Bhakti Madhurya - 8 books and stories free download online pdf in Hindi

भक्ति माधुर्य - 8

8

रसखान महाअम्रत
 

रसखान एक मुस्लिम कवि थे किन्तु कृष्ण प्रेम में लीन होकर उन्होने जो कविताएं लिखी हैं वे काव्यजगत की अनुपम धरोहर है।

हम उनकी भगवान कृष्ण से प्रथम भेंट की अत्यंत रोमांचक दास्तान प्रस्तुत कर रहे है।

ऐक दिन महाकवि रसखान एक पान की दुकान पर पान खाने गऐ। पान की दुकान पर कृष्ण के बाल स्वरूप का फोटो लगा था। रसखान उस फोटो को देखकर अत्यंत मोहित होकर अपनी सुधबुध खो बैठे | उन्होंने पान वाले से पूछा, “'भाई! यह सुंदर बालक कौन है? इसके नन्हे सुंदर पैरों में जूते क्यों नहीं है?'

पानवाले ने मजाक में कहा, 'मियां! इस बालक का नाम श्यामसुंदर है। यदि आपको इसके पैरों की इतनी ही चिंता है तो आप ही इसे जूते क्यों नहीं पहना देते?'

इस पर दूसरे दिन रसखान पान की दुकान पर श्री बालकृष्ण की चरण पादुका लेकर पहुंच गए व उस बालक का पता पूछने लगे | पान वाले ने उस पागल कवि से अपना पीछा छुड़ाने के लिए रसखान से कहीं और जाकर श्याम का पता ज्ञात करने को कहा ।

इस अविस्मरणीय, मन मस्तिष्क को झकझोर देने वाली घटना को निम्न अद्वितिय मनोरम कविता में चित्रित किया गया है :

" चरणपादुका लेकर सबसे पूछ रहे रसखान, बताओ कहां मिलेगा श्याम

..... उसी ही रूप में तुझसे यहां मैं मिलने आया "

तब रसखान रास्ते में हर आने जाने वाले से उस सुन्दर बालक का पता पूछने लगे। हर राहगीर उन्हें पागल समझकर उनसे बचकर निकलने लगा। तब भगवान स्वयं वेष बदलकर एक अनजान राहगीर का वेश धरकर उनके पास पहुंचे व सारी परिस्थिति को जानकर उन्हें वृन्दावन स्थित बालकृष्ण मंदिर का पता बतलाया |

रसखान बिना कुछ खाऐ पीऐ तेज धूप में बड़ी दूर तक पैदल उबड़ खाबड़ रास्ते पर चलते हुए वंदावन के उस मदिर में पहुंचे। वहां विधर्मी समझकर पुजारी ने उन्हें मन्दिर में प्रवेश देने से मना कर दिया |

रसखान ने पुजारी से बार बार बालकृष्ण से मिलने की करूण स्वर में गुहार लगाई । उन्होंने बालकृष्ण को जूतियाँ पहनाने का अत्यत आवश्यक कार्य रोते हुए पुजारी को बताया किन्तु उस कठोर दिल पुजारी का दिल नहीं पसीजा।

तब रसखान वहीं मंदिर की सीढियों पर बैठकर श्याम के बाहर निकलने का इंतजार करने लगे। इंतजार करते करते सुबह से शाम हो गई किन्तु श्याम बाहर नही आऐ । तब रात होने लगी किन्तु फिर भी कवि के हृदय मे श्याम से मिलने की लालसा में कोई कमी नहीं हुई। वे मंदिर की सीढियों पर बैठकर अपने प्यारे श्याम का इंतजार करने लगे |

कवि ने पूरी रात जागते हुऐ श्याम का इंतजार करते हुए बिताई। सुबह होने पर उनकी आंखें अपने प्यारे नन्हे श्याम को चारों और ढूंढने लगी किन्तु श्याम का कोई पता न चला।

तभी अचानक कुछ हलचल हुई और जब उन्होंने अपने नैत्रों से सभी दिशाओं में श्याम को ढूंढने का प्रयास किया तो नीचे की ओर उसी बालक श्यामसुंदर को अपने कदमों में बैठा पाया।

मारे ख़ुशी के कवि ने उस नन्हे प्यारे बालक को अपने सीने से लगा लिया । वे उसे बार बार चूमने लगे व अपने सीने से चिपकाकर उस पर ह्रदय का प्यार लुटाने लगे | किन्तु जैसे ही कवि ने चरण पादुकाएँ पहनाने के लिए उस बालक का पैर उठाया तो वे दुःख से कराह उठे। उस बच्चे के पैर काँटों पर चल कर लहूलुहान होगऐ थे व पैरों में छाले पड़े हुए थे। तब महाकवि उस सुंदर बच्चे के पैरों को अपने सीने से लगाकर रोने लगे।

वे बोले, ' अरे श्याम ! ये तेरे पांव कैसे घायल हो गए ?

आप मुझे कहते तो मैं ही तुझसे मिलने आ जाता और मुझसे मिलने के लिए तुझे काँटों पर तो न चलना पड़ता |'

बालकृष्ण बोले, हे भक्त ! तूने जिस रूप में मेरा स्मरण किया, उसी रूप में मैं बिना पादुकाओं के मथुरा से वृन्दावन पैदल काँटों में चलकर तुझसे मिलने यहाँ आया हूं।'

प्रिय पाठकों । यह काव्य नहीं भक्ति का महाअम्रत है। इस व्रत्तांत को पढकर जिस व्यक्ति की आखों से आंसू न टपके उसका दिल पत्थर का ही होगा।

 

रसखान 2
 

मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।

जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥

पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।

जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥

 

रसखान कवि की यह कितनी मार्मिक भक्तिभाव से पूर्ण सुन्दरतम कविता है !

 

आदि गुरु शंकराचार्य
 

महान ज्ञान ध्यान से युक्त अत्यंत सुन्दर अद्वितीय संस्कृत कविता

निर्वाण षटकम्
मनो बुद्ध्याहंकारचित्तानि नाहम्,न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे

न च व्योम भूमिर् न तेजो न वायु: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥ ..1

न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायुः न वा सप्तधातुर् न वा पञ्चकोश: न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायू चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् || ..2

न मे द्वेष रागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्य भावः न धर्मो न चार्थो न कामो ना मोक्ष: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥ ..3

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखम् न मन्त्रो न तीर्थं न वेदा: न यज्ञाः अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् || ..4

न मृत्युर् न शंका न मे जातिभेदः पिता नैव मे नैव माता न जन्म न बन्धुर् न मित्रं गुरु व शिष्य: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥ ..5

अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्

न चासंगतं नैव मुक्तिर् न मेयः चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥ ..6

सरल भावार्थ: ( मै का सच्चा वेदान्तिक स्वरुप )
परमात्मा शिव ही सर्वत्र विद्यमान हैं, इसका सार यही है। निर्वाण षट्कम का शाब्दिक अर्थ इस प्रकार है,

१. न तो मैं मन हूँ न बुद्धि, न अहंकार, न चित्त हूँ और न ही कान हूँ न जीभ, न नाक और न आँख हूँ। मैं । आकाश, भूमि, अग्नि और वायु भी नहीं हूँ। मैं चिदानंद स्वरुप शिव हूँ, शिव हूँ।

२. न तो मैं प्राण हूँ न पञ्च-वायु, न सप्त-धातु और न पञ्च - कोष हूँ। मैं वाणी, हाथ, पाँव और निकास भी नहीं हूँ। मैं चिदानंद स्वरुप शिव हूँ, शिव हूँ।

३. न तो मैं द्वेष हूँ न राग, न लोभ, न मोह हूँ। न घमंड हूँ, न मात्सर्यभाव हूँ। मैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष भी नहीं हूँ। मैं चिदानंद स्वरुप शिव हूँ, शिव हूँ।

४. न तो मैं पुण्य हूँ न पाप हूँ, न सुख -भाव हूँ, न दुःख-भाव हूँ और मैं न मन्त्र हूँ न तीर्थ हूँ, न वेद हूँ न ही यज्ञ हूँ। मैं भोजन, भोग की वस्तु और न ही उपभोग करनेवाला हूँ। मैं चिदानंद स्वरुप शिव हूँ, शिव हूँ।

५. न तो मैं मृत्यु से प्रभावित हूँ न डर से, न मैं जाति में बांटा जा सकता हूँ न मुझमे भेद किया जा सकता है। मेरा कोई बंधु नहीं, न मित्र, न गुरु और न शिष्य है। मैं चिदानंद स्वरुप शिव हूँ, शिव हूँ।

.६. मैं निर्विकल्प, निरकाररूप, स्वचालित, सर्वत्र एवं सभी इन्द्रियों में विद्यमान हूँ। न मैं किसी से बंधा हूँ और न मुक्त हूँ। मैं तो चिदानंद स्वरुप शिव हूँ, शिव हूँ |

आदिगुरु शंकराचार्य के द्वारा बाल्यकाल में रचित यह "निर्वाण षट्कम” / “आत्म षट्कम" गूढ़ भी है सरल भी। व्यक्ति यदि इसका सदैव मनन चिन्तन करे तो आध्यात्मिक पथ पर निश्चित रूप से अग्रसर होगा।

मैं का सच्चा स्वरुप शुद्ध चेतना है जो अनादि, अनंत शिव है ।


महर्षि रमण
 

( मनुष्यता के इतिहास में न देखा, न सुना, न पढ़ा कही ऐसा विरला संत, महज १७ वर्ष की आयु में बिना किसी मन्त्र, जप, तप, ग्रन्थ, पथ, पूजा पाठ या किसी भी रंच मात्र साधन अपनाए सिर्फ कुछ क्षणों के लिए अपने शरीर की म्रत्यु देख आजीवन शरीर मन बुद्धि से परे सर्वोच्च आध्यात्मिक अवस्था सहज समाधि की प्राप्ति )

बालक रमण एक साधारण बालक थे | जब वे सत्रह वर्ष के थे तो एक दिन अचानक उन्हे महसूस हुआ कि उनकी म्रत्यु हो रही है | वे बुरी तरह घबरा गए किन्तु तभी उन्होंने धैर्य पूर्वक अपनी म्रत्यु का निरिक्षण किया | कुछ ही पलों में वे शरीर, मन से परे दिव्य समाधि अवस्था में प्रवेश कर गए | तब से उन्हें न शरीर का, न मन का, न भूख प्यास का ध्यान रहा | वे दिगंबर होकर एक जगह दिन रात भूखे प्यासे एक जगह पत्थर के समान बिना हिले डुले पत्थर के समान बैठे रहते |

शैतान लडके उन्हें बड़े बड़े पत्थर मारते जिससे उनके पूरे शरीर में बड़े बड़े घाव हो गए |

तब रमण शिव मंदिर के गर्भ गृह में चले गए जहाँ विषैले कीड़ों ने उनके पूरे शरीर प्रर अपना घर बना लिया | उन्हें न दिन का, न रात का भान रहता, न भूख अथवा प्यास का होंश रहता |

वे सिर्फ हड्डी का ढांचा मात्र रह गए | उनके जीवित रहने की कोई संभावना नहीं थी तभी एक दिन एक साधू ने इनकी परमोच्च दिव्य अवस्था को पहचाना | उसने इनके मुंह में जबरन खाना पानी ढूंसकर इनकी प्राण रक्षा की |

इसके बाद तो इनके दर्शनों के लिए भारी भीड़ जुटने लगी | भीड़ के व्यवधान से बचने के लिए ये अरुणाचल की विरूपाक्ष गुफा में जाकर रहने लगे | यह गुफा भयानक जीव जानवरों से घिरी हुई थी |