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अय्याश--भाग(१३)

वैजयन्ती ने जब ये सुना कि उसका बेटा तवायफ़ो के पास जाने लगा है तो उसे स्वयं से बहुत शर्मिन्दगी हुई,उसे अपनी परवरिश पर अब संदेह हो रहा था,वो मन ही मन सोच रही थी कि क्या उसने यही दिन देखने के लिए उसे पालपोसकर बड़ा किया था।।
वैजयन्ती जो भी अपने बेटे के बारें में सोच रही थी उसमें उसका भी कोई कुसूर ना था,उसे तो जिसने जो बताया उसके बेटे के बारें में तो उसने समझ लिया,वो अपने बेटे की सच्चाई से बिल्कुल ही बेख़बर थी,वैजयन्ती को ये अन्दाजा ही कहाँ था कि उसका बेटा जो कार्य कर रहा था वो तो केवल मानवतावश कर रहा था,लेकिन जालिम दुनियावालों ने उसे कुसूरवार ठहराकर उसे अय्याश की उपाधि दे दी थी,
वैजयन्ती के नैना दिन रात अपने बेटे की याद में बरसते रहते,दुनिया उसके बेटे को दोषी मानती थी लेकिन उसका दिल ये मानने से इनकार करता क्योकिं एक माँ का दिल कभी भी अपनी औलाद को बुरा नहीं मान सकता,लेकिन दीनानाथ जब सत्या पर आरोप लगाते तो वैजयन्ती का मस्तिष्क अपने बेटे को दोषी मानने लगता लेकिन मन हमेशा ये मानने से इनकार करता।।
सत्या का मन अब कलकत्ता में पूरी तरह से रम गया था,वो उस बूढ़े बाबा के साथ खुश था,दिनभर धूप में फूल बेचता और शाम को रेलवे स्टेशन पर अख़बार बेच लेता,जिससे थोड़ा खर्च और निकल आता,इससे बाबा को मेहनत नहीं करनी पड़ती थी,क्योकिं बाबा कुछ दिनों से बहुत बिमार चल रहे थे और वें बाहर जाकर कार्य करने में असमर्थ थे,ऐसी हालत में सत्या उनका पूरी तरह से ख्याल रख रहा था,सत्या उनकी दवा का पूरा इन्तजाम करता लेकिन फिर भी उनकी हालत दिनबदिन बिगड़ती जाती।।
ये देखकर सत्या को बड़ा दुःख होता और अपनी सेवा कराते हुए बाबा को भी बहुत दुःख होता,वे कभी भी सत्या से अपनी सेवा नहीं करवाना चाहते थे,वें कभी कभी सत्या को देखकर रो पड़ते लेकिन उससे कहते कुछ नहीं थे,सत्या ने कई बार उनके घर-परिवार के बारें में जानने की कोशिश की लेकिन अपने बारें में उन्होंने कभी कुछ नहीं बताया,वें सत्या से कहते कि मेरे अतीत के बारें में तुम्हें जानकर दुःख होगा और फिर शायद तुम मुझे कभी माँफ ना कर पाओ और अपनी नजरों से गिरा दो,मैं ये कभी नहीं चाहूँगा,बाबा की बात सुनकर फिर सत्या कभी भी उनके बारें में कुछ ना पूछता।।
बाबा की हालत में अब कोई सुधार आता नजर नहीं आ रहा था इसलिए सत्या दिनरात बाबा की चिन्ता करता रहता,उसने डाक्टर भी बदल दिया और नए डाक्टर के परामर्श से वो नई दवाएं लेकर आया लेकिन फिर भी बाबा की हालत में कोई भी बदलाव ना आया,अब बाबा बिस्तर से उठने में भी असमर्थ थे,तब भी सत्या उनकी सेवा में ही लगा रहता और फिर एक दिन जब बाबा को लगा कि वें बचने वाले नहीं हैं तो उन्होंने सत्या से कहा....
बेटा! मुझे तुमसे कुछ कहना है।।
बाबा! पहले आप ठीक हो जाओ,फिर जीभर करके मैं आपसे बहुत सी बातें करूँगा,सत्या बोला।।
तुझे पता है ना कि मेरे ठीक होने की बिल्कुल उम्मीद नहीं है,अगर मैं तुझे वो बात नहीं बता पाया तो मेरी आत्मा को कभी शान्ति नहीं मिलेगी,बाबा बोले।।
बाबा! आपकी सेहद ज्यादा जरूरी है,,देखिए ना आप ज्यादा बोलनेकी स्थिति में नहीं हैं,सत्या बोला।।
लेकिन फिर भी मैं तुझे अपने बारें में सबकुछ बताना चाहता हूँ,समझ बेटा! मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं है,बाबा बोलें।।
ठीक है आप बताइए,सत्या बोला।।
तब बाबा ने सत्यकाम से पूछा....
बेटा! तुमने कभी अपने पिता की तस्वीर देखी है?
नहीं! माँ ने कभी भी नहीं दिखाई,वो बाबूजी की तस्वीर को अपने सन्दूक में बंद करके रखतीं थीं,तब मैं बहुत छोटा था जब बाबू जी घर छोड़कर गए थे,मुझे तो उनकी शक्ल भी याद नहीं है,सत्या बोला।।
तुम्हें ये पता है कि तुम्हारे बाबूजी घर छोड़कर क्यों गए थे? बाबा ने पूछा।।
जी! माँ बताती थी कि किसी लड़की ने उन पर झूठा इल्जाम लगाया था,वें ये शर्मिन्दगी बरदाश्त नहीं कर पाएं और घर छोड़कर चले गए,फिर उस लड़की ने आत्महत्या कर ली थी और मरने के पहले वो अपनी चिट्ठी में बाबूजी को निर्दोष बताकर गई थी,तब माँ और सारे गाँववाले बाबूजी के साथ किए बर्ताव पर बहुत पछताएं,लेकिन तब उसका कोई फायदा ना था ,उसके बाद बाबूजी फिर कभी घर नहीं लौटें और हमें मामा जी के घर में आसरा लेना पड़ा,सत्या बोला।।
क्या कहा तुमने?तुम्हारी माँ और गाँववालों के सामने मैं निर्दोष साबित हो चुका था,बाबा बोले।।
इसका मतलब है कि आप ही मेरे बाबूजी हैं,सत्या बोला।।
हाँ! बेटा! मैं ही वो अभागा तेरा बाप हूँ ,बाबा बोले।।
तो आपने मुझे पहले क्यों नहीं बताया?उसी दिन बता दिया होता जिस दिन मैं आपसे पहली बार मिला था,सत्या बोला।।
मुझे मेरी बेगुनाही के बारें में पता नहीं था ,मुझे तो लगता था कि दुनिया के नजरों में मैं अभी भी व्यभिचारी ही हूँ,तुम भी मुझे गलत ही समझते होगे इसी डर से मैनें नहीं बताया,भरतभूषण जी बोले।।
ओह....बाबूजी! कितना अभागा हूँ मैं,आप मुझे अब मिले हैं,काश मुझे आपके सानिध्य में और भी वक्त गुजारने को मिला होता,सत्या बोला।।
उस घटना के बाद मैं अपनी ही नज़रों में इतना गिर चुका था कि मुझ में किसी का सामना करने की ताकत ही नहीं बची थी,मेरी आत्मा मुझे हर क्षण धिक्कारती थी,भरतभूषण जी बोले।।
लेकिन बाबू जी !आप निर्दोष थे,सत्या बोला।।
लेकिन मुझे ऐसा नहीं पता था ना! कि मेरी बेगुनाही साबित हो चुकी है,उस दिन से लेकर आज तक मैं तिल तिल करके बस मरता ही आया हूँ,आज कहीं जाकर मुझे सुकून मिला है जब मुझे पता चला है कि मैं बेकसूर हूँ और वैजयन्ती के साथ सब गाँववाले भी मुझे निर्दोष समझते हैं,ये कहते कहते भरतभूषण जी की साँसें सी उखड़ने लगीं।।
ये देखकर सत्या बोला...
बाबू जी! आप ज्यादा बात ना करें,आपकी तबियत ठीक नहीं है,
आज तो जी भर के बोलने दे मुझे,इतने सालों से मैनें किसी से ज्यादा बात नहीं की,ये कहते कहते भरतभूषण जी की साँसें उनका साथ सा छोड़़ने लगीं थीं....
बाबू जी! कृपया ! शान्त हो जाइए,सत्या बोला।।
बस,एक बात और सुन ले मेरी,भरतभूषण जी बोलें।।
मेरे मरने के बाद तू मेरी अस्थियाँ लेकर घर जाना, गाँव की नदी में ही मेरी अस्थियों को विसर्जित करना,तभी मेरी आत्मा को शान्ति मिलेगी,भरतभूषण जी बोले।।
ये कैसीं बातें कर रहे हैं आप? सत्या बोला।।
बेटा! वादा कर,मेरी अस्थियाँ गाँव ले जाएगा ना! भरतभूषण जी बोले।।
हाँ! बाबूजी! वादा करता हूँ मैं!लेकिन आप मुझे यूँ छोड़कर नहीं जा सकते,सत्या बोला।।
बस! यही आखिरी इच्छा थी जो पूरी हो गई.....कितने सालों से अपनों की शकल देखने को तरस रहा हूँ...
कम से कम....आखिरी वक्त में मेरा बेटा मेरे साथ है.....सदा खुश रह बेटा! ईश्वर....तेरी सभी...मनोकामनाएं...पूरी करे...और फिर ये कहते कहते भरतभूषण जी को एक हिचकी आई और उनके प्राणपखेरू उड़ गए....
और सत्या उनके मृत शरीर के पास बैठकर बहुत रोया,उसने मन में सोचा इतने सालों बाद आप मिलें और मैं अभागा आपको पहचान भी नहीं पाया,काश मैनें आपको पहले पहचान लिया होता तो मैं आपको माँ के पास ले जाता,माँ आपको देखकर कितना खुश होती.....
और फिर सत्या ने अपने पिता का अन्तिम संस्कार किया और कलकत्ता छोड़कर हमेशा के लिए अपने गाँव जाने की तैयारी कर ली,लेकिन इससे पहले उसे अपने मामा दीनानाथ जी घर जाना था ये सूचना देने कि उसके बाबू जी अब इस दुनिया में नहीं रहे।।
और फिर सत्या पहले अपने मामा के घर पहुँचा,उसे देखते ही घर के किवाड़ बंद कर दिए गए,मामा दीनानाथ जी बाहर आकर उससे बोलें.....
दुनिया भर में हमारी नाक कटाकर अब यहाँ क्या लेने आया है?अय्याशी करते लाज ना आई,चटोपाध्याय बाबू ने मुझे सब बताया था कि तुम किसी तवायफ़ के साथ धर्मशाला में रूके थे,तुम इतना गिर सकते हो ये मैनें कभी ना सोचा था....
मुझे अपने बारें में कोई भी सफाई पेश नहीं करनी,मैं तो बस इतना बताने आया था कि मुझे कलकत्ता में बाबू जी मिले थें,वें अब इस दुनिया में नहीं रहें,उनकी आखिरी इच्छा थी कि उनकी अस्थियों को उनके गाँव की नदी में विसर्जित किया जाएं,आप ये सूचना माँ को दे दीजिए और उनसे पूछिए कि क्या वो मेरे साथ हमारे गाँव लौटेगीं और अगर उनकी मनसा मेरे साथ जाने की नहीं है तो उनसे घर की चाबियाँ लाकर मुझे दे दीजिए,मैं अकेले ही गाँव जाकर उनकी अस्थियाँ विसर्जित कर दूँगा..,सत्या बोला।।
मेरी बहन तुझ जैसे अय्याश के साथ कहीं ना जाएगी और अगर वो जाएगी तो मैं उसे तेरे साथ कहीं ना जाने दूँगा और ना ही तुझे घर की चाबियाँ मिलेगीं,जो करना है कर,लेकिन हम सबका पीछा छोड़ दे.. दीनानाथ जी बोले।।
और ये सब सत्या की माँ वैजयन्ती खिड़की पर खड़े होकर सुन रही थी,बड़े भाई का फरमान सुनकर वो कुछ ना बोली और पति के मौत की ख़बर सुनकर उसने वहीं पर अपनी कलाइयाँ दीवार पर दे मारी,जिससे उसकी कलाइयों की काँच की चूड़ियों के टुकड़े टुकड़े हो गए,वो अपने बड़े भाई की आज्ञा का उल्लंघन ना कर सकी और बेटे के साथ ना गई,सत्या को किसी ने पानी तक नहीं पूछा और वो ऐसे ही बिना घर की चाबियाँ लिए अपने गाँव की ओर चल पड़ा,उसे अपने पिता की अन्तिम इच्छा जो पूरी करनी थी।।
रास्तें में उसे पेड़ के पास उसके मामा दीनानाथ जी का छोटा बेटा श्रीधर मिला जो शायद उसी का ही इन्तजार कर रहा था,उसने जैसे ही श्रीधर को देखा तो उसके चेहरें पर एक मुस्कुराहट आ गई.....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....