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अय्याश--भाग(२०)

उधर छत पर खड़ी मोक्षदा वहीं घुटने के बल बैठ गई और फूटफूटकर रोने लगी,वो मन में सोच रही थी कि क्या करें? क्या ना करें,क्योंकि एक तरफ उसका भाई था और दूसरी तरफ उसका प्यार,वो भाई जिसने केवल उसकी खातिर आज तक ब्याह नहीं रचाया और दूसरी तरफ उसका प्रेमी जिससे वो ब्याह रचाना चाहती है।।
जिन्दगी ने उसे किस दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया था,वो यही सोच रही थी,काश के आज उसकी माँ जिन्दा होती तो वो उसके कलेजे से लगकर जीभर के रो लेती,उससे अपना दुःख बाँटकर मन हल्का कर लेती,लेकिन आज वो कितनी मजबूर है,क्या उसके भाग्य में केवल आँसू और अकेलापन ही लिखा है?,कुछ देर तक वो छत में यूँ ही रोती रही फिर अपने आँसू पोछकर वो नीचें आई,उसे सत्यकाम ने खाना खाने को कहा था इसलिए उसने रसोई के किवाड़ खोले और अपनी थाली में दो रोटी और सब्जी परोसकर खाना खाने बैठ गई.....
रसोई के किवाड़ खुलने की आहट से झुमकी काकी अपने बिस्तर से उठकर रसोई के पास आ पहुँची और बाँस का हाथपंखा डुलाते हुए बोली.....
बिटिया!तुम हो!खाना खा रही हो ! खा लो....खा लो ....किवाड़ खुलने की आहट से चले आए थे, रसोई की तरफ....
हाँ! काकी! मैं हूँ,छत में टहलते टहलते भूख लग आई,मोक्षदा बोली।।
तुम खा लो ,मुझे नींद आ रही है....
इतना कहकर झुमकी काकी सोने चली गई और मोक्षदा खाती रही.....
कुछ ही देर में मोक्षदा अपना खाना खतम करके अपने बिस्तर पर चली आईं,उसे अपने कमरें में नींद नहीं आ रही थी इसलिए वो रसोई वाले आँगन में पड़ी चारपाई पर लेटने आ गई,उसने चारपाई पर एक चादर बिछाई और लेट गई,खुली हवा में आकर उसे अच्छा लग रहा था,आसमान पर तारे टिमटिमा रहे थे और चाँद बदलियों की ओट में हल्का सा छुपा था......
ना जाने क्या सोच सोचकर उसकी आँखों से फिर से पानी बहने लगा,शायद उसे चाँद से कुछ ईर्ष्या सी होने लगी थी कि देखों तो चाँद भी अपनी चाँदनी के साथ अठखेलियाँ कर रहा है और एक मैं बिल्कुल अकेली,जिससे प्रेम करती हूँ वो मुझसे प्रेम करता ही नहीं और यही सब सोचते सोचते मोक्षदा निंद्रा रानी की गोद मे चली गई.....
सुबह हुई सब समय पर जागकर स्नानादि करके अपने अपने काम पर लग चुके थे,मोक्षदा रसोई में थी और उसने नाश्ते में बैंगन आलू की भुजिंया ,रोटी और कच्चे आम की पुदीने वाली चटनी बनाई थी,आज उसने थालियांँ परोसकर झुमकी काकी को दे दीं और बोली.....
काकी! आज उन दोनों को बैठक में ही खिला दो,रसोई में गर्मी बहुत है,पूरी-पराँठा इसलिए नहीं बनाया क्योंकि सत्यकाम बाबू का कल पेट खराब था,उन्हें नाश्ता कराके तुम भी खाने बैठ जाओं।।
झुमकी काकी दोनों थालियाँ लेकर बैठक में पहुँची और बोली....
बिटिया कहती है कि आज आप दोनों यहीं खा लो।।
झुमकी की बात सुनकर सत्यकाम फौरन समझ गया कि शायद मोक्षदा उसका सामना नहीं करना,इसलिए बैठक में ही खाने को कह रही है और ठीक भी है मुझ में भी हिम्मत नहीं है उसकी सूजी हुई आँखों में देखने की शायद बेचारी रात भर रोई होगी मेरी बात सुनकर,सत्या ये सब सोच ही रहा था कि तभी अमरेन्द्र बोला....
सत्यकाम बाबू! क्या सोचते हैं? चलिए हाथ धुलकर आते हैं,आज तो नाश्ता करेगें ना! अब तो पेट ठीक हो चुका है ना!
जी! अब तो ठीक है चलिए हाथ धुलकर आते हैं,सत्यकाम बोला।।
फिर दोनों रसोई वाले आँगन में हाथ धुलने आएं,उस समय मोक्षदा भी आँगन में ही थी जैसे ही उसने सत्यकाम को देखा तो फौरन रसोई के भीतर घुस गई....
सत्या ने मोक्षदा का ऐसा व्यवहार देखा तो उसने फौरन अपने हाथ धुले और आँगन से बाहर निकल गया और मोक्षदा पीछे से उसे जाते हुए देखती रही.....
सबको नाश्ता खिलाकर फिर मोक्षदा ने भी अपनी थाली में दो रोटी और सब्जी परोसी और खाने बैठ गई,उसके बाद छत पर कपड़े पर फैलें कच्चे आमों को देखने गई कि वें अब तक सूख चुके हैं या नहीं,मोक्षदा ने देखा कि वें सूख चुके हैं इसलिए उनका अचार बनाने की तैयारी में जुट गई....
वो छत से नीचे आईं और उसने भण्डारगृह में रखी बरनियों को निकाला फिर उन्हें अच्छी तरह धोकर धूप में सूखने के लिए रख दीं और रसोई में आकर अचार के मसाले भूनने लगी,फिर लोहे की कढ़ाई में सरसों का तेल गरम किया अचार में मिलाने के लिए और लोहे के खल-मूसल में भुने मसाले कूटने लगी,मसाला तैयार होने के बाद उसने अचार तैयार करके बरनियों में भर दिया,तब तक दोपहर हो चुकी थी और दोपहर के भोजन का समय हो गया था......
इसलिए उसने फटाफट हींग और जीरे का तड़का लगाकर पीतल की बटलोई में मूँग दाल की खिचड़ी छौंक दी,साथ में बूँदी का रायता बना दिया,इससे ज्यादा और कुछ बनाने का उसका मन नहीं था,ऊपर से गर्मी इसलिए उसने सोचा हल्का भोजन ही ठीक है......
सुबह से इतना बचने के बावजूद दोपहर के भोजन के समय सत्यकाम और मोक्षदा का आमना सामना हो ही गया,सकुचाते सकुचाते मोक्षदा ने भोजन परोसा और सकुचाते सकुचाते सत्या ने भी जल्दी से भोजन निगला और बाहर निकल गया....
सत्यकाम की बेरहमी मोक्षदा के मन को भीतर तक छलनी कर गई,लेकिन वो कर भी क्या सकती है? वो उसका क्या लगता है जो वो उससे सवाल करती?बस मन मसोस कर रह गई,कुछ पुराने कपड़ो की सिलन खुल गई थी इसलिए उनकी मरम्मत करने बैठ गई......
वो उन्हें सीते सीते सोच रही थी कि काश जिन्दगी की भी ऐसे ही मरम्मत की जा सकती तो कितना अच्छा होता,अपने जख्मों को इस सुई और धागों से भरा जा सकता तो शायद कोई कभी उदास ही नहीं होता,बस वो ये सब सोचते सोचते अपना काम कर रही थी......
दोपहर से शाम हुई और शाम से फिर रात हो गई लेकिन मोक्षदा और सत्यकाम का आमना सामना ना हुआ,दूसरे दिन सुबह सुबह अमरेन्द्र ने मोक्षदा से कहा.....
मोक्षदा आज मैं ठाकुर बलदेव सिंह के यहाँ जगराते में जा रहा हूँ,कल सुबह तक लौटूँगा,बस नाश्ता करके अभी निकलना होगा,उनका गाँव भी तो यहाँ से काफी दूर है।।
और फिर अमरेन्द्र नाश्ता करके निकल गया ,सबको नाश्ता कराने के बाद अब मोक्षदा के पास कोई काम नहीं था,इसलिए वो अपने कमरें में आ गई,लेकिन कमरें में भी उसका जी नहीं लग रहा था इसलिए वो बाहर आमों के बगीचें में आ गई जो उनके घर से ही सटा हुआ था.....
वो बगीचे में पहुँची ही थी कि क्या देखती है वहाँ सत्यकाम पहले से ही मौजूद है,सत्यकाम की नज़र जैसे ही मोक्षदा पर पड़ी तो वो वहाँ से चला गया और फिर मोक्षदा भी बगीचे से आ गई,अपने कमरें में आई और फूटफूटकर रो पड़ी,इन्सान जब प्रेम में होता है और जिससे वो प्रेम करता है अगर वो उसे अनदेखा करने लगें तो हृदय में ऐसी ही पीड़ा उठती है.....
दोपहर के खाने का समय हो चला था,तभी झुमकी काकी मोक्षदा के पास आकर बोली......
बिटिया! वो जो हमारी जिज्जी है,दूर की फुआ की बेटी उसने आज हमें अपने घर बुलाया,उसके यहाँ पोता हुआ है उसी का भोज है,अभी थोड़ी देर पहले उसने अपने लड़के से संदेशा भिजवाया है,अगर तुम मंजूरी दे दो तो चले जाएं.....
हाँ! काकी! चली जाओ और जाते वक्त मुझसे कुछ पैसे ले लेना,बच्चे के लिए कुछ खरीदकर लेती जाना,खाली हाथ अच्छा नहीं लगता ,शगुन का काज है,मोक्षदा बोली।।
लेकिन तुम अकेली पड़ जाओगी,छोटे मालिक भी तो नहीं हैं,झुमकी काकी बोली।।
कोई बात नहीं,हरिया काका आज बाहर वाले दरवाजे के बरामदें में चारपाई डालकर सो रहेगें,मोक्षदा बोली।।
सत्यकाम बाबू भी हैं लेकिन .......,झुमकी काकी इसके आगें ना बोल पाई....
कुछ नहीं,सत्या बाबू से कैसा डर?मोक्षदा बोली।।
ठीक है तो दरवाजा ठीक से बंद कर लिओ,झुमकी काकी बोली।।
ठीक है.....ठीक है सब दरवाजे ठीक से बंद कर लूँगी,लेकिन अभी दोपहर के खाने में क्या बनाऊँ? मोक्षदा ने पूछा......
बस,दाल-भात बना लो,नए आम के अचार के साथ अच्छा लगेगा,झुमकी काकी बोली।।
दोपहर में सभी ने खाना खाया और फिर अपने अपने कामों में लग गए,क्योंकि झुमकी काकी को अपनी बहन के घर निकलना था इसलिए मोक्षदा ने उसे कुछ रूपये देकर जाने को कह दिया,अब घर में सत्यकाम और मोक्षदा ही बचे थे.....
शाम हो चुकी थी मोक्षदा दूध दोहने कुएँ वाले आँगन की ओर चली गई,दूध दोहकर आई तो उसने सोचा सत्यकाम से पूछ लूँ कि चाय तो नहीं पीनी इसलिए वो बैठक की ओर चली आई और सत्यकाम से पूछा....
चाय पिओगे!
नहीं! मन नहीं है,सत्यकाम बोला।।
मोक्षदा ने बातों का सिलसिला बढ़ाते हुए आगें पूछा.....
रात के खाने में क्या बनाऊँ?
कुछ भी जो आपको पसंद हो,सत्यकाम बोला।।
मेरी पसंद से क्या होता है? मुझे तो और भी बहुत कुछ पसंद है,मोक्षदा बोली।।
हर बात पर बहस करना जरुरी तो नहीं,सत्यकाम बोला।।
कुछ लोगों के लिए कोई बात बहुत जरुरी होती है लेकिन शायद उस बात का कुछ लोगों के लिए कोई मतलब नहीं होता,मोक्षदा बोली।।
इसलिए तो मुझे मेरा जरूरी काम करने दीजिए,आप जाकर अपना काम करें,सत्यकाम बोला।।
सत्यकाम का ऐसा जवाब सुनकर मोक्षदा के मन में आग सी लग गई और वो वहाँ से फौरन हटकर रसोई की ओर चली गई....
भुनभुनाते हुए उसने खाना पकाया,गुस्से में उसने लौकी की सादी सी सब्जी और रोटियाँ बना दी और थाली परोसकर बैठक में सत्यकाम के सामने ले जाकर पटकते हुए बोली.....
लो खाना खा लो।।
आप नहीं खाएंगी,सत्यकाम बोला।।
मैं बाद में खा लूँगी और मैं खाऊँ या ना खाऊँ तुम्हें इससे क्या? मोक्षदा बोली।।
सही कहा,भला मालकिन और नौकर के बीच कुछ हो भी तो नहीं सकता,सत्यकाम बोला।।
जब देखो तब जहर उगलते रहते हो पिछले जन्म में कहीं नागदेवता तो नहीं थे,मोक्षदा बोला।।
और आप शायद नेवली रही होगीं इसलिए मुझसे लड़ती रहतीं हैं,सत्यकाम बोला।।
मोक्षदा ने ये सुना तो हँस पड़ी और साथ में सत्यकाम के भी दाँत निकल पड़े,तब सत्यकाम बोला....
इतना गुस्सा सेहद के लिए अच्छा नहीं,जाइए,गुस्सा मत खाइए जाकर खाना खाइए,अपनी थाली भी यहीं ले आइए,साथ बैठकर खा लीजिए।।
मुझे तुम्हारे साथ बैठकर खाना नहीं खाना,मोक्षदा बोली।।
देवी जी! अछूत नहीं हूँ,ब्राह्मण हूँ आपको मेरे साथ खाना खाने में एतराज क्यों हैं? सत्यकाम बोला।।
मेरा वो मतलब नहीं था,मोक्षदा बोली।।
तो फिर खाना खाने से इनकार क्यों करती हैं? सत्यकाम ने कहा....
तो तुम नहीं मानोगे,ठहरों अभी अपनी थाली लेकर आती हूँ और इतना कहकर मोक्षदा अपना खाना लेने रसोई की ओर बढ़ गई.....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....