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नवगीत - नए अनुबंध ( पांच नवगीत)

१-नई पौध
नई पौधकी बदचलनी को
बरगद झेल रहे,

ऊँची-नीची पगडंडी पर
पाँव फिसलते हैं ,
एक-दूसरे से मिलजुल कर
कब ये चलते हैं .

गुस्से की अगुवाई मे
कुछ ऐसे खेल रहे .

नातों की सीमाएँ केवल
स्वार्थों तक जाती ,
लाभ कमाने की इच्छा
बस अर्थों तक जाती .

लाभ-हानि के चक्कर मे
ये पापड़ बेल रहे .

स्वाभिमान कहकर घमंड को
ये इतराते हैं ,
परंपरा को भूल नए अनुबंध
बनाते हैं .

अपने मन की करने मे
होते बेमेल रहे .

सीख नही,इनको मनकी
करनेकी छूट मिले ,
मेल मिले अपने कामों में
या फिर फूट मिले .

रहें अकेले खुश समाज मे
ये तो फेल रहें


२-गीत सरस गाता हूँ
चाँद तो नहीं हूँ पर ,
चाँदनी बिछाता हूँ .
गीत सरस गाता हूँ .

जाल मे मछेरे के ,
घूमती फँसी उलझी .
पीरकी गुलामीकी ,
आगमे तपी झुलसी .

चाहत मे जीवन के ,
मौत को रिझाता हूँ .
गीत सरस गाता हूँ .

सागर की लहरों मे ,
खेलती इठलाती .
सरिता की नवधारा ,
चुपके से कह जाती .

परिचय मे अपनों के ,
डूबता उतराता हूँ .
गीत सरस गाता हूँ .

ज्वारों केस्वागत मे ,
तिल-तिल कर जलताहूँ .
वेगमयी लहरों के ,
साए मे ढ़लता हूँ .

पूनम का सम्मोहन ,
भूमि पर बिछाता हूँ .
गीत सरस गाता हूँ .

३-कभी-कभी

कभी-कभी अनजाने भयके ,
साए से ये मन डरता है .

चौराहों से सड़कों के ,
नातें अब चुगली करते हैं .
तीव्र वेग से चलने वाले ,
अपनी ही जिद धरते हैं .

बहक रहे अनगढ़ भावों के,
परिणामों से तन डरता है .

कलियाँ नही सुरक्षित मिलतीं ,
अपने गुलशन की डाली पर .
पल-पल डरकर सिमट रही वे,
नही भरोसा है माली पर .

पीड़ित कलियों की गुहार से ,
बेचारा उपवन डरता है .

कोर्ट-कचहरी थानों में जब,
फरियादी कोई जाता है ,
सोच समय की कातरता को ,
सिहर-सिहर कर भय पाता है .

विष से भरे मनुज साँपों से ,
आतंकित चंदन डरता है .

सरकारी दफ्तर का बाबू ,
जब अपनी आख्या लिखता है .
मानो वह कोरे कागज पर ,
जीवन की व्याख्या लिखता है .

दबी फाइलों की कराह से ,
मेरा अन्तर्मन डरता है .

४-मन

मन से प्यारा, मन से सच्चा
और न कोई दूजा है।
अगर हमारा मन है सच्चा
यह व्रत है या रोजा है

भेद-भाव या धूप-छाँव की
बाधा से डरना कैसा
आलोकित करता है तम को
मन अवलम्ब अजूबा है।

शीत-उष्ण के भाव अनेकों
मन को उद्वेलित करते
अपनी तासीरों के बल पर
इसमें चंचलता भरते

मानव की मर्यादा का
संकेतक इसको कहते
स्वयम् सचेतक निज करनी का
किसने इसको बूझा है

स्तुति निन्दा का यही प्रवर्तक
सुख-दुख इसने झेला है।
अपने और पराये करता
रहता मस्त अकेला है

निज विवेक पर आधारित हो
जिसने सम बर्ताव किया
वही सृष्टि में सर्वोत्तम है।
उसको सब-कुछ सूझा है

मान और अपमान कदाचित्
जिसे नहीं भरमाता है।
यश अपयश के अपवादों से
जिसका रहा न नाता है।

गर्व नहीं जिसको अपने पर
या अपने अधिकारों पर
ज्ञात और अज्ञात उसी ने
अपने पन को खोजा है।

मन की अगर तरंग रोक लो
यही भजन है ईश्वर का
मन को खुला छोड़ दोगे तो
बन्धन बन जाता नर का

मन के हारे हार यहाँ है
मन के जीते जीत यहाँ
मन से बोओ मन से काटो
मन से मन की पूजा है

५-कविता


कविता वही जिसमें प्रणय की
धुन सुनाई दे

सुन्दर सलोनी सृष्टि की
रूनझुन सुनाई दे

अपने-पराये भेद सब
दिल से मिटाये जो

ऐसी अनोखी अनकही
सरगम सुनाई दे

प्रत्येक अक्षर शब्द में
मोती जड़े से हों

हर एक छोटी बात के मतलब
बड़े से हों

गुरु और लघु की हो व्यवस्था
छन्द के अनुसार

वक्तव्य में अनुभूति की
प्रतिमा दिखाई दे

सुर ताल के तट से बँधी
जैसे नदी चले

उस भाँति मर्यादा लिए हर
भाव-भूमि मिले

पाती लयश्रुति जिस तरह
खोया निजी मुकाम

ऐसी गले के दर्द की
कोई दवाई दे

पद-मित्रता का भाव हो
माधुर्य का सगा

रस के प्रवाह में न
कोई बाँध हो लगा

जैसे किसी पहाड़ पर
कोई घटा चढ़े

उस भाँति कविता का नशा
चढ़ता दिखाई दे

हर गीत में आलाप का
जिस भाँति होता नाद

हो दीप्ति ऐसी ओज की
हो अर्थ का प्रसाद

कविता वहीं जो शम्भु की
विभूति सी पवित्र

हर पक्ति पर जिसमें
समाज वाहवाही दें