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अय्याश--भाग(१८)

उस रात मोक्षदा के खाना ना खाने से सत्या कुछ चिन्तित सा हो गया,उसे बुरा लग रहा था कि उसकी बातों ने मोक्षदा के हृदय को शायद आहत किया है,उसने सोचा वो मोक्षदा से सुबह माँफी माँग लेगा और यही सोचते सोचते उसे कब नींद आ गई उसे पता ही नहीं चला.....
सुबह हुई और आज मोक्षदा की तबियत ठीक थी इसलिए उसने ठीक समय पर जागकर सुबह के सारे काम निपटा लिए थे,वो घर के पीछे के आँगन में तुलसीचौरें के पास अपनी आँखें बंद किए खड़ी थीं, उसके बाल गीले और खुले हुए थे,तभी सत्यकाम जागा और उसने अपनी खिड़की से मोक्षदा को देखा,उसने मोक्षदा को खुले बालों में देखा तो देखता ही रह गया......
तभी मोक्षदा ने आँखें खोली और उसकी नज़र भी खिड़की से झाँक रहे सत्यकाम पर पड़ी सत्यकाम से नजरें मिलते ही उसने अपना सिर झुका लिया,पूजा की थाली उठाई और वहाँ से चली गई.....
मोक्षदा ने सुबह का नाश्ता तैयार कर लिया था और उसने झुमकी काकी से अमरेन्द्र और सत्यकाम को बुला लाने को कहा,झुमकी ने दोनों के कमरों में जाकर कह दिया कि नाश्ता तैयार है और बिटिया बुला रही है....
दोनों रसोईघर में नाश्ता करने आए,मोक्षदा ने चना दाल के पराँठे ,लहसुन की लाल चटनी और बघार वाला छाछ दो थालियों में परोसकर दोनों के सामने रख दिया,अमरेन्द्र और सत्यकाम बैठकर नाश्ता करने लगें,दोनों जो माँगते गए तो मोक्षदा देती गई लेकिन उसने बात नहीं की,ये सब सत्यकाम अनुभव कर रहा था कि मोक्षदा का मन अब भी उसकी बातों से खिन्न है,लगता है उसने उसकी बातों को कुछ ज्यादा ही दिल से लगा लिया है,दोनों नाश्ता करके रसोईघर के बाहर चले गए तब मोक्षदा ने झुमकी काकी का नाश्ता भी उनकी थाली मेँ परोस दिया और रसोई से बाहर जाने लगी,मोक्षदा को रसोई से बाहर जाता देखकर झुमकी काकी ने पूछा....
ई का बिटिया! तुम नाश्ता नहीं करोगी का?
नहीं! काकी! भूख नहीं है,मोक्षदा बोली।।
बिटिया! कल रात भी तुमने खाना ना खाया था,अब भी नाश्ता ना करोगी तो फिर से बीमार पड़ जाओगी,झुमकी काकी बोली।।
काकी!हम जैसे लोगों को भूखे रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता,मोक्षदा बोली....
तभी रसोईघर की ओर आ रहे सत्यकाम ने कहा....
आप जैसे लोगों के भूखे रहने से आपको तो फर्क नहीं पड़ता लेकिन हम जैसे लोगों को बहुत फर्क पड़ता है,अगर आप फिर से बीमार पड़ गई तो इतना स्वादिष्ट नाश्ता जो अभी मैनें किया ,मुझे उससे वंचित होना पड़ेगा क्योंकि आपने तो मेरे हाथ का बना खाना खाया होगा जो कि बहुत ही खराब था क्योंकि मैं बहुत ही खराब रसोइया हूँ।।
कल का खाना इतना भी खराब नहीं था,मोक्षदा बोली।।
तभी तो आपने कल रात का खाना छोड़ दिया था,सत्यकाम बोला।।
मुझे भूख नहीं थी इसलिए नहीं खाया था,मोक्षदा बोली।।
मैं सब समझता हूँ,सत्यकाम बोला।।
क्या समझते हो तुम?जरा खुलकर कहोगे,मोक्षदा भड़की।।
जी! नाश्ता जरा ज्यादा खा लिया था इसलिए मैं तो रसोई में सौंफ लेने आया था,हाजमें के लिए अच्छी होती है,सत्यकाम बोला।
बात को पलटो मत,मोक्षदा अपने खुले बालों का जूड़ा बनाते हुए बोली...
मैं कह रहा था कि बालों को बाँधिए मत ऐसे ही खुला छोड़ दीजिए,ऐसे ही आप और आपके बाल ज्यादा सुन्दर लगते हैं और थोड़ी सौंफ मिल जाती तो मेहरबानी हो जाती,सत्यकाम गोलमोल बनाते हुए बोला।।
सत्यकाम की बात सुनकर मोक्षदा थोड़ा मुस्कुराई और रसोई में से छोटी सी मटकी ले आई जिसमें सौंफ रखी थी और सत्यकाम से बोली....
लो जितनी चाहिए उतनी लेलो।।
जी! देवी जी!और मैं कह रहा था कि नाश्ते पर गुस्सा मत कीजिए,नाश्ता कर लीजिए फिर आपका गुस्सा उतारने के लिए ये बंदा हाजिर है,ज्यादा गुस्सा आ रहा हो मुझ पर तो साथ में एक लट्ठ भी लेती आइएगा,इतना कहकर सत्यकाम ने मटकी में से थोड़ी सी सौंफ निकाली और वहाँ से चला गया,
सत्यकाम के कहने पर आखिरकार मोक्षदा ने अपने लिए थाली परोसी और खाने बैठ गई.....
नाश्ता करने के बाद मोक्षदा ने झुमकी काकी से कहा....
काकी! कल माली काका ने आम के बगीचे से कुछ कच्चे आम तोड़े थे तो तुम ऐसा करो उन्हें धोकर अमकटे से काट दो फिर मैं उन्हें हल्दी और नमक लगाकर धूप में सुखाने डाल देती हूँ,सोचती हूँ आम का ताजा अचार डाल दूँ।।
ठीक है बिटिया! अभी धोकर काटे देते हैं,झुमकी काकी बोली।।
और हाँ! काकी ! कुछ आम कच्चे ही छोड़ देना,उन आमों को भूनकर हरा पोदीना डालकर पना बनाऊँगी, दोपहर के भोजन के लिए हो जाएगा,साथ में कटहल की तरकारी बना दूँगी और खीरें प्याज का सलाद हो जाएगा,मोक्षदा बोली।।
हाँ! बिटिया! तुम पना बहुत ही अच्छा बनाती हो,झूमकी काकी बोली।।
ठीक है तो फटाफट आम काट दो,फिर धूप तेज होने वाली है,छत में आम फैलानेमें दिक्कत होगी,मोक्षदा बोली।।
और फिर मोक्षदा रसोई में अचार का मसाला तैयार करने लगी और काकी आम काटने में लग गई,कुछ ही देर में झुमकी काकी ने आम काट दिए ,जो की एक बड़ी डलिया भर थें,मोक्षदा ने सभी कटे आमों को बड़े से परात में डालकर हल्दी और नमक मिलाया और फिर से उसी बड़ी डलिया में डालकर छत की ओर जाने वाली सीढ़ियों पर ले जाने लगी.....
तभी झुमकी काकी बोली....
बिटिया! डलिया बहुत भारी है तुमसे छत तक ना जा पाएगी और फिर तुम्हारी तबियत भी ठीक नहीं थी,हम छोटे मालिक को बुला लाते हैं.......
तब मोक्षदा बोली.....
ठीक है काकी! भइया को ही बुला दो,सच में डलिया बहुत भारी है।।
तब झुमकी काकी अमरेन्द्र को बुलाने उसके कमरें पहुँची,साथ में सत्या भी वहाँ बैठा था,झुमकी काकी ने जैसे ही छोटे मालिक से डलिया उठाने को कहा तो सत्या बोला.....
चलो झुमकी काकी! मैं आपकी डलिया छत पर चढ़वा देता हूँ,
और फिर सत्या रसोई वाले आँगन में आया और डलिया उठाकर छत तक जाने वाली सीढ़ियाँ चढ़ने लगा,पीछे पीछे आमों के टुकड़ों को सुखाने के लिए चादर लेकर मोक्षदा भी छत पर चली गई,सत्यकाम ने छत पर डलिया रख दी और बोला.....
लीजिए! आप आमों को सुखाने के लिए चादर पर फैला दीजिए....
मोक्षदा ने छत की फर्श पर चादर फैलाई और अपने दोनों हाथों से आमों को उठाकर चादर पर फैलाने लगी,उसी समय मोक्षदा के बालों का बना जूड़ा खुल गया और उसके बाल बिखर गए,छत पर गर्म हवा चल रही थी और मोक्षदा के बाल उड़ उड़कर उसके मुँह पर आ रहें थे,उसके हाथ नमक और हल्दी से भरें थे इसलिए वो उन्हें सँवार नहीं पा रही थी।।
काफी देर हो चुकी थी,अब मोक्षदा को अपने मुँह पर आते बालों से दिक्कत होने लगी थी,तभी पीछे से दो हाथों ने उसके बालों को सँवार कर जूड़ा बना दिया और वें दोनों हाथ सत्या के थे,ये देखकर मोक्षदा बोली...
ये सब तुम क्या कर हो? कोई देख लेगा तो क्या समझेगा?
क्या समझेगा भला? आपके बाल आपके चेहरे पर आ रहे थे इसलिए बाँध दिए,सत्या बोला।।
इसका मतलब समझते हो,मोक्षदा ने पूछा।।
जी नहीं! सत्यकाम बोला।।
इसका मतलब है मेरी बदनामी,मोक्षदा बोली।।
इसमें बदनामी की क्या बात है? सत्या ने पूछा।।
एक जवान विधवा के कोई जवान गैर मर्द बाल सँवारें तो तुम्हें इसका मतलब समझ नहीं आता,इतने भोले भी नहीं हो तुम,मोक्षदा बोली।।
देवी जी! भोला तो नहीं हूँ मैं लेकिन दम्भी भी नहीं हूँ जैसा कि आप समझ रहीं हैं,सत्यकाम बोला।।
मुझे कुछ नहीं पता,लेकिन अब ऐसा कभी मत करना,मोक्षदा बोली।।
ऐसा कभी मत करना का क्या मतलब? क्या मैनें आपको गलत इरादे से छुआ था? सत्यकाम ने पूछा...
जो भी हो लेकिन फिर ऐसा कभी नहीं होना चाहिए,मोक्षदा बोली।।
जैसी आपकी मर्जी और इतना कहकर सत्या छत से चला आया......
मोक्षदा को यूँ सत्या का जाना कुछ अच्छा नहीं लगा,लेकिन फिर भी छत पर वो अपना काम करती रही,आमों के टुकड़ों को वो धूप में फैलाने के बाद नीचें आईं और मटके से एक गिलास ठंडा पानी निकाला और एक साँस में पी गई...
उसे सत्या का ऐसा व्यवहार मन में चुभ रहा था,लेकिन कहीं ना कहीं उसका स्पर्श भी उसे अच्छा लगा था,फिर वो अपने कमरें की खिड़की खोलकर बिस्तर पर लेट गई,वो मन में सोच रही थीं,उसे सत्या का स्पर्श अच्छा तो लगा था लेकिन वो कहीं बहक ना जाएं इसलिए उसने सत्या को छिटक दिया था,ताकि सत्या आगें से उससे दूरियाँ बनाकर रखें,परपुरुष का स्पर्श उसके लिए कहीं अभिशाप ना बन जाएं,क्योंकि उसके जीवन में ये सुख कभी नहीं आ सकता कि उससे कोई प्रीत करें,उसे अपनी जीवनसंगिनी बनाएं,ये स्वप्न देखना ही उसके लिए निर्रथक है,वो आँखें मूँदकर यही सोचती रही और आँसू बहाती रही....
कुछ ही देर में दोपहर के भोजन का समय हो गया और वो रसोई की ओर बढ़ चली......

क्रमशः.....
सरोज वर्मा......