भी छोड़ दिया था।हमेशा कृष्ण के सपने देखती।पढ़ाई,पूजा -पाठ के साथ प्रकृति के बीच रहना इसी में किशोरावस्था गुजर रहा था।हाईस्कूल में टॉप किया तो पिताजी और माँ ने दूसरी बार मुझे प्यार किया क्योंकि मैं अपने खानदान की पहली लड़की थी,जिसने हाईस्कूल पास किया था।
बस वहीं तक मैंने जीवन जिया क्योंकि उसके बाद थी मेरे जीवन का दूसरा अध्याय शुरू हो गया और मैं अर्जुन से बांध दी गई।