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अय्याश--भाग(२५)

सत्या भी उस महिला को जाते हुए देखता रहा लेकिन रोक ना सका,ये रामप्यारी भी देख रही थी लेकिन उसने सत्या से कुछ पूछा नहीं,बस उसके दर्द को समझते हुए मौन हो गई,दोनों बरतन बेंचकर घर लौटे,रामप्यारी ने रात का भोजन बनाकर थाली सत्या के सामने परोस दी,भोजन से भरी थाली देखकर सत्या बोला....
माई! ले जाओ इसे,आज खाने का मन नहीं है!!
ये सुनते ही रामप्यारी ने पूछा....
कौन थी वो?
बस! थी कोई जान-पहचान वाली,सत्या बोला।।
ऐसा लगता है कि कभी बहुत गहरा रिश्ता रहा था तुम दोनों के बीच,रामप्यारी बोली।।
था तो ! बहुत गहरा रिश्ता था,सत्या बोला।।
बता दोगे तो तुम्हारा मन हल्का हो जाएगा,रामप्यारी बोली।।
क्या बताऊँ? कुछ समझ नहीं आता,सत्या बोला।।
अच्छा! बचुआ! पहिले भोजन कर लेव,फिर आराम से बैठकर बताना,रामप्यारी बोली।।
लेकिन माई! खाया नहीं जाएगा मुझसे,सत्या बोला।।
जित्ता खाना है उत्ता खा लेव,लेकिन खाली पेट ना रहो,नहीं तो हमारी आत्मा तड़पती रहेगी कि बचुआ भूखा है,रामप्यारी बोली।।
ठीक है लाओ थाली,तुम्हारे खातिर थोड़ा सा खा ही लेता हूँ,सत्या बोला।।
फिर सत्या ने थोड़ा सा खाकर थाली एक ओर रख दी और हाथ धोने चला गया,हाथ धोकर आया तो बोला....
माई! मैने तो खा लिया है अब तुम भी खा लो,फिर अपनी आपबीती तुम्हें सुनाता हूँ...
रामप्यारी ने फिर जल्दी से अपनी थाली में थोड़ा सा खाना परोसा और खाने बैठ,खाना थोड़ा ही था इसलिए खाने में उसे देर नहीं लगी,वो भी जल्दी से हाथ धोकर सत्या के करीब आ बैठी और बोली....
बचुआ! अब कहो कि वो कौन थी?
फिर सत्या बोला.....
अच्छा!माईं! आसानी से पीछा ना छोड़ोगी ,जानकर ही रहोगी कि आखिर वो कौन थी?
और का?हमार बचुआ दुखी है और हम उसका कारण भी ना जाने,रामप्यारी बोली....
फिर सत्या थोड़ा मुस्कुराते हुए बोला....
वो मेरी बड़ी बहन प्रयागी थी,मुझसे उम्र में लगभग बारह साल बड़ी है,आज इतने सालों बाद देखा अपनी बड़ी जीजी को तो आँसू रोक नहीं पाया,बड़े जीजा जी भी थे साथ में लेकिन वो शायद मुझे पहचान ही नहीं पाएं,उन्होंने मुझे उनके ब्याह में ही देखा था बस,तब मैं काफी छोटा था,अब तो जीजी के तो बच्चे भी बहुत बड़े हो गए होगें,कैसा दुर्भाग्य था मेरा जो मैं ये भी ना पूछ सका अपनी बहन से कि..जीजी कैसी हो?
लेकिन वो तो पूछ सकती थी ना! रामप्यारी बोली।।
लेकिन मैं तो समाज से बहिष्कृत हूँ लोग मुझे अधर्मी और कुल को डुबोने वाला कहते हैं ,सबसे बड़ी उपाधि तो मुझे अय्याश मिली है जो मुझे मेरे बड़े मामा जी ने दी थी,तो बेचारी कैसें पूछती कि.....मेरे सत्या भइया कैसे हो?उसे भी तो लोक लाज का डर है और फिर अपने पति के सामने कहती भी तो क्या?कहीं वें ही उसे कुछ कह देते तो मैं ये सह नहीं सकता था,इसलिए शायद बेचारी ने चुप रहने में ही अपनी भलाई समझीं.....
ओह....तो वो बड़ी बहन थी तुम्हारी और माँ बाप कहाँ है तुम्हारे? रामप्यारी ने पूछा।।
पिता तो अब इस दुनिया में नहीं रहे और माँ से भी मैं ना जाने कब से नहीं मिला...,सत्या बोला।।
तो अपनी माँ से तो मिल आओ,रामप्यारी बोली।।
जी नहीं करता माई! सत्या बोला।।
एक बात कहूँ बचुआ!वो तुम्हारी जन्मदात्री है,वो मुँह से नहीं कहती लेकिन मन से तुम्हें कभी नहीं उतार सकती,उसके मन की पीड़ा को समझो बचुआ! एक बार मिल आओं उनसे,उसकी अँखियाँ तुम्हारी ही राह ताँकती होगीं,रामप्यारी बोली।।
माई! मैं गया था उनके पास बाबूजी की अस्थियाँ लेकर, साथ में चलने के लिए मैनें कहा था उनसे,लेकिन वो उनकी अस्थियाँ विसर्जित करने के लिए मेरे साथ नहीं आईं,सत्या बोला।।
जानते हो बचुआ! हम औरतों के जीवन में तुम पुरूषों का बहुत महत्व होता है,हम घर के किसी भी पुरूष की बात को नकार नहीं सकते,जब बाप के घर रहतीं हैं तो उनके आदेश को ना चाहते हुए भी मानना पड़ता फिर भाई के होने पर हमारा नहीं उसका ही शासन चलता फिर भाई छोटा ही क्यों ना हो? फिर पति की आज्ञा को नकारना हमारे लिए पाप बताया जाता है और बाद में हमारे जीवन की डोर पुत्र के हाथ में आ जाती है,सच कहूँ तो हम स्त्रियाँ कभी स्वतन्त्र रह ही नहीं पातीं,तो उसी तरह कोई कारण रहा होगा जो तुम्हारी माँ तुम्हारे साथ नहीं आई,माई बोली...
हाँ! कारण तो था ,मेरे बड़े मामा ने उन्हें मना किया था कि वो मेरे साथ नहीं जा सकतीं,सत्या बोला।।
इसलिए वो बेचारी नहीं आई होगी लेकिन तब उसके हृदय पर क्या बीती होगी?ये वो ही बता सकती है,रामप्यारी बोली।।
ये तो मैनें कभी सोचा ही नहीं था,सत्या बोला।।
औरत जो भी करती है उसमें केवल अपनों की भलाई छुपी होती है,तुम्हारी माँ ने भी शायद कुछ ऐसा ही सोचा होगा,तुम वो सब कभी नहीं सोच सकते क्योकिं तुम औरत नहीं पुरुष हो जो केवल आदेश देता है आदेश मानता नहीं है,रामप्यारी बोली।।
माई! औरत के त्याग की बराबरी तो कोई भी नहीं कर सकता,सत्या बोला....
सही कहते हो बचुआ!रामप्यारी बोली.....
मैं एक पुरुष हूंँ, तो नारी के जीवन के बारे में मैं क्या कहूंँ?, लेकिन जो नारी एक नए जीवन को दुनिया में ला सकती हैं तो वो कमजोर तो कभी नहीं हो सकती, बस वो मजबूती का दिखावा नहीं करती, ताकि हम पुरुषों का मनोबल बना रहे, अपने लिए सम्मान नहीं चाहती, ताकि हम पुरुषों का स्वाभिमान बना रहे, सारी उम्र सिर्फ वो त्याग ही तो करती हैं और कभी जाहिर नहीं करती, कोई दिल दुखा दे तो कोने में जाके दो आंसू बहाकर अपना मन हल्का कर लेती है, वो कमजोर नहीं होती, बस अपनी शक्ति को वो उजागर नहीं करती,सत्या बोला।।
सही कहा तुमने बचुआ !और यही तो किया था हमने केवल उनकी खुशी चाही थी लेकिन हम ये नहीं जानते थे कि हमें इतना बड़ा धोखा मिलेगा,रामप्यारी बोली....
माई! किसने दिया तुम्हें धोखा? सत्या ने पूछा।।
जिन्हें हमने अपना सबकुछ माना था,जिनकी खातिर हमने इतना बड़ा त्याग किया,वही हमारे ना हुए,रामप्यारी बोली....
माई! लगता है तुमने भी अपने जीवन में बहुत दुख झेले हैं,मुझे ना सुनाओगी अपनी रामकहानी,सत्या बोला।।
आज तुम भी सुन ही लो बचुआ कि हम यूँ अकेले जिन्दगी जीने पर क्यों मजबूर हो गए......
और फिर रामप्यारी ने अपनी कहानी सुनानी शुरू की...
बरसन बीत गए इस बात को,हम बचपन में ही अनाथ हो गए थे,माँ बाप मछली पकड़ने का काम करते थे,हमें हमारी आजी(दादी) के पास छोड़कर वें दोनों मछली पकड़ने जाते थे बरसात के मौसम में,बाक़ी सब दिन सूखे मौसम में वो दोनों मिट्टी के बरतन बनाने का ही काम करते थें,हमारे बाबा अपनी माँ की इकलौती सन्तान थे उनके पिता जी उनके बचपन में ही किसी बिमारी से चल बसे थें,अकेली माँ रह गई थी,
चौमासा चल रहा था और तभी एक रोज बारिश में अम्मा और बाबा मछली पकड़ने गए,साथ में और भी लोंग थे गाँव के वें अपनी अपनी छोटी नाँव में सवार थे,उस रोज सुबह से ही हल्की हल्की बूँदें पड़ रहीं थीं,सबने सोचा दिनभर शायद बारिश तेज नहीं होगी,इसलिए मछलियाँ पकड़ने नदी की ओर चल पड़े,लेकिन दोपहर होने तक बारिश ने बड़ा रूप ले लिया और सब नदी में ही फँस गए...
उस दिन नदी में इतनी तेज बाढ़ आई कि सबका साथ छूट गया और सबकी नावें तितर-बितर होकर अलग अलग हो गई,बारिश इतनी तेज थी कि कुछ सम्भल ही नहीं रहा था और उस बारिश ने हमारे अम्मा बाबा को हमसे छीन लिया और भी मछुआरों को वो बाढ़ लील गई थी,लेकिन कुछ लोंग भाग्यवश वहाँ से बचकर आ गए,उस दिन के बाद फिर अम्मा बाबा कभी नहीं लौटें...
हमारी आज़ी ने हमें पालपोसकर बड़ा किया,बेचारी बरतन बनाकर बेचती थी जो उससे मिलता था तो उससे हमारा गुजर-बसर होता था,अब हम जवान हो रहे थे और हमने अब तक सोलह सावन देख लिए थे,हमें सयाना होता देख आज़ी को हमारे ब्याह की चिन्ता सता रही थी,एक तो गरीब ऊपर से बूढ़ी,दो बखत का खाना तो जुटता नहीं था तो पोती का ब्याह कैसे करती?दिन रात इसी चिन्ता में घुली जाती थी बेचारी.....
फिर एक दिन हम मिट्टी के बरतन बना रहे थे तो गाँव के जमींदार का नौकर आया और बोला....
मालकिन ने कुछ अच्छे घड़े मँगवाएं हैं,कुछ मैं ले लेता हूँ कुछ तू ले ले और हवेली तक मेरे साथ चल,मालकिन इन घड़ो के दाम तुझे वहीं देगीं....
हमने उससे कहा....
हम अपनी आजी से पूछकर आते हैं...
और फिर हमें हमारी आजी ने हवेली में जाने के लिए हाँ कर दी और हम घड़े उठाकर हवेली के नौकर के साथ चल दिए......
हमें हवेली के आँगन में ले जाया गया और हमने अपने घड़े सम्भालकर जमीन पर रख दिए.....
तब नौकर ने हवेली की मालकिन को आवाज़ दी....
मालकिन! देखिए ना कुम्हारिन बिटिया आ गई।।
नौकर की आवाज़ सुनकर मालकिन बाहर आईं,हमने उनका व्यक्तित्व देखा तो हमारी उन पर से नज़र ना हटी....
बैंगनी रंग की सुनहरे बार्डर वाली बनारसी साड़ी साथ में हरा ब्लाउज़,माँग में सुर्ख लाल सिन्दूर,माथे पर बड़ी सी कुमकुम की बिन्दिया और सिर पर पल्लू,गलें में पाँच लड़ियों वाला सीतारामी हार,कान में झुमके,हाथों में कलाइयाँ भर चूड़ियाँ सोने के कंगनों के साथ,पीली गोराई लिए रंग ,कद-काठी ऐसी कि जैसे कहीं की रानी-महारानी हो....
हमें देखते ही वो बोलीं....
नाम क्या है तेरा?
हमनें कहा,रामप्यारी।।
ये सब घड़े तू अकेली ही बनाती है,उन्होंने पूछा।।
नहीं! हमारी आजी भी साथ में बनाती है,हमने कहा।।
ये सब घड़े यहीं रख दें और सबके दाम बता ,कल और भी घड़े लेकर आना,मैं फिर से कल हरिया को भेजूँगी,मालकिन बोली।।
हमने कहा,जी मालकिन! आ जाऐगें कल भी।।
और फिर उस दिन हम अपने घड़ो के दाम लेकर वापस आ गए दूसरे दिन उन्होंने हमें अपनी हवेली पर फिर से हमें बुलवाया,हमने घड़े रखें और दाम देकर वापस आने लगें तो वें बोलीं....
ए...लड़की! जरा इधर तो आ ,तुझसे काम है।।
हमने कहा ,जी कहिए मालकिन!
फिर वें हमें अन्दर लें गई और कुछ कपड़े और मिठाई देकर बोलीं.....
तू अपने घर जा! मैं शाम को तेरी आजी से मिलने आऊँगी.....
हमने पूछा,कोई गलती हो गई क्या हमसे?
नहीं! तेरी आजी से कुछ काम है,मालकिन बोलीं।।
फिर हमें कुछ समझ ना आया कि इन अमीर लोगन को हमारी गरीब आजी से कौन सा काम आ पड़ा है,हमने ज्यादा दिमाग उस बात पर ना लगाकर मिठाइयों की ओर लगा दिया और आजी को मालकिन का संदेशा भी सुना दिया....
शाम हुई सूरज डूबने वाला था,लेकिन हमें नहीं पता था कि हमारी जिन्दगी का भी सूरज डूबने का बखत आ गया है,हल्का अँधेरा होते ही मालकिन की पालकी हमारे कच्चे घर के द्वार पर रुक गई,उसमें से बड़े ठाट के साथ मालकिन उतरीं और घर की देहरी के भीतर अपने कदम रखें.....
उन्हें ऐसे देखकर आजी सकपका गई और बोली....
मालकिन ! आप ! हमारे घर में कुछ ऐसा भी तो नहीं आपके बैठने के योग्य कि आपसे कह सकूँ कि पधारिए।।
कोई बात नहीं! मैं खड़े खड़े ही अपनी बात कहकर चली जाऊँगीं,मालकिन बोलीं।।
जी! कहिए!आजी बोलीं।।।
मुझे तुम्हारी पोती पसंद आ गई है और मैं उसे अपनी भाभी बनाना चाहती हूँ,मालकिन बोली।।
ये सुनकर हमारी आजी के तो जैसे होश ही उड़ गए.....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा......