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जुदाई



घर का काम पूरा हो चला था। कुछ ही दिनों बाद उन्हें दूसरी मंजिल पर सामान जमा कर रखना था। रूमाना को रह रहकर ख्याल आ रहा था कि आज के दिन अम्मी अगर जिंदा होती तो कितना बेहतर होता। रूमाना के घर में दूसरी मंजिल पर निर्माण कार्य चल रहा था। अम्मी यानी उसकी सास जो कि बहुत ही हरदिल अज़ीज खातून थीं। एक सरकारी स्कूल में अध्यापिका थीं। बहुत चाव के साथ अपनी बहू को ब्याह कर लाई थीं। उनके सामने ही उनकी पोती सना पैदा हुई। अब क्या था सुबह स्कूल जाने से पहले पोती के साथ वक्त गुजारती और स्कूल से आकर फिर नन्हीं गुड़िया के साथ रम जाती। रूमाना को बहुत अजीब लगता कि घर में नाना-नानी, मामू-मुमानी सबका जिक्र होता मगर नहीं चर्चा होती कभी तो उसके ससुर की। न जाने क्यों कोई भी उनकी बात ही नहीं करना चाहता था। यहां तक मां बेटे के बीच भी उन्हें लेकर कोई बात नहीं होती थी। एक दिन संडे का दिन था और अयाज किसी काम से ग्वालियर गए हुए थे। उस दिन रूमाना ने बहुत डरते हुए अम्मी से पूछा कि अब्बा कहां पर हैं। मेरी कभी उनसे मुलाकात ही नहीं हुई। तब उस वक्त उसकी सास यानी आफरीन के चेहरे पर कई रंग आकर चले गए। इसके बाद उस दिन आफरीन ने अपनी गुजरी हुई जिंदगी की दास्तान सुनाई।
आफरीन उन दिनों बीएड कर रही थी। एक दिन कॉलेज से लौटी तो उसके अब्बा तस्बीह पढ़ रहे थे। अब्बा को चाय देकर आफरीन अपने काम में लग गई। एक दिन उसकी अम्मी रूखसार बेगम ने उससे कहा कि आज कॉलेज मत जाना और जल्दी से तैयार हो जाओ। आज तुम्हारी बड़ी अम्मा आ रही हैं। आफरीन ने मुस्कुराते हुए कहा अगर में नहीं तैयार हुई तो क्या बड़ी अम्मी लौट जाएंगी भला। तब उसकी अम्मी ने बहुत प्यार से आफरीन को अपने गले से लिपटाकर राज खोला कि वो तो कल दिन से ही वह बेहद खुश थी कि जब उसके लिए पैगाम आया था,अब्दुल का। अब्दुल उसके ताया यानी बड़े अब्बा का बड़ा बेटा था। जो फर्नीचर बनाने का कारोबार संभाल रहा था। सब देखे भाले लोग थे। घर में किसी को भी एतराज नहीं था। इसलिए आने वाली मीठी ईद के बाद धूमधाम से उसका निकाह हुआ और वह अपने पति के घर रूखसत होकर आ गई। अपना घर और एक प्यार करने वाला शौहर, जाने पहचाने लोग और भला क्या चाहत होती आफरीन की। दिन-रात जैसेे पुरसुकून से गुजर रहे थे।
एक दिन अब्दुल और उसके परिवार के पास एक बुलावा आया पाकिस्तान से वहीं रिश्तेदार के घर विवाह होने की खबर आई। करीब छह महीने पहले से न्यौता भेजने के पीछे यही वजह थी कि हिंदुस्तान से जो भी मेहमान जाएंगे तो उन्हें पहले से टिकट और वीज़ा का इंतजाम करना होगा। आफरीन और उसके ससुराल वालों ने तो मना कर दिया जाने से मगर अब्दुल को पता नहीं क्या सूझी उसने वहां जाने का इरादा कर लिया। आफरीन घबरा गई कि अभी तो इतना कम अरसा गुजरा है साथ रहते हुए और ये तीन महीने के लिए पाकिस्तान जाना चाह रहे हैं। उसने रात में अब्दुल के सीने पर सिर रखकर कहा आप मत जाइए ना। मेरा दिल पता नहीं क्यों घबरा रहा है। अब्दुल ने प्यार से उसे समझाते हुए हुए कहा कि पगली कुछ ही दिन की तो बात है। तुम थोड़े दिन मायके में अम्मां के यहां आराम फरमा आना। आफरीन ने कहा फिर भी आप जल्दी आने की कोशिश करना। अब्दुल ने हंसते हुए बोला अरे बाबा पहले वहां जाने तो दो तब ही तो जल्दी लौटकर आउंगा। टिकट बुक करते और वीसा मिलने की कवायद करते हुए एक दिन जुदाई की बेला भी करीब आ गई। जाते समय अब्दुल बहुत प्रसन्न था। जल्दी ही लौटने का वादा कर वह पाकिस्तान चला गया। धीरे-धीरे चार महीने का वक्त हो चला मगर उसके लौटने की कोई खबर ही नहीं थी। कुछ समय बाद पता चला कि अब्दुल वहां गया तो जरूर था और समारोह में शामिल भी रहा। इसके बाद वहां किसी ओर रिश्तेदार के यहां मिलने का बोलकर गया तो फिर वापिस हिंदुस्तान ही नहीं लौटा। अब्दुल की राह तकते हुए आफरीन की आंखे पथरा गई। एक दिन सिर में चक्कर आने लगे अचानक तबियत खराब हुई तो पता चला कि वह उम्मीद से थी। अब सब खुश थे और दुआ कर रहे थे कि अब्दुल जल्दी ही वापिस आ जाए। तबियत गिरते और सम्हलते एक दिन अस्पताल ले जाने का भी दिन आ गया। अब उसकी गोद में अयाज खेल रहा था। आफरीन हमेशा ही इस इंतजार में रही कि आज नहीं तो कल अब्दुल उसके पास लौट ही आएंगे। अचानक आकर बेटे से मिलेंगे तो उन्हें कितनी खुशी हासिल होगी। कुछ साल तो वह इंतजार में ससुराल में ही रही। मगर जब उसके सास-ससुर नहीं रहे तो वो अपने मायके में आकर रहने लगी। मायके में अब्बा-अम्मां और भाई- भावज सब मौजूद थे। बेटा भी स्कूल जाने लगा। कुछ समय बाद आफरीन की अम्मी नहीं रही। वह दिन भर काम में वक्त गुजारती और रात की तन्हाई में अब्दुल को याद करती। मन नही मन उससे खूब नाराज होती कि वह उसे क्यों भूल गया। आने दो जब भी आएंगे वो बात नहीं करने वाली। ऐसे ही दिन गुजरते जा रहे थे। तब आफरीन का वक्त काटे नहीं गुजरता था। ऐसे में पड़ोस में रहने वाले एक परिवार के यहां सबका आना जाना था। एक दिन पड़ोसी परिवार के मुखिया रॉय बहादुर साहब ने सलाह दी कि आफरीन उनके बच्चों को स्कूल से आने के बाद पढ़ाने लगे। उसे ठीक लगा और उसने घर के पास ही एक सेंटर में बच्चों को पढ़ाने का काम शुरू कर दिया। उस जमाने में ज्यादा महिलाएं काम भी नहीं करती थी। कुछ समय बाद पास ही के एक सरकारी स्कूल में अध्यापिका की जगह निकली और उसने आवेदन भर दिया। एक दिन साक्षात्कार का बुलावा मिला और उसे नियुक्ति भी मिल गई। अब आफरीन के पास जीने और काम में मसरूफ होने दोनों का ही आधार मिल गया। हालांकि उसके ससुराल वालों और मायके के लोगों ने जहां तक हो सकता था अब्दुल को बहुत ढूंढा मगर इस बीच कहीं से भी उसकी कोई खबर नहीं मिली कि वह कहां और किन हालात में है।
समय अपनी गति से चलता रहा। अयाज भी बड़ा हो चला था। वह कॉलेज में पहुंच गया। एक दिन उसके अब्बा जी ने आफरीन को बुलाया और कहा कि देखो यह घर भी तुम्हारा है। मगर मेरी ज़िंदगी का भरोसा नहीं इसलिए पास में ही एक प्लॉट मिल रहा है। तुम्हारे लिए उसे खरीद कर बनवा देते हैं। आफरीन का दिल तो नहीं था। मगर अब्बा के समझाने पर वह मान गई। उसने अपनी जमा पूंजी से प्लॉट खरीदा और उस पर घर भी बनवा भी लिया। अयाज भी बड़ा होकर नौकरी करने लगा था। अब उसके रिश्ते की बात होने लगी तो आफरीन ने एक पढ़ी लिखी लड़की रूमाना को पसंद कर अपनी बहू बनाने का फैसला कर लिया। उसकी शादी कर दी। एक दिन अचानक ही आफरीन के अब्बा गुजर गए। बस अब आफरीन का दिल उचट गया था। मगर नौकरी तो करनी ही थी। अम्मां को यूं उदास देखकर अयाज ने फैसला किया कि अम्मां अब अपने घर चलते हैं। भारी मन से अपने भाई और भाभियों से विदा लेकर आफरीन अपने घर आ गई। कुछ समय बाद उनकी बहू ने एक बेटी को जन्म दिया। अब क्या था आफरीन दिलोजान से अपनी पोती सना पर न्यौछावर थीं। अब उसकी जिंदगी में सुकून था। न रब से कोई शिकायत थी न ही किस्मत से कोई गिला थी। दिन अच्छी तरह से गुजर रहे थे। वक्त का पता ही नहीं चला। एक दिन अचानक आफरीन की तबियत जो खराब हुई तोे फिर संभल नहीं पाई। कुछ दिन अस्पताल में भर्ती होकर वह दुनिया से ही चल बसी।
रूमाना ने यही देखा कि आखिरी दम तक मेहनत करने वाली आफरीन आत्मनिर्भर ही रहीं। रहमदिल और विनम्र आफरीन अपने मायके और ससुराल दोनों ही परिवारों के बीच लोकप्रिय रहीं। सबके काम करना और बिना मांगे ही लोगों की खुले दिल से मदद करना उनकी आदत थी। जमाने भर के उतार चढ़ाव देखे, सब तरह के हालात का सामना किया और अकेले ही बेटे को पाल पोसकर बड़ा किया। बहुत समझदार थीं खुद उन्होंने कभी किसी के आगे मदद के लिए हाथ नहीं फैलाया। बहुत समय बाद कहीं से पता चला कि अब्दुल के पाकिस्तान जाने के बाद एक एक्सीडेंट में याददाश्त चली गई थी। उन्हें कभी इलाज मिला कभी नहीं मिला। पूरी तरह से ठीक न होने के कारण यहां वहां भटकना ही उनकी किस्मत में लिखा था। अपने आखिरी के दिनों में वह भी एक एनजीओ वालों की मदद से हिंदुस्तान तो लौट आए थे मगर एक दिन वह भी बीमार होकर चल बसे। यह कहानी नहीं है हकीकत में असल जिंदगी में गुजरा हुआ एक वाकया है। रूमाना को याद आया कि निदा फाजली की लिखी यहां पंक्तियां सटीक बैठती हैं कि कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता। कहीं जमीन तो कहीं आसमां नहीं मिलता।
कीर्ति चतुर्वेदी